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    Home»विशेष»पेसा नियमावली पर हेमंत सोरेन ने लगाया सिक्सर
    विशेष

    पेसा नियमावली पर हेमंत सोरेन ने लगाया सिक्सर

    shivam kumarBy shivam kumarDecember 25, 2025Updated:December 25, 2025No Comments8 Mins Read
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    विशेष
    झारखंड में आदिवासी स्वशासन की दिशा में प्रभावी कदम साबित होगा
    ग्राम सभाओं को मजबूत बनाने से विकास की नयी अवधारणा पनपेगी
    हेमंत के इस फैसले से गांवों के विकास की गति तेज होगी
    नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
    झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार ने पंचायतों का अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार का कानून, यानी पेसा कानून को लागू करने की नियमावली को मंजूरी दे दी है। यह मुद्दा जितना सियासत के नजरिये से जुड़ा था, उससे कहीं अधिक आदिवासी परंपराओं और उसमें समाहित स्वशासन की अवधारणा से संबंधित था। इन दोनों लिहाज से हेमंत सोरेन ने इस कानून को लागू करने का फैसला कर एक बड़ा, या यूं कहें कि ऐतिहासिक कदम उठाया है। लोग सवाल कर रहे हैं कि पेसा कानून लागू होने से झारखंड में क्या बदलेगा, तो इसका संक्षेप और सीधा जवाब यही हो सकता है कि इस कानून के लागू होने से झारखंड में ग्रामीण विकास की अवधारणा बदलेगी और गांवों के विकास की गति तेज होगी। पेसा कानून लागू होने के बाद अनुसूचित क्षेत्रों की ग्राम सभाएं सशक्त होंगी, तो स्वाभाविक तौर पर गांवों के विकास का सवाल राज्य सचिवालयों में नहीं उठेगा, बल्कि पंचायत सचिवालयों में इस पर विचार होगा। इसका सीधा असर यह होगा कि गांवों का विकास अब गांव के हाथ में ही होगा, जहां आज भी यह तय करना मुश्किल होता है कि विकास की कौन सी योजनाएं स्थानीय जरूरतों के अनुकूल होंगी। इस तरह आदिवासी परंपरा के तहत स्वशासन के अधिकार के संरक्षण के लिए हेमंत सोरेन ने पेसा कानून लागू करने के लिए जरूरी नियमावली को मंजूर करने का फैसला कर खुद को देश के आदिवासी नेताओं की कतार में सबसे आगे कर लिया है। क्या है पेसा कानून और झारखंड में इसका क्या राजनीतिक असर होगा, बता रहे हैं आजाद सिपाही के संपादक राकेश सिंह।

    झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार ने पेसा कानून, जिसे अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत का विस्तार या पंचायत एक्सटेंशन इन शेड्यूल्ड एरिया कहा जाता है, को लागू करने की नियमावली को मंजूरी दे दी है। इसके साथ ही झारखंड में लंबे समय से लंबित इस मुद्दे का समाधान हो गया है। इससे ग्राम सभाओं के सशक्तिकरण का रास्ता साफ हो गया है। इसका सीधा मतलब यह है कि झारखंड के आदिवासी गांवों के विकास की योजनाएं अब गांवों में ही बनायी जायेंगी, जिससे ग्रामीण विकास की पूरी अवधारणा ही बदल जायेगी। आदिवासी परंपरा में ग्राम सभा और स्वशासन को बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है। इसलिए हेमंत सोरेन सरकार ने इस परंपरा को समृद्ध करने की दिशा में यह बड़ा कदम उठा कर इतिहास रचा है।

    आदिवासियत का संरक्षक है पेसा
    जैसा कि सभी जानते हैं कि आदिवासियत कोई पहचान-पत्र नहीं, कोई जातीय वर्गीकरण नहीं और न ही केवल सांस्कृतिक विविधता का उत्सव है। आदिवासियत एकजीवन-दर्शन है—जिसमें मनुष्य और प्रकृति के बीच संबंध शोषण का नहीं, सहअस्तित्व का होता है, जिसमें सत्ता ऊपर से नहीं उतरती, बल्कि समुदाय के बीच से उगती है और जिसमें लोकतंत्र पांच साल में एक बार मत डालने की प्रक्रिया नहीं, बल्कि रोजमर्रा के सामूहिक निर्णयों का अभ्यास है।

    आज जब आदिवासी समाज अपने जल, जंगल और जमीन पर अधिकार के लिए संघर्ष कर रहा है, तब यह प्रश्न अनिवार्य हो जाता है कि क्या भारतीय लोकतंत्र के पास आदिवासियत को समझने और संरक्षित करने का कोई संवैधानिक औजार है?
    इस प्रश्न का उत्तर है पेसा यानी पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996। यह कोई सामान्य पंचायत कानून नहीं है। यह कानून उन क्षेत्रों के लिए बना है, जहां भारतीय राज्य ने यह स्वीकार किया कि वहां की सामाजिक संरचना, शासन परंपरा और संसाधन-संबंध मुख्यधारा से भिन्न हैं।

    पेसा का जन्म संविधान की पांचवीं अनुसूची से हुआ है—जो स्वयं इस स्वीकारोक्ति का प्रमाण है कि आदिवासी समाज को सामान्य प्रशासनिक चश्मे से नहीं देखा जा सकता।
    पेसा का मूल विचार सरल है, लेकिन क्रांतिकारी—ग्रामसभा सर्वोच्च है। पंचायतें, प्रशासन और विभाग—सब ग्रामसभा के अधीन हैं। यही वह बिंदु है, जहां पेसा आधुनिक लोकतंत्र को आदिवासी स्वशासन की परंपरा से जोड़ता है।
    पेसा को केवल एक पंचायत कानून के रूप में देखना इसकी आत्मा को नकारना है। पेसा इसलिए, क्योंकि आदिवासियत का सबसे बड़ा संरक्षक है, क्योंकि यह संसाधनों के उपयोग पर लोक-समझ का सम्मान करता है, परंपरागत शासन को वैधानिक दर्जा देता है, संस्कृति और पहचान को कानूनी संरक्षण प्रदान करता है और देशज और स्थानीय जरूरतों के अनुसार विकास के मॉडल चुनने का अधिकार समुदाय को देता है।

    आदिवासियत: व्यवस्था नहीं, जीवन-पद्धति
    आदिवासियत उस सभ्यता का नाम है, जिसकी जड़ें धरती के साथ साझेदारी में हैं, स्वामित्व में नहीं, सहजीवन में। इस जीवन-पद्धति के तीन मूल स्तंभ हैं। पहला, संसाधनों का सामूहिक स्वामित्व। दूसरा, निर्णय का अधिकार ग्रामसभा को। तीसरा, पर्यावरण और संस्कृति की रक्षा को सामुदायिक उत्तरदायित्व के रूप में देखना। आदिवासी समाज में जंगल केवल लकड़ी का भंडार नहीं, नदी केवल पानी का स्रोत नहीं और जमीन केवल संपत्ति नहीं है—ये सब जीवन के साझीदार हैं। पेसा इन्हीं मूल स्तंभों को आधुनिक लोकतांत्रिक ढांचे में वैधानिक आधार देता है।

    क्या है पेसा कानून
    पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम (पेसा) 24 दिसंबर 1996 को अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासी समुदायों को ग्राम सभाओं के माध्यम से स्वशासन के जरिये सशक्त बनाने के लिए लागू किया गया था। हालांकि राज्यों के लिए अपने खास पेसा नियमों के निर्माण में देर, व्यापक प्रशिक्षण सामग्री और राज्यों के सहायक कानूनों की कमी के कारण इसके प्रभावी कार्यान्वयन को चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। केंद्रीय पंचायती राज मंत्रालय ने इन चुनौतियों का समाधान करने और पेसा अधिनियम के कार्यान्वयन को मजबूत करने के लिए कई पहल की है। इन पहलों का उद्देश्य अनुसूचित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों तक पेसा अधिनियम का लाभ पहुंचाने के लिए सामूहिक और ठोस प्रयासों को मजबूत करना है। इसमें इन क्षेत्रों के लोगों के जीवन को आसान बनाने और उनके विकास और समृद्धि के लिए सक्षम वातावरण बनाने के लिए हरसंभव प्रयास करने पर ध्यान केंद्रित किया गया है। इस पहल का उद्देश्य पेसा अधिनियम के बारे में जागरूकता बढ़ाना, हितधारकों की क्षमता का निर्माण करना और अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम पंचायतों के बेहतर प्रशासन और बेहतर कार्यप्रणाली के लिए ग्राम सभाओं को सशक्त बनाना है।

    क्या था पेसा से जुड़ा मुद्दा
    अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासी समुदायों को ग्राम सभाओं के जरिये स्वशासन से सश्क्त बनाने के लिए झारखंड सहित देश के 10 राज्यों के लिए पेसा कानून 24 दिसंबर 1996 को लागू किया गया था। इन 10 राज्यों में झारखंड और ओड़िशा को छोड़कर शेष आठ राज्य आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और तेलंगाना ने अपने-अपने राज्य में इसे लागू कर दिया था। झारखंड में पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में 16022 गांव, 2074 पंचायत और 131 प्रखंड शामिल हैं। झारखंड सरकार पर लगातार केंद्र सरकार के साथ-साथ झारखंड हाइकोर्ट द्वारा इसको लेकर दवाब बनाया जा रहा था। आखिरकार लंबे इंतजार के बाद राज्य के 15 अनुसूचित जिलों में स्थानीय स्वशासन की दिशा में हेमंत सरकार ने पेसा नियमावली पर मुहर लगाकर बड़ा कदम उठाया है।

    क्या होगा असर
    पेसा नियमावली में जनजाति बहुल पंचायतों में ग्राम सभा को मजबूत बनाने की कोशिश की गयी है। इसके तहत ग्राम सभा विकास कार्य के लिए जमीन अधिग्रहण, खनन, विभिन्न पारंपरिक जल स्रोत, वन संपदा आदि के संरक्षण जैसे महत्वपूर्ण कार्यों के लिए निर्णय लेगी और इसका निर्धारण करेगी। झारखंड में पेसा कानून में शामिल कई प्रावधान पहले से विभिन्न विभागों द्वारा संचालित थे। इसके लागू होने के बाद पूर्व या भविष्य में होने वाले त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव या नगर निकाय चुनाव प्रभावित नहीं होंगे।

    क्या कहते हैं राजनीतिज्ञ
    झारखंड की ग्रामीण विकास मंत्री और कांग्रेस नेता दीपिका पांडेय सिंह कहती हैं कि विपक्ष इसको लेकर राजनीति करता रहा है। अब इसकी मंजूरी मिलने से ग्राम सभा सशक्त होगी और जनजातीय क्षेत्रों में तेजी से विकास होगा। उधर भाजपा प्रदेश अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष बाबूलाल मरांडी ने कहा है कि झारखंड कैबिनेट द्वारा पारित पेसा नियमावली का भाजपा स्वागत करती है। यह भाजपा के लंबे संघर्ष और दबाव का परिणाम है। भाजपा और एनडीए ने लगातार सड़क से सदन तक इसके लिए आवाज बुलंद की है। भाजपा यह मानती है कि कैबिनेट से पारित नियमावली पारंपरिक रुढ़ि व्यवस्था पर आधारित होगी, जिसकी मांग की जा रही थी, लेकिन अगर इसमें संविधान की पांचवीं अनुसूची से जुड़ी भावना के विपरीत थोड़े भी परिवर्तन किये गये होंगे, तो पार्टी इसे कभी बर्दाश्त नहीं करेगी। राज्यपाल का भी इस संदर्भ में ध्यान आकृष्ट करायेगी, ताकि कानून बनाने के पहले यह पारंपरिक रुढ़िवादी व्यवस्था का आधार सुनिश्चित हो।
    इस तरह यह साफ है कि पेसा केवल एक कानून नहीं, बल्कि एक सभ्यतागत समझौता है, राज्य और आदिवासी समाज के बीच। और इस समझौते के नायक बन गये हैं हेमंत सोरेन।

     

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