नये साल 2021 में झारखंड के राजनीतिक दलों खासकर झामुमो-कांग्रेस और भाजपा को नयी चुनौतियों से रू-ब-रू होना पड़ेगा। नये साल में विधानसभा की एक सीट मधुपुर में उपचुनाव भी होना है। इसे लेकर 15 जनवरी को खरमास खत्म होते ही सियासी पारा चढ़ने लगेगा। यह चुनाव इस मायने में भी खास है कि दो उपचुनाव में एनडीए को हार मिली है। इस कारण इस बार एनडीए पूरे दमखम के साथ मैदान में उतरेगा। उसके समक्ष यह भी चुनौती होगी कि सरकार की नाकामियों के बजाय वह खुद का वर्कप्लान लेकर जनता के बीच जाये। कारण अपना वर्कप्लान नहीं होने के कारण दो उपचुनाव में विपक्ष (भाजपा-आजसू) का इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है। एक ओर सरकार ने जहां नये साल में तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद घोषणाओं की झड़ी लगा दी है, वहीं अब विपक्षी खेमा को आलोचनाओं से ऊपर उठ कर अपना ब्लू प्रिंट लेकर जनता के बीच जाना होगा। युवाओं को रोजगार, महिला सशक्तीकरण और नक्सलवाद झारखंड का मुद्दा रहा है। इस बीच एक साल पूरा होने पर हेमंत सरकार ने आशा की किरण नये साल में हर वर्ग में जगा दी है। अगर घोषणाएं धरातल पर उतर गयीं तो निश्चित तौर से यह झारखंड के लिए मील का पत्थर साबित होगा। दूसरी ओर भाजपा और आजसू के समक्ष लोगों का विश्वास जीतने की चुनौती होगी। इसके लिए सिर्फ सरकार की खामियां गिनाने को ही अपनी उपलब्धि बताना इन दोनों दलों के लिए आत्मघाती होगा। अभी हाल में ही हुए दो उपचुनाव इसका उदाहरण है। दोनों में भाजपा-आजसू गठबंधन को हार का सामना करना पड़ा है। आमजन का विश्वास जीतने के लिए भाजपा और आजसू को नया वर्कप्लान तैयार करना होगा। पिछले चुनाव में झारखंड की जनता ने महागठबंधन पर विश्वास जताया था और झारखंड की गद्दी उसे सौंपी। लेकिन ये वोटर अब महागठबंधन को छोड़ कर एनडीए के पास क्यों जायेंगे, इस पर भी एनडीए को मंथन करना होगा। विपक्ष का दायित्व सिर्फ यह नहीं है कि सरकार की खामियां गिनाये, यह भी है कि संकट के समय झारखंड को प्रगति के मार्ग पर ले चलने के लिए कैसे जरूरत पड़ने पर सरकार के साथ कदमताल करे। वहीं दूसरी ओर आजसू के समक्ष चुनौती यह होगी कि क्या वह नये साल में भी भाजपा की पिछलग्गू बनकर रहेगी या फिर पार्टी नयी लकीर खींचेगी। कारण आजसू का हर विधानसभा में अपना प्रभुत्व है। वहां के वोटर और नेता-कार्यकर्ता भी इस उम्मीद में पार्टी आलाकमान की ओर टकटकी लगाये हुए हैं। इन सबके बीच देखना यह दिलचस्प होगा कि नये साल 2021 में राजनीतिक दल नयी चुनौतियों को कैसे अवसर में बदलते हैं। इसी पर प्रस्तुत है आजाद सिपाही के सिटी एडिटर राजीव की रिपोर्ट।
साल 2020 कोरोना के चलते परेशानी का सबब बना है। वैसे, इस साल दो उपचुनाव के दौरान चुनावी बिसात की गोटियां बिछाने और शतरंज के खेल में शह और मात की चाल सत्ता पक्ष और विपक्ष की तरफ से चली गयी। इसमें सत्ता पक्ष ने विपक्ष को पूरी तरह मात दे दी। अब नये साल में सत्ताधारी दल झामुमो, कांग्रेस और राजद को जहां जनता की उम्मीदों पर खरा उतरने की चुनौती होगी। वहीं, विपक्षी पार्टियां खासकर भाजपा और आजसू भी अपना दमखम और वजूद बेहतर करने की कोशिश करेंगी। वैसे, इन्हें अपनी ताकत बढ़ाने के लिए एड़ी चोटी एक करना होगा। सिर्फ मधुपुर की ही बात करें तो मौजूदा सरकार को अपनी सीटें बचाने की अग्निपरीक्षा से गुजरना होगा। वहीं, भाजपा यह सीट अपनी झोली में करने का भरपूर प्रयास करेगी।
जनता के अधिकारों की सुरक्षा रहेगी चुनौती
2021 में झारखंड में राजनीतिक दलों को संगठन को सशक्त बनाने की चुनौती है। लोगों का विश्वास हासिल करना सभी का उद्देश्य होगा। झारखंड स्थापना के 20 साल पूरे हो गये हैं। बिहार विधानसभा में काफी जद्दोजहद के बाद राज्य के विभाजन का प्रस्ताव पारित हुआ था। उस वक्त एकाध को छोड़ सभी पार्टियां झारखंड गठन के सवाल पर एकजुट थीं। तब कांग्रेस के सभी विधायक मंत्री थे। झारखंड के विधायकों ने मंत्री पद से त्यागपत्र देकर अलग राज्य की मुहिम को ताकत दी। उस वक्त केंद्र की भाजपानीत सरकार ने राज्य के गठन में अहम भूमिका निभायी। झारखंड के साथ-साथ उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ भी क्रमश: उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश से अलग होकर गठित हुए। झारखंड का दुर्भाग्य रहा है कि आज तक किसी एक दल को कभी स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। खनिज संसाधनों से परिपूर्ण झारखंड विकास के पायदान पर अपने साथ अलग हुए राज्यों के मुकाबले काफी पीछे खड़ा है। राजनीतिक नफा-नुकसान के पलड़े में छोटे-छोटे मामले तौले जाते हैं। फायदे के फेर में विकास से जुड़े बड़े सवाल गौण हो जाते हैं। गठबंधन दलों में यह आपाधापी मची रहती है कि कौन अपने प्रभाव वाले इलाके में ज्यादा से ज्यादा योजनाएं झपट ले जाता है। एक मायने में यह गलत भी नहीं है, लेकिन झारखंड के सवाल पर एकजुट होना राजनीतिक दलों के लिए भी एक बड़ी चुनौती है। पश्चिम और दक्षिण के राज्यों में गलाकाट राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा के बावजूद राज्यहित के सवाल पर लगभग सभी दलों के नेता एक मंच पर आ जाते हैं। अपने झारखंड में इसकी कमी खलती है। एक-दूसरे का दोष गिनाने के स्थान पर यह भी देखना होगा कि नये साल में अपना राज्य कहां खड़ा होगा। राज्य का विकास हुआ, तो राजनीति भी होती रहेगी। सत्ता किसी दल विशेष के पास हमेशा नहीं रहती। झारखंड जब युवा हो गया है, तो तमाम राजनीतिक दलों को यह सोचना होगा कि सकारात्मकता के साथ कैसे राज्य विकास के पथ पर आगे बढ़े। लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष महत्वपूर्ण स्थान रखता है, लेकिन कमियां गिनाने के साथ समाधान का रास्ता भी इन्हें बताना पड़ेगा, तभी बात बनेगी।
खोई प्रतिष्ठा को वापस पाने की चुनौती
झारखंड की राजनीतिमें धाक जमानेवाले दलों को खोयी प्रतिष्ठा वापस पाना चुनौती है। हालांकि, इन दलों के नेता झारखंड में अपनी खोई जमीन तलाशने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहे हैं।
खोयी जमीन पाने के लिए छटपटाने से बेहतर यह होगा कि नेताओं को अपना वर्कप्लान लेकर जनता के बीच जाना चाहिए। बहरहाल, झारखंड में राजनीतिक दलों द्वारा खोयी जमीन और पाये गये जनसमर्थन को बरकरार रखने में कितनी सफलता मिलेगी, यह तो आनेवाला वर्ष ही बतायेगा।
हेमंत सोरेन सरकार से जगी उम्मीद की किरण
दूसरी दफा झारखंड के मुख्यमंत्री बने हेमंत सोरेन से जनता की उम्मीदें ज्यादा हंै। इस सरकार को इन उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए बड़ी चुनौती होगी। अब यह देखना होगा कि कैसे सरकार इन चुनौतियों से निपटते हुए अवसर के द्वार खोलती है। हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली सरकार ने अपनी पहली सालगिरह मना ली है। इससे महज एक सप्ताह पहले हेमंत कैबिनेट की ग्यारहवीं बैठक हुई। इसमें किसानों का 50 हजार रुपये तक का कर्ज माफ करने का निर्णय लिया गया। यह फैसला इन दिनों सुर्खियों में है। अब तक की ग्यारह बैठकों में जिन 207 प्रस्तावों को मंजूरी दी है, उनमें से अधिकतर सुर्खियों में रही हैं। बात चाहे पत्थलगड़ी के कारण दर्ज देशद्रोह के मुकदमों को वापस लेने की घोषणा की हो, किसानों की कर्ज माफी की या फिर आदिवासियों के लिए सरना आदिवासी धर्मकोड के प्रस्ताव पारित करने का। हेमंत सोरेन सरकार के निर्णयों ने उनके विरोधियों को भी चकित किया है और इन फैसलों ने सुर्खियां बटोरी हैं। हालांकि, इन निर्णयों पर काम होना अभी बाकी है और यही हेमंत सोरेन की सबसे बड़ी चुनौती भी है। क्योंकि, सोशल मीडिया के दौर में सुर्खियां कतरनों में फंसने की बजाये मोबाइल स्क्रीन के जरिये लोगों की जेबों में रहती हैं। इसका इस्तेमाल कभी भी किया-कराया जा सकता है। विपक्ष मुख्यमंत्री को कई बार उनके ही पुराने बयानों को लेकर घेर भी चुका है। कोरोना संक्रमण के शुरुआती दौर में जब हर आदमी एक-दूसरे को वायरस का वाहक समझ कर घरों में बंद था, हेमंत सोरेन स्वयं स्टेशनों और एयरपोर्ट पर मजदूरों के स्वागत के लिए मौजूद रहे। ये कुछ ऐसी घटनाएं थीं, जिनकी चर्चा व्यापक स्तर पर हुई, तब सीएम हेमंत सोरेन की चारों तरफ जमकर प्रशंसा की गयी और इस आदिवासी नेता को राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति भी मिली। प्रवासी मजदूरों के रोजगार सृजन के लिए बिरसा हरित ग्राम योजना, नीलांबर पीतांबर जल समृद्धि योजना, पोटो हो खेल विकास योजना, मुख्यमंत्री मानव सेवा योजना, शहरी क्षेत्रों के श्रमिकों के लिए 100 दिन के रोजगार गारंटी की योजना जैसी योजनाएं लागू करने के साथ ही सीमा सड़क संगठन जैसी संस्थाओं में पंजीकृत मजदूरों को भेजने जैसी उपलब्धियां भी सरकार के नाम रहीं।
हालांकि, ये उपलब्धियां मामूली हैं और हेमंत सोरेन की सरकार को आने वाले साल में विकास की गति काफी तेज करनी होगी। उनकी सबसे बड़ी चुनौती युवाओं को सरकारी नौकरी देना है, जिसका वादा उन्होंने किया है। हालांकि सरकार के एक साल पूरे होने पर इस वादे को उन्होंने दोहराया और प्राथमिकता के आधार पर नये साल में पूरा करने का भरोसा दिया है। सीएम की घोषणाओं से झारखंड के लोगों में उम्मीद की किरण जगी है। वहीं अब देखना शेष होगा कि कैसे विपक्षी दल नये साल में अपने काम का ब्लू प्रिंट तैयार करते हैं। कारण एक सरकार अब विकास को लेकर रेस मोड में नजर आ रही है। वहीं विपक्ष सिर्फ खामियां ही गिना रहा है।