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    Home»Jharkhand Top News»शासन का असली मतलब समझाया हेमंत सोरेन ने
    Jharkhand Top News

    शासन का असली मतलब समझाया हेमंत सोरेन ने

    azad sipahi deskBy azad sipahi deskDecember 29, 2020No Comments7 Mins Read
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    365 दिन, यानी पिछले साल 29 दिसंबर को जब झारखंड में पहली बार स्पष्ट बहुमत की गैर-भाजपा सरकार ने सत्ता संभाली, राजनीतिक पंडितों ने इसे लंगड़ी सरकार करार दिया था और झारखंड में राजनीतिक अस्थिरता के नये दौर की शुरुआत की भविष्यवाणी की थी। लेकिन इन राजनीतिक पंडितों की तमाम भविष्यवाणियां उस समय एक-एक कर गलत साबित होती गयीं, जब मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने अपना काम शुरू किया। उन्होंने न केवल प्रशासन को चंद लोगों के चंगुल से आजाद कराया, बल्कि एक-एक कर उन गड़बड़ियों का हिसाब करने लगे, जो राज्य के विकास के पहिये को रोक रहे थे। हेमंत ने केवल यही नहीं किया, बल्कि उन्होंने लोकतंत्र की उस चर्चित परिभाषा को शब्दश: हकीकत में उतार दिया, जिसमें कहा गया है कि जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए किया जानेवाला शासन ही लोकतंत्र है। उन्होंने प्रशासन को आरामदेह दफ्तरों से निकाल कर आम लोगों और जरूरतमंदों के दरवाजे तक पहुंचा दिया है। इसके लिए उन्होंने ट्विटर जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का बेहतरीन इस्तेमाल किया। सत्ता संभालने के बाद से उन्होंने पिछले एक साल में औसतन 10 ट्वीट हर दिन किये, जिनमें सूचनाओं के साथ जनता की शिकायतों के निराकरण के लिए प्रशासनिक अधिकारियों को आवश्यक निर्देश भी शामिल होते हैं।

    मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने अपनी सरकार की कार्यशैली पर नाक-भौं सिकोड़नेवालों को बता दिया है कि प्रशासन कैसे चलाया जाता है। उनकी इस अनोखी कार्यशैली का एक उदाहरण यह है कि सत्ता संभालने के चार महीने बाद तक उन्होंने न तो प्रशासनिक ढांचे में कोई बदलाव किया और न ट्रांसफर-पोस्टिंग में समय गंवाया। बिना किसी तामझाम और प्रचार-प्रसार के लिए वह अपने काम में जुटे रहे। उन्होंने सिर्फ इतना किया कि प्रशासन को आम लोगों और जरूरतमंदों के दरवाजे पर लाकर खड़ा कर दिया। झारखंड के लिए यह एक बड़ा और क्रांतिकारी बदलाव है।

    वाकई झारखंड का सिस्टम तो कुछ मुट्ठी भर लोगों के पास बंधक बना था। इन लोगों ने पूरे सिस्टम को अपने हित में चला रखा था। आम लोगों की बदौलत चलनेवाली व्यवस्था पूरी तरह से पंगु बना दी गयी थी। बिजली, पानी, स्वास्थ्य, सड़क, कृषि, कानून-व्यवस्था और वे तमाम विभाग, जो आम लोगों से सीधे जुड़े थे, कुछ मुट्ठी भर लोगों के इशारों पर काम कर रहे थे। वहां आम लोगों की न तो चिंता थी और न ही उनके लिए कोई जगह थी। ऐसे में हेमंत सरकार ने  गड़बड़ियों की जांच का सिलसिला शुरू किया और इसके जो नतीजे सामने आ रहे हैं, उनसे साफ पता चलता है कि मुट्ठी भर नौकरशाहों ने राजनीतिक नेतृत्व को आम लोगों से पूरी तरह काट कर रख दिया था। सरकारी निर्माण का ठेका गिने-चुने लोगों-कंपनियों को दिया जाता था, क्योंकि उन्हें सत्ता के नियंता बन बैठे अधिकारियों का खुला संरक्षण मिल रहा था। बदले में ये ठेकेदार और कंपनियां झारखंड को खोखला करनेवाले नक्सलियों की मदद कर रहे थे, यह बात भी साबित हो चुकी है।

    हेमंत सोरेन सरकार के एक साल के कार्यकाल की सबसे विशिष्ट बात यह रही कि उसने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि पिछले 20 साल में झारखंड में क्या हुआ, कैसे हुआ और कितना हुआ। यानी लकीर पीटने और सब कुछ अतीत पर थोपने की बजाय इस सरकार ने नयी लकीर खींचने की कोशिश की है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने शासन में न तो राजनीति को घुसने दिया और न ही प्रशासन को बेलगाम होने का मौका ही दिया।  मुख्यमंत्री ने राज्य के सिस्टम में जड़ जमा चुकी गड़बड़ियों को दूर करने का व्यापक अभियान शुरू किया।  प्रशासन के एक-एक काम का हिसाब मुख्यमंत्री खुद लेने लगे और जवाबदेही भी तय होने लगी। इसका सीधा असर यह हुआ कि लगभग बेलगाम हो चुकी नौकरशाही पर राजनीतिक नेतृत्व की पकड़ मजबूत हुई। इसका साफ संकेत उस समय मिला, जब आम तौर पर मीडिया और छोटे राजनीतिक कार्यकर्ताओं को तरजीह नहीं देनेवाले कतिपय नौकरशाह अब हर फोन कॉल का जवाब देते हैं और लोगों की शिकायतों के निवारण का हरसंभव प्रयास करते हैं। तीन महीने पहले मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने जब राज्य के तमाम अधिकारियों के कामकाज की समीक्षा करने का फैसला किया, तो वैसे अधिकारियों में बेचैनी पसर गयी, जिनकी पहचान प्रशासनिक हलकों में कम और राजनीतिक हलकों में अधिक थी। मुख्यमंत्री का एक और फैसला ऐतिहासिक रहा, जिसके तहत उन्होंने  निगरानी विभाग को ऐसे अफसरों की सूची तैयार करने को कहा, जिनके खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं दी गयी। आंकड़े बताते हैं कि 2014 से 2019 के दौरान झारखंड के करीब साढ़े तीन सौ सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ शिकायत सही पायी गयी, लेकिन उनके खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं दी गयी। इनमें दर्जन भर आइएएस और राज्य प्रशासनिक सेवा के करीब 70 अधिकारी शामिल हैं।  निगरानी विभाग ने सूची तैयार की, तो मुख्यमंत्री ने एक-एक कर सभी मामलों में अभियोजन की स्वीकृति दी।  यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि झारखंड में भ्रष्टाचार और गड़बड़ी लगभग संस्थागत रूप ले चुकी है। आज से पहले किसी भी सरकार ने इस स्थिति को बदलने की कोशिश नहीं की। इसका नतीजा यह हुआ कि नौकरशाही का बड़ा तबका सिस्टम को अपनी जेब में रखने लगा। मनमाने फैसले होते रहे और बिचौलियों की चांदी कटने लगी। राज्य की जनता नक्सलवाद और बेलगाम नौकरशाही के बीच पिसती रही। सत्ता को उसके दुख-दर्द से कोई मतलब नहीं रहा। वह विकास के सपनों में इतना अधिक खो गयी कि उसे समाज की अंतिम कतार में बैठे लोगों का ध्यान ही नहीं रहा। लोकतंत्र के बारे में बहुत पुरानी कहावत है कि यदि विधायिका आंखें बंद कर लेती है, तो फिर कार्यपालिका का निरंकुश होना तय हो जाता है। यही झारखंड के साथ भी हुआ। विधायिका, यानी राजनीतिक नेतृत्व को हकीकत से दूर रखा जाने लगा और तब गड़बड़ियों का सिलसिला चल निकला। जनता को दिखाने के लिए भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो और पुलिस काम तो कर रही थी, लेकिन उसका कोई असर व्यवस्था पर नहीं हो रहा था, क्योंकि सारी जांच, सारी कानूनी प्रक्रियाओं को मंत्रालय के किसी कोने में डंप कर रखा जा रहा था। हेमंत सरकार ने इन मामलों को नये सिरे से शुरू करने का फैसला किया। इस फैसले से साफ कर दिया कि गड़बड़ी करनेवालों को अब किसी कीमत पर बख्शा नहीं जायेगा।

    इस बात में कोई संदेह नहीं है कि हेमंत सोरेन की सरकार व्यवस्थागत खामियों को उजागर करने और उन्हें दूर करने में शिद्दत से जुटी है। इन खामियों ने पिछले 20 साल में झारखंड को लगभग खोखला कर दिया है। राजनीतिक स्थिरता के नाम पर  मुट्ठी भर नौकरशाहों ने जिस तरह के कुचक्र रचे और मनमानी की, उन सभी की पोल पिछले एक साल में खुल गयी है। आम लोगों से जुड़े मामलों में किस तरह की लापरवाही बरती गयी और राजनीतिक नेतृत्व की शह पाकर नौकरशाही कैसे बेलगाम होकर काम करती रही, इन सभी का पता भी लोगों को चला। नागरिक प्रशासन से लेकर पुलिस तक और नौकरशाहों से लेकर निचले स्तर के सरकारी बाबुओं तक ने इस बहती गंगा में खूब हाथ धोये और झारखंड का आम आदमी इनके सामने गिड़गिड़ाता रहा, अपनी बेबसी पर रोता रहा। सरकार की मशीनरी इतनी केंद्रित हो गयी थी कि आम आदमी की आवाज राजनीतिक नेतृत्व तक पहुंच ही नहीं पाती थी। राजनीतिक नेतृत्व पर नौकरशाही के इस कठोर कवच को जांच के तीरों से तोड़ने की यह कोशिश झारखंड में बदलाव के युग की आहट है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह जांच किसी व्यक्ति के खिलाफ नहीं, बल्कि व्यवस्था की हो रही है।

    Hemant is seen making his new way in a year
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