झारखंड अलग राज्य बनने के बाद से ही इस प्रदेश में जो धंधा सबसे अधिक फला-फूला, वह है जमीन का कारोबार। राज्य का कोई कोना ऐसा नहीं बचा, जहां जमीन कारोबारी नहीं फैले और कोई ऐसा शहर-कस्बा नहीं बचा, जहां जमीन कारोबार के विवाद में हत्याएं नहीं हुर्इं। अरबों रुपये का यह कारोबार निजी जमीन से आगे बढ़ते हुए सरकारी जमीन तक पहुंच गया और गैर-मजरुआ के साथ-साथ जंगल, नदी और पहाड़ों पर कब्जा कर उसकी खरीद-बिक्री होने लगी। इतने फायदे का कारोबार देख कर स्वाभाविक रूप से इसमें बड़े लोगों की दिलचस्पी भी बढ़ी और उनकी खुली मदद से सरकारी जमीन की लूट का धंधा परवान चढ़ने लगा। इसका नतीजा यह निकला कि केवल रांची शहर में आधा दर्जन तालाबों को भर कर बेच दिया गया, हजारीबाग में जंगल को साफ कर उस पर कॉलोनियां बना दी गयीं और देवघर में सरकारी जमीन के रिकॉर्ड में हेराफेरी कर करोड़ों रुपये का घोटाला किया गया। पिछले दो दशक से चल रहे इस बेलगाम खेल ने जहां झारखंड जैसे हरे-भरे प्रदेश को कंक्रीट के जंगल में बदल दिया गया, वहीं सरकार के खजाने को भी नुकसान पहुंचाया। इस खेल में रसूखदार लोग शामिल हुए, तो जमीन कारोबारियों का बचा-खुचा डर भी जाता रहा और अब स्थिति यहां तक पहुंच गयी है कि जमीन कारोबारी नदी को भर कर बेचने में लग गये हैं। इस पूरी कहानी का सबसे दुखद पहलू यह है कि ऐसे तमाम सौदों की जानकारी सार्वजनिक होती है, तो उसकी जांच के आदेश दिये जाते हैं, लेकिन किसी मामले में कोई कार्रवाई नहीं होती। झारखंड में जारी सरकारी जमीन की लूट और इसके सामने सिस्टम के सरेंडर होने की कहानी बयां करती आजाद सिपाही ब्यूरो की खास पेशकश।
झारखंड सचमुच संभावनाओं से भरा प्रदेश है। संभावनाएं सकारात्मक होती हैं, तो राज्य और समाज विकास के रास्ते पर आगे बढ़ता है, लेकिन यदि यही संभावनाएं नकारात्मक हो जायें, तो फिर राज्य के विकास को ब्रेक लग जाता है, जिससे सिस्टम भी पंगु बन जाता है। झारखंड की संभावनाएं मिली-जुली हैं, इसलिए यहां के विकास की गाड़ी रुक-रुक कर चलती है। 20 साल का युवा झारखंड अपने जिस्म पर कई घाव सह चुका है, लेकिन एक घाव, जो आज भी इस प्रदेश को असहनीय पीड़ा दे रहा है, वह है यहां की सरकारी जमीन की लूट-खसोट।
झारखंड बनने के बाद यहां जमीन का कारोबार सबसे अधिक फला-फूला। मुहल्ले के बेरोजगार युवा से लेकर प्रशासन से लेकर सरकार के ऊंचे स्तर तक के लोग और बड़े व्यवसायी इस कारोबार में शामिल हो गये। पहले यह कारोबार लुके-छिपे तरीके से चलता था, लेकिन जब प्रभावशाली लोग इसमें शरीक होने लगे, तो फिर यह पूरा खेल बेपर्दा हो गया। हालत यह हो गयी कि पुलिस-प्रशासन के अधिकारी और जवान भी इस कारोबार से जुड़ कर अंधाधुंध कमाई करने लगे। प्रभावशाली और पैसे वाले लोग जैसे-तैसे कर जमीन खरीदने लगे और झारखंड में ऐसे जमीन मालिकों की संख्या तेजी से बढ़ती गयी। निजी या रैयती जमीन के कारोबार के रास्ते में आनेवाली अड़चनों को देख कर कारोबारियों की नजर सरकारी जमीन पर पड़ी और देखते ही देखते सरकारी जमीन का भी सौदा बेरोक-टोक चलने लगा। राज्य सरकार के आंकड़े बताते हैं कि झारखंड में अब तक करीब 20 हजार एकड़ सरकारी जमीन बेची जा चुकी है और इन पर कंक्रीट की इमारतें खड़ी हो गयी हैं। इस 20 हजार एकड़ में जंगल भी थे, नदियां और तालाब भी थे और पहाड़ भी थे। इन प्राकृतिक संपदाओं का अस्तित्व ही खत्म हो गया। देवघर, हजारीबाग, रांची, गिरिडीह, कोडरमा, लोहरदगा, गुमला और बोकारो जैसे जिलों में तो इस कारोबार में रसूखदार लोगों ने सक्रिय भूमिका निभायी।
ऐसा नहीं है कि यह धंधा चोरी-छिपे हुआ। चूंकि इस कारोबार में पहुंच वाले लोग शामिल थे, इसलिए गड़बड़ियों की जांच भी नहीं हुई। यदि हुई भी, तो फिर रिपोर्ट को ही कहीं दबा दिया गया। इसका एक ही उदाहरण काफी है। राज्य के पूर्व पुलिस प्रमुख ने रांची के बाहरी इलाके में अपना आवासीय परिसर बनाने के लिए जमीन खरीदी, जबकि यह जमीन गैर-मजरुआ थी। उनके साथ कई अन्य पुलिस अधिकारियों ने भी वहां जमीन खरीदी और फिर पुलिस कॉलोनी बसा दी गयी। आश्चर्यजनक रूप से पूरा सौदा निजी कारोबारियों के साथ हुआ, जबकि सरकारी कर्मियों की कॉलोनी के लिए जमीन सरकार देती है। इस पूरे प्रकरण की जांच हुई और पूरा सौदा गलत साबित होने के बावजूद किसी का बाल भी बांका नहीं हुआ। इस मामले की नये सिरे से जांच के आदेश दिये गये हैं।
इसी तरह रांची के बाहरी इलाके में नामकुम के पास राज्य के सबसे बड़े मॉल के मालिक ने खासमहाल की करीब साढ़े नौ एकड़ जमीन खरीद ली। यह जमीन उन्होंने कैसे खरीदी और उसकी अनुमति कहां से मिली, इसकी जांच शुरू हो गयी है। लेकिन उस जांच का कोई परिणाम निकलेगा, इसकी संभावना कम ही है। झारखंड में जमीन घोटालों की जो भी जांच हुई है, उसमें एकाध अपवादों को छोड़ कर कभी कार्रवाई नहीं हुई। चाहे हजारीबाग का जमीन घोटाला हो या हजारीबाग का, डाल्टनगंज में खासमहाल जमीन की बंदोबस्ती का मामला हो या लोहरदगा में वन भूमि बेचने का मामला, जांच के नाम पर केवल लीपा-पोती ही हुई।
ऐसे में सवाल यह है कि सरकारी जमीन की इतनी लूट आखिर क्यों और कैसे हुई। दरअसल झारखंड में आदिवासी जमीन की खरीद-बिक्री पर लगी कानूनी रोक को इसका पहला कारण माना जाता है। सीएनटी-एसपीटी एक्ट के प्रावधानों के कारण यहां आदिवासियों की जमीन का हस्तांतरण एक पेंचीदा प्रक्रिया है। इसलिए कारोबारियों की निगाह सरकारी जमीन पर गड़ गयी। चूंकि इसमें उन्हें रसूखदारों का सक्रिय सहयोग मिला, तो रास्ता आसान हो गया।
अब, जबकि जमीन सौदों की नये सिरे से जांच के आदेश दे दिये गये हैं और इसके कारण इन सौदों में शामिल लोगों में खलबली मच गयी है, उम्मीद यही की जानी चाहिए कि इस बार दूध का दूध और पानी का पानी होकर रहेगा। हेमंत सरकार ने सिस्टम को ठीक करने का जो अभियान शुरू किया है, जांच का यह आदेश भी उसका एक हिस्सा है। झारखंड को अब जांच नहीं, कार्रवाई की जरूरत है, ताकि यहां मची लूट को रोका जा सके।