बिहार विधानसभा चुनाव में शर्मनाक पराजय झेलने के बाद कांग्रेस संगठन की हालत राष्ट्रीय स्तर पर डावांडोल तो हुई ही है, पिछले साल झारखंड में पार्टी को जो शानदार सफलता हासिल हुई थी, वह भी खतरे में दिखायी देने लगी है। पिछले एक साल में झारखंड कांग्रेस बिना पतवार के नाव जैसी हो गयी है, जिसका न कोई कप्तान है और न ही कोई दिशा। इसके अंदरखाने में जो हालात पैदा हो गये हैं, उससे ऐसा लगने लगा है कि संगठन को कोई देखनेवाला नहीं है। पहली बार झारखंड में पूर्ण बहुमत की गैर-भाजपा सरकार की सहयोगी होने के नाते झारखंड की राजनीतिक स्थिरता बनाये रखने में कांग्रेस की महत्वपूर्ण भूमिका है। विधानसभा के चुनाव में ऐतिहासिक कामयाबी पाने के बाद कांग्रेस के भीतर जिस आत्मविश्वास और उत्साह का संचार हुआ था, 11 महीने बाद उसमें बहुत कमी आयी है और यह बात साफ तौर पर देखी जा रही है। सरकार में चार मंत्री होने के बावजूद पार्टी के बाकी दर्जन भर विधायक पूरी तरह सहज नहीं हैं और वे अपने इलाकों तक ही सीमित होकर रह गये हैं। सांगठनिक रूप से भी झारखंड कांग्रेस कई धड़ों में विभाजित नजर आ रही है। हालत यह हो गयी है कि पार्टी नेतृत्व को जब जिसका जी चाहता है, भला-बुरा कह देता है। पार्टी संगठन को कुछ मुट्ठी भर नेता अपनी मर्जी के मुताबिक चला रहे हैं। प्रदेश कांग्रेस की यह हालत झारखंड के राजनीतिक भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता। झारखंड कांग्रेस के अंदरखाने की बदलती स्थिति और प्रदेश की राजनीति पर पड़नेवाले इसके संभावित असर को टटोलती आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
जामताड़ा के कांग्रेस विधायक और प्रदेश कांग्रेस के पांच कार्यकारी अध्यक्षों में से एक डॉ इरफान अंसारी पूरी तरह बगावती तेवर में हैं। उन्होंने अपने पिता और पूर्व सांसद फुरकान अंसारी के खिलाफ जारी कारण बताओ नोटिस पर पार्टी नेतृत्व को सीधी चुनौती देकर साफ कर दिया है कि झारखंड कांग्रेस में अब न तो अनुशासन की कोई जगह बची है और न ही किसी को संगठन की मजबूती से मतलब है। पिछले साल लोकसभा चुनाव के बाद जब तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष डॉ अजय कुमार ने आलाकमान को पत्र लिख कर पार्टी की प्रदेश इकाई में व्याप्त इस बीमारी के बारे में बताया था, तब डॉ अंसारी समेत कई नेताओं ने उन्हें आड़े हाथों लिया था, लेकिन अब उनकी कही गयी बात पूरी तरह सही साबित हो रही है।
पिछले साल दिसंबर में विधानसभा चुनाव में जब कांग्रेस ने झारखंड में अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए 16 सीटों पर जीत हासिल की थी, तब कहा जाने लगा था कि पार्टी अपने सुनहरे दिन की ओर लौट रही है। उस जीत ने लोकसभा चुनाव में पार्टी के खराब प्रदर्शन के दर्द को भुला दिया था। विधानसभा चुनाव में 31 सीटों पर चुनाव लड़ कर 16 सीटें जीत कर कांग्रेस ने न केवल गठबंधन के दूसरे सबसे बड़े सहयोगी का स्थान बरकरार रखा, बल्कि सरकार में लगभग बराबर की साझीदार भी बनी। पार्टी के चार विधायक मंत्री बने और जोर-शोर से नयी सरकार ने काम शुरू किया। शुरुआत में पार्टी के विधायकों में भी काम के प्रति जबरदस्त उत्साह था, लेकिन समय बीतने के साथ ही यह उत्साह ठंडा पड़ता दिख रहा है।
झारखंड कांग्रेस की अंदरूनी स्थिति ठीक नहीं है। जिन नेताओं और कार्यकर्ताओं ने विधानसभा चुनाव में अपना सब कुछ झोंक दिया और पार्टी की जीत के लिए दिन-रात एक कर दिया, अब उनकी ही अनदेखी से स्थिति विस्फोटक मोड़ पर पहुंचती जा रही है। यहां तक कि पार्टी के विधायकों को भी समझ में नहीं आ रही है कि वे क्या करें और किधर जायें। हालत यह हो गयी है कि पार्टी को कुछ गिने-चुने नेता अपने इशारों पर चला रहे हैं। यहां तक कि चार में से दो कार्यकारी अध्यक्षों की भी कोई भूमिका नहीं रह गयी है। पिछले एक साल से पार्टी ने अपना कोई कार्यक्रम नहीं किया है। केंद्रीय स्तर से जो कार्यक्रम तय होता है, उसे भी महज औपचारिकता के लिए पूरा कर दिया जाता है। कई बार तो पार्टी के मंत्री भी उसमें शामिल होने की जरूरत महसूस नहीं करते। संगठन का काम पूरी तरह रुका पड़ा है।
संगठन की कमजोरी का ही परिणाम है कि डॉ इरफान अंसारी जैसे विधायक भी पार्टी नेतृत्व को सार्वजनिक रूप से कठघरे में खड़ा कर देते हैं। पार्टी के प्रदेश प्रभारी और दूसरे नेताओं पर सीधे-सीधे आरोप लगा देते हैं। कांग्रेस के कई पुराने नेता पूरी तरह हाशिये पर चले गये हैं।
वैसे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में डॉ रामेश्वर उरांव की सांगठनिक क्षमता और राजनीतिक कौशल पर कतई सवाल खड़ा नहीं किया जा सकता, लेकिन वित्त मंत्री रहते हुए अपना पूरा ध्यान संगठन पर लगा पाना उनके लिए वाकई मुश्किल भरा है। इसके बावजूद उन्होंने अब तक पार्टी को कम से कम धरातल पर ही सही, एकजुट रखने में सफलता हासिल की है, जो प्रशंसनीय है। लेकिन इस तरह की जुगाड़ वाली व्यवस्था से पार्टी नहीं चल सकती। कांग्रेस के कम से कम आधा दर्जन ऐसे विधायक हैं, जो सार्वजनिक तौर पर तो कुछ नहीं कहते, लेकिन निजी बातचीत में उनकी पीड़ा साफ सुनाई देती है। इन विधायकों की तकलीफ यह है कि उनकी बातों को सुननेवाला कोई नहीं है। ये विधायक कहते हैं कि वे किसी धड़े में नहीं हैं। इसलिए उनकी लगातार उपेक्षा हो रही है। आलाकमान की ओर से कहा जाता है कि वे अपनी बात प्रदेश इकाई के माध्यम से बतायें और यहां उनसे कोई बातचीत ही नहीं होती। ऐसे में ये विधायक अपने इलाके तक सिमट कर रह गये हैं। विधायकों की शिकायत यह भी है कि झारखंड के बारे में कोई भी फैसला बिना उनके मशविरे के ले लिया जाता है, जिससे उनकी स्थिति कमजोर होती है और उन्हें अपनी ऊर्जा आलाकमान के फैसले का औचित्य सिद्ध करने में ही खर्च करनी पड़ती है। पार्टी के कई नेता सवाल उठाते हैं कि पिछले तीन साल से प्रदेश कमिटी का ही गठन नहीं हुआ है, तो एक संगठन के रूप में कांग्रेस की गाड़ी कैसे आगे बढ़ सकती है।
जाहिर है, कांग्रेस के भीतर की यह स्थिति झारखंड के राजनीतिक भविष्य के लिए भी खतरनाक है, क्योंकि यह पार्टी सरकार में साझीदार है और इसके भीतर का असंतोष का असर सरकार की सेहत पर भी पड़ना स्वाभाविक है। ऐसे में झारखंड कांग्रेस को एक ऐसे ओवरहॉलिंग की जरूरत है, जो इसे पिछले साल के अक्टूबर-नवंबर की स्थिति में पहुंचा सके, जिसमें पार्टी का हरेक नेता और कार्यकर्ता एकजुट होकर चुनाव जीतने के संकल्प के साथ मैदान में था। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 13.88 प्रतिशत मत मिले थे, जो 2014 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले करीब सवा तीन प्रतिशत अधिक थे। इस शानदार वोट शेयर को बरकरार रखने के लिए पार्टी को अभी से ही काम में जुटना होगा।
कांग्रेस आलाकमान जितनी जल्दी यह बात समझ ले, स्थिति उतनी ही अनुकूल होगी, अन्यथा झारखंड में भी किसी अनहोनी की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है। वैसे भी झारखंड की पांचवीं विधानसभा में पार्टी के कई ऐसे विधायक हैं, जो पहली बार विधायक बने हैं। उनके भीतर काम करने का जज्बा है और पार्टी को उन्हें आगे बढ़ाने के लिए हरसंभव कदम उठाना चाहिए।