समाज ने ठाना है : अब फिर किसी रेबिका को हैवानियत की भेंट नहीं चढ़ने देंगे
कह रहे लोग : प्रशासन अब भी नहीं जागा, तो एक और उलगुलान के लिए तैयार रहे ल्लसमाज के कठघरे में है पुलिस और वहां के जनप्रतिनिधि
संथाल परगना का रेबिका पहाड़िया हत्याकांड लगातार तूल पकड़ता जा रहा है, क्योंकि यह एक समाज के खिलाफ जघन्य अपराध है। वह भी एक ऐसा समाज, जो विलुप्त होने के कगार पर खड़ा है। जिसने हमेशा अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ी है। अपने समाज की एक बेटी की निर्मम हत्या के खिलाफ पहाड़िया समाज ने अपने पारंपरिक हथियारों के साथ सड़क पर प्रदर्शन किया है और इसके माध्यम से स्थानीय पुलिस-प्रशासन और जनप्रतिनिधियों को चेतावनी दी है कि यह समाज एक बार फिर जुल्म और शोषण के खिलाफ उलगुलान का बिगुल बजाने के लिए तैयार है। इस समाज को कमजोर आंकना बड़ी भूल होगी। वैसे भी संथाल परगना का इलाका अन्याय और शोषण के खिलाफ हमेशा उठ खड़ा हुआ है। प्रशासन और जनप्रतिनिधियों को इतिहास के पन्नों में झांक लेना चाहिए। कौन थे जबरा पहाड़िया उर्फ बाबा तिलका मांझी, कौन थे सिदो-कान्हू, चांद भैरव जरा इनके बारे में भी जान लेना चाहिए। महज नाम जानने से कुछ नहीं होगा, वक्त मिले तो इनकी वीरता के बारे में पढ़ भी लेना चाहिए। संथाल परगना, संथालों की वीरता, उनके शौर्य की गाथा, उनकी इज्जत-प्रतिष्ठा, मान सम्मान के लिए उनके बलिदान की कहानियों से भरा पड़ा है। लेकिन यह इस इलाके का दुर्भाग्य है कि झारखंड अलग राज्य बनने के बाद से उनके अस्तित्व पर लगातार हमले हो रहे हैं, उनकी इज्जत-प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़ किया जाता रहा है। पहाड़िया समाज ने सड़क पर उतर कर पूरी दुनिया को यह बताने की कोशिश की है कि जुल्म का प्रतिकार करने की उसकी ताकत कम नहीं हुई है। इस विरोध प्रदर्शन के विभिन्न कारणों और उनके संभावित परिणामों का विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
जब-जब आदिवासी जागा है, क्रांति आयी है। देश की पहली क्रांति की मशाल आदिवासियों ने ही जलायी थी। वह 1855 का दौर था। अंग्रेजों, जमींदारों और साहूकारों का शोषण चरम पर था। झारखंड के संथाल परगना में उनके शोषण से आदिवासी कराह रहे थे। उनकी अस्मिता खतरे में पड़ गयी थी।
कहते हैं न कि जब पानी सिर से ऊपर बहने लगता है, तो बचने के लिए आदमी कोई भी कदम उठाने को तैयार हो जाता है। वह ज्यादा सोच-विचार नहीं करता, आगे-पीछे नहीं देखता। सो संथालों ने भी शोषण के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया। नाम दिया गया संथाल विद्रोह। उस वक्त संथालों ने अपनी बहू-बेटियों की इज्जत की खातिर, घर-द्वार, जमीन और क्षेत्र की खातिर, अपने मान-सम्मान और अधिकारों की खातिर, अपनी पहचान और संस्कृति को बचाने की खातिर लड़ाई लड़ी थी। और लड़ाई भी ऐसी लड़ी कि अंग्रेजों को उनके क्षेत्र से भागना पड़ा और संथालों के लिए संथाल परगना बनाना पड़ा। उनके हक के लिए कानून बनाने के लिए भी बाध्य होना पड़ा, जिसे आज हम एसपीटी एक्ट के नाम से जानते हैं। पहाड़िया जनजाति शांत होते हैं, सच्चे होते हैं, सीधे-सादे होते हैं, प्रकृति पूजक होते हैं और अपनी ही दुनिया में मगन रहते हैं। लेकिन अगर उनकी संस्कृति, उनकी पहचान, उनकी बहू-बेटियों की इज्जत के साथ कोई खिलवाड़ करने की कोशिश करता है, तो उलगुलान होता है, संथाल हूल का आगाज होता है। जबरा पहाड़िया, जिन्हें तिलका मांझी के नाम से भी जाना जाता है, उन्हें अगर देश का सबसे पहला स्वंत्रता सेनानी कहा जाये, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। 1770 में बाबा तिलका मांझी ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लंबी और कभी न समर्पण करने वाली लड़ाई लड़ी थी। बाबा तिलका मांझी के गुस्से और लाल आंखों से अंग्रेज खौफ खाते थे। जबरा पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी पहाड़िया समाज से थे। उसके बाद चार भाइयों सिदो-कान्हू, चांद-भैरव और इनकी दो बहनों फूलो-झानो को कौन नहीं जनता, जिन्होंने 1855 में विद्रोह का बिगुल फूंका था। जिसे आज संथाल हूल या संथाल विद्रोह के नाम से जाना जाता है। पहाड़िया समुदाय में तीन उपवर्ग हैं। सौरिया पहाड़िया, माल पहाड़िया और कुमारभाग पहाड़िया। 2001 की जनगणना के अनुसार, झारखंड में जहां 61,121 सौरिया पहाड़िया थे, वहीं 2011 में इनकी संख्या घट कर 46, 222 रह गयी। यानी दस सालों में इस आदिम जनजाति की संख्या में करीब एक चौथाई की कमी आयी। आज 2022 है। समझा जा सकता है कि अब यह संख्या कितनी होगी। यह इस जनजाति के अस्तित्व की चिंता करने वालों के लिए भयभीत करने वाला आंकड़ा है। पहाड़िया समुदाय का जीवन जल, जंगल, जमीन और जानवर पर आधारित होता है। वे मकई, बरबट्टी, अरहर की खेती करते हैं। पहाड़ पर निवास करने के कारण ये धान की खेती नहीं के बराबर ही करते हैं। हालांकि सरकार की तरफ से पीवीटीजी डाकिया योजना के तहत प्रतिमाह मिलने वाला 35 किलो चावल वर्तमान में इनके भोजन का मुख्य आधार है। इसके अलावा मकई, बाजरा इनके प्रमुख भोजन हैं। औसत पहाड़िया परिवार चार से पांच लोगों का होता है और इनकी आय सालाना 10 से 25 हजार के बीच होती है। यह पहाड़ पर लगे फल और अन्य तरह की जड़ी बूटियों को बेच अपना जीवन यापन करते हैं, जिससे वे अपना तेल-मसाला का इंतजाम कर लेते हैं।
लेकिन जिस प्रकार से इनकी अनदेखी होती रही है। इन्हें हमेशा दबा-कुचला महसूस करवाया जाता रहा है, वह अब मजबूर हो चुके हैं कि इन्हें अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी। आज जिस तरीके से झारखंड के जनप्रतिनिधि आदिम जनजाति की बेटी रेबिका पहाड़िया की खौफनाक हत्या के खिलाफ चुप्पी साधे हुए हैं, यह हर संथाली देख रहा है। वह देख रहा है कि कैसे निर्लज्ज जुबान से ये जनप्रतिनिधि उसके दरवाजे पर आते हैं और उनसे हाथ जोड़ वोट मांगते हैं। लेकिन जब इन जनप्रतिनिधियों को उनके हक में खड़े रहने की बारी आती है, तब वे बड़ी-बड़ी डींगें हांकने लगते हैं। एक सुर से सभी एक तरह का रट्टा लगा संवेदना प्रकट करने लगते हैं। बहुत खराब हुआ। दिल बैठ गया यह खबर सुन कर। नारी के साथ ऐसा अन्याय नहीं सहेंगे। दोषियों को फांसी दो, बस उसके बाद सब चुप। सरकार में बैठे लोग कहते हैं, अरे सिर्फ झारखंड में ही ऐसा क्राइम थोड़े न हो रहा है। क्या दिल्ली, मुंबई, मध्यप्रदेश में नहीं हो रहा है। ऐसी तर्कहीन बातों से अपनी जिम्मेदारियों से कोई व्यक्ति कैसे पल्ला झाड़ लेता है, यह इनसे सीखा जा सकता है। जिस तरीके से बोरियो पुलिस द्वारा रेबिका पहाड़िया का विवाह परिवार वालों के विरोध के बावजूद, एक मुसलमान शादीशुदा युवक दिलदार अंसारी से करवाया गया, यह खुद में कई सवालों को जन्म देता है। संथाल परगना में आदिवासी महिलाओं के साथ कैसा षडयंत्र रचा जा रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है। वहां के जनप्रतिनिधि सब कुछ जानते हैं, लेकिन उनका मुंह खुलता नहीं है। मुंह खुलता तो आज आदिवासी लड़कियां संथाल में सुरक्षित रहतीं। ऐसे इनका मुंह सिर्फ वोट मांगने के लिए ही खुलता है। झूठा आश्वासन देने के लिए ही खुलता है। ऐसे भी इन लोगों को झारखंड का प्रशासन कोई भाव नहीं देता है। इनकी सुनता भी नहीं है। संथाल परगना का पुलिस प्रशासन आजकल कहीं और ही व्यस्त है। पंकज मिश्रा टाइप लोगों की ड्यूटी बजा रहा है। अवैध खनन में संलिप्त भ्रष्टाचारियों को संरक्षण दे रहा है। भ्रष्ट जनप्रतिनिधियों को बचाने के लिए काम कर रहा है। इनका काम रह गया है रात के अंधेरे में अवैध ट्रकों को पार करवाना, झोला में पैसा डलवाना और तो और 24 घंटों में आरोपियों को क्लीन चिट दे देना। ये क्लीन चिट वाला तो रिकॉर्ड है। इंडिया बुक आॅफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में इसे दर्ज होना चाहिए। अब प्रशासन दिन-रात इतनी मेहनत करेगा, तो जाहिर है, रेबिका पहाड़िया जैसी बेबस और असहाय लड़कियों को सुरक्षा-न्याय दिलाने के लिए उसे समय कहां मिलेगा। कहते हैं, जब जान पर बन आती है, तो चींटी भी पलटवार करती है। सो पहाड़िया जनजाति के लोगों ने खुद ही रेबिका पहाड़िया को न्याय दिलाने की कमान संभाल ली है। आज पहाड़िया समाज गुस्से में है। उनके हाथों में तीर, धनुष, तलवार, हंसुआ, कुल्हाड़ी, भाला सब कुछ है। क्योंकि उनके समाज की इज्जत को, उनकी एक बेटी को बोरियो पुलिस ने हैवान दिलदार अंसारी के हाथों सौंप दिया था। उससे शादी करवा दी।
एक पहाड़िया जानाति से आनेवाली लड़की का विवाह एक मुसलमान लड़के से। दूसरे धर्म में विवाह करवा कर पुलिसवालों ने तो उस समय वाहवाही बटोर ली, लेकिन उसके बाद हुआ क्या। उसके बाद वही हुआ, जिसकी आशंका रेबिका के माता-पिता को थी। इसी आशंका और डर से वे रेबिका और दिलदार अंसारी की शादी का विरोध कर रहे थे। इधर पुलिस ने रेबिका और दिलदार अंसारी की शादी करवायी नहीं कि उधर दिलदार के घर में कलह शुरू हो गयी। दिलदार की पहली पत्नी और उसकी मां रेबिका को देखना नहीं चाहती थीं। शादी के महज 10 दिन बाद रेबिका की सास यानी दिलदार अंसारी की मां ने रेबिका की हत्या के लिए अपने ही भाई को रेबिका की हत्या करने के लिए बीस हजार रुपये की सुपारी दे दी। देखते ही देखते रेबिका की गला दबा कर हत्या कर दी गयी। लाश को ठिकाने लगाने के लिए पहले उसकी चमड़ी छीली गयी, फिर शरीर के एक-एक अंग की बोटी-बोटी कर दी गयी। जिस दिलदार अंसारी ने पुलिस के समक्ष यह आश्वासन दिया था कि वह रेबिका को खुश रखेगा। उसकी हिफाजत करेगा, उसी ने अपनी मां के उकसाने पर अपने मामा और अन्य के साथ मिल कर रेबिका पहाड़िया के पचास टुकड़े कर दिये। दरअसल दिलदार की मां मरियम निशा को यह मंजूर नहीं था कि एक दूसरे धर्म की लड़की उनके घर में रहे। रेबिका पहाड़िया जनजाति से आती थी, सो उसका धर्म मुसलिम से अलग था। एक संभावना यह भी जतायी जा रही है कि शायद उस पर धर्म परिवर्तन का दबाव बनाया गया हो और नहीं मानने पर उसकी हत्या कर दी गयी हो। इस आशंका को बल इसलिए मिलता है कि संथाल में धर्म परिवर्तन का खेल जोरों पर है। पुलिस भी यह अच्छी तरह जानती है। ऐसे में यह बहुत बड़ा सवाल है कि ऐसे लोगों के हाथों में बोरियो पुलिस ने रेबिका पहाड़िया को क्यों सौंप दिया। शादी करवाने से पहले पुलिस ने जांच क्यों नहीं की। आखिर पुलिस ने जल्दबाजी में ऐसा कदम क्यों उठाया। पहाड़िया समाज के लोग भी अब पुलिस से यह सवाल करने लगे हैं। वह यह भी कह रहे हैं कि आखिर पुलिस ने रेबिका पहाड़िया की शादी मुसलिम धर्मावलंबी से क्यों करवायी। क्या दिलदार के लिए अपने धर्म में और लड़की नहीं मिल जाती। खुद बोरियो के विधायक लोबिन हेंब्रम ने यह सवाल किया है कि आखिर मुसलिम युवक पहाड़िया या संथाली लड़कियों को ही टारगेट क्यों कर रहे हैं। क्या उनके धर्म में लड़की नहीं है। लोबिन हेंब्रम का यह सवाल हवा में नहीं उड़ाया जा सकता। लेकिन यहां लोबिन हेंब्रम भी कठघरे में हैं। आखिर वह बांग्लादेशी घुसपैठियों के सवाल पर चुप्पी क्यों साध जाते हैं। आखिर वे क्यों नहीं उनके खिलाफ आंदोलन छेड़ते हैं। पहाड़िया लड़की से मुसलिम युवक के शादी करने की घटना संथाल परगना में अब सिर चढ़ कर बोलने लगी है। बल्कि अब तो जबरदस्ती भी आदिवासी लड़कियों से शादी रचायी जा रही है। बात नहीं मानने पर उन्हें मौत के घाट भी उतार दिया जा रहा है।
और यह सब इसलिए हो रहा है, क्योंकि ऐसा करनेवालों को कानून का डर नहीं है। वहां की कानून-व्यवस्था की स्थिति लचर ही नहीं बर्बाद हो गयी है। यही कारण है कि जब आदिवासी समाज के लोगों ने देखा कि पुलिस उन्हें न्याय नहीं दिला सकती, रेबिका पहाड़िया के हत्यारों को त्वरित सजा नहीं दिलवा सकती, वहां का पुलिस प्रशासन फास्ट ट्रैक कोर्ट में मामले की सुनवाई नहीं करवा सकता, तो वे खुद सड़कों पर उतर आये। शुक्रवार दोपहर के बाद पहाड़िया समाज के लोग अपने पारंपरिक अस्त्र-शस्त्र के साथ सड़कों पर उतर गये। जम कर नारेबाजी की। हिल एसेंबली पहाड़िया महासभा के बैनर तले बोरियो में न्याय यात्रा का आगाज हुआ। इस यात्रा का नेतृत्व अखिल भारतीय आदिम जनजाति विकास समिति के महासचिव शिवचरण मालतो ने किया। यह न्याय यात्रा डाकबंगला से निकल कर बोरियो बाजार से होकर ग्वाला मोड़ होते हुए, थाने तक पहुंची। इसके बाद राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, अनुसूचित जनजाति आयोग, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, राज्यपाल, मुख्यमंत्री और पुलिस महानिदेशक के नाम थाना प्रभारी जगरनाथ पान और बीडीओ टुडू दिलीप को मांग पत्र सौंपा। इस यात्रा में हजारों पहाड़िया लोग शामिल थे। मांग पत्र में रेबिका के परिजनों को 50 लाख रुपये मुआवजा, परिवार के एक सदस्य को नौकरी, हत्या के आरोपियों के खिलाफ एसटी / एससी 1989 एक्ट के तहत मामला दर्ज कराने, मामले की सीबीआइ जांच कराने, शव की फोरेंसिक जांच कराने और रेबिका के हत्यारों को फास्ट ट्रैक कोर्ट के माध्यम से तीन माह के भीतर सार्वजनिक स्थान पर फांसी देने की बात रखी गयी है। जिस प्रकार से पहाड़िया जनजाति के लोगों ने सड़क पर विरोध प्रदर्शन किया है, उनके सड़क पर उतरने के बाद अचानक वहां के लोगों के जेहन में संथाल विद्रोह की तसवीर उभर आयी है। उस समय संथालों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका था, आज उनके सामने बांग्लादेशी घुसपैठियों का खतरा मंडरा रहा है। उनकी जमीन उनसे छीनी जा रही है। उनकी बहू-बेटियां सुरक्षित नहीं हैं। उन्हें माध्यम बना कर ये बांग्लादेशी घुसपैठिये झारखंड के नागरिक बन रहे हैं। सत्ता में हिस्सेदारी ले रहे हैं। उनके अधिकारों का हनन कर रहे हैं। शुक्रवार को पहाड़िया समाज की ओर से निकाली गयी आक्रोश रैली ने साफ संकेत दे दिया है कि यह तो अभी झांकी है, असली लड़ाई तो अभी बाकी है। अभी तो महज उन्होंने एक न्याय मार्च निकाला है। सरकार और प्रशासन को एक मैसेज देने की कोशिश की है। लेकिन अगर सरकार और प्रशासन रेबिका और पहाड़िया समाज के लोगों को त्वरित न्याय दिलाने के लिए आगे नहीं बढ़ा, तो यह न्याय मार्च जल्द न्याय विद्रोह या संथाल विद्रोह का रूप ले लेगा। अगर वहां के जनप्रतिनिधि समय रहते नहीं चेते, तो जब वह अगली बार हाथ जोड़ वोट मांगने उनके द्वार पहुंचेंगे, तब उन्हें असली विरोध का सामना करना पड़ेगा। सच कहा जाये तो संथाल परगना का पहाड़िया समाज अब जग गया है।
वह यह जान गया है कि वहां के जनप्रतिनिधि वोट लेने के लिए तो उसके पास आयेंगे, उस समय वे उन्हें आश्वासन भी देंगे, लेकिन जब सचमुच में उनके लिए कहीं कंधा से कंधा मिला कर खड़ा होने की बात आयेगी, हक के लिए आवाज उठाने की बात होगी, तो ये जनप्रतिनिधि गायब हो जायेंगे। इसलिए कि उन्हें पता है कि इसमें तो उन्हें कोई आर्थिक लाभ मिलनेवाला नहीं है। फिर वोट गड़बड़ाने का भी खतरा होता है, ऐसे में वह किसी रेबिका पहाड़िया जैसी सामान्य लड़की के लिए आवाज उठा कर अपना मुसलिम वोट बैंक क्यों खराब करेंगे। दरअसल आज की राजनीति बिजनेस हो गयी है। ज्यादातर राजनेता वोट के सौदागर हो गये हैं। इसलिए इन्हें फायदे नुकसान की समझ कुछ ज्यादा ही हो गयी है। जन मुद्दों के लिए इनके पास समय नहीं है, ऐसे में आम जनता क्या करे। आंदोलन के सिवा उसके पास और कोई रास्ता नहीं बचता। संथाल में भी यही हो रहा है। सफेद कपड़ों के पीछे की कालिख अब सामने दिखाई पड़ने लगी है। वोट के सौदागरों का चेहरा बेनकाब हो गया है। ऐसे में अब वहां के आदिवासी समाज ने अपनी लड़ाई खुद लड़ने की ठानी है। शुक्रवार को जिस आक्रोश के साथ पहाड़िया समाज के लोग सड़कों पर थे, यह महज दिखावा नहीं था, बल्कि आनेवाले समय के लिए उनकी चेतावनी थी। वे चेता रहे थे कि अब वे अपनी बहू-बेटियों की इज्जत से खेलनेवालों को सबक सिखायेंगे। वे अब फिर किसी रेबिका को दिलदार अंसारी जैसे हैवानों की भेंट नहीं चढ़ने देंगे।