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    यूपी का कलियुगी अभिमन्यु

    आजाद सिपाहीBy आजाद सिपाहीNovember 17, 2016No Comments4 Mins Read
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    यशवंत देशमुख  देश की सत्ता में उत्तर प्रदेश की धमक बिना वजह नहीं है। 2004 का विचित्र चुनाव छोड़ दिया जाए तो शायद ही कोई ऐसा समय रहा हो, जब केंद्र की सत्ता का घमासान इस राज्य की सत्ता से न तय हुआ हो। शायद वर्ष 2004 के नतीजों में पहली बार ऐसा हुआ कि यूपी कब्जियाने वाली पार्टी का केंद्र में कोई दखल नहीं था, लेकिन यूपी कितना महत्वपूर्ण तब भी था, इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि 2007 में प्रदेश जीतने के बाद मायावती तीसरे मोर्चे की प्रधानमंत्री उम्मीदवार भी बन गयी थीं।

    फिर 2012 में समीकरण बदले और पहली बार समाजवादी पार्टी पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई। दो साल के अंदर ही इस राज्य ने 2014 में वह चमत्कार कर दिखाया, जो पिछले 30 सालों में नहीं हुआ था। आज नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं तो इसमें उत्तर प्रदेश की क्या भूमिका है, इस बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं, पर यह जरूर सोचिए कि महज दो साल पहले जिस राज्य में बीजेपी चौथे नंबर की लड़ाई कर रही थी, वह भी कांग्रेस से, वहां दो साल के अंदर जनादेश ने ऐसी पलटी मारी कि मोदी पीएम बन गये।

    उसके पांच साल पहले 2009 में कांग्रेस की विजय में यूपी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। जरा यूपी के जनादेश का क्रम देखें- 1999 (लोकसभा) बीजेपी, 2002 (विधानसभा) एसपी, 2004 (लोकसभा) एसपी, 2007 (विधानसभा) बीएसपी, 2009 (लोकसभा) कांग्रेस, 2012 (विधानसभा) एसपी, 2014 (लोकसभा) बीजेपी। यानी पिछले 15 सालों में कुल 7 चुनावों में 4 अलग-अलग पार्टियों को प्रदेश का जनादेश अजीबोगरीब तरीके से मिला। ऐसा डाइनैमिक जनादेश और ऐसी वोलेटाइल पब्लिक शायद ही किसी दूसरे राज्य में मिलेगी। इसीलिए यूपी के समीकरणों को दूरदृष्टि से देखने की जरूरत है। 2014 में राज्य ने अपने सारे जातिगत समीकरण तोड़ दिये।

    मुस्लिम मतदाताओं को छोड़ कर लगभग सभी जातीय समीकरण मोदी के पक्ष में बैठे। लेकिन इसकी शुरूआत 2007 में हो गयी थी, जब ब्राह्मण मतदाताओं ने मायावती को खुल कर समर्थन दिया। वह दीवार टूटी तो दोनों तरफ के समीकरण बदले। 2014 में दलितों ने मोदी को वोट दिया तो वह केवल 2007 के जनादेश की उलटबांसी थी। इन दोनों चुनावों के बीच 2012 में अखिलेश यादव ने इसमें एक नयी भूमिका निभायी। जहां एक तरफ ब्राह्मण और दलित वोट अदल-बदल हो रहे थे, उसके बीच में मध्य वर्ग और युवा मतदाताओं को एक नया वोट बैंक बना कर अखिलेश यादव ने ट्रडिशनल वोट बैंक की दीवार में खिड़की नहीं बनायी, बल्कि उस दीवार को ही ध्वस्त कर दिया।

    अब उत्तर प्रदेश वो उत्तर प्रदेश नहीं रहा जो पुराने फॉम्युर्ले में बांध दिया जाये। यह एक नया उत्तर प्रदेश है जिसमें नये सूत्र बन रहे हैं। इसका मतलब यह नहीं कि मुस्लिम मतदाता बीजेपी को हराने के लिए टैक्टिकल वोटिंग नहीं करेंगे, या दलितों की पहली पसंद मायावती नहीं होंगी, या यादव मतदाता एसपी के खाते में नहीं जाएंगे, या फिर अगड़ी जाति के वोटर बीजेपी को वोट नहीं देंगे। यह सब कुछ होगा लेकिन इन सभी कुछ का होना अब जीतने के लिए पर्याप्त नहीं होगा। एसपी-बीएसपी-बीजेपी सभी अपने परंपरागत वोट बैंक के 25 फीसदी नोक पर खड़ी हैं, लेकिन इनसे जीतेगा कोई नहीं। जीतने के लिए अब उनको तीन नयी जातियों को लुभाना होगा। ये नयी जातियां हैं मध्य वर्ग, युवा और महिलाएं। ये तीन वोट बैंक अब अपनी ही तरह से वोट कर रहे हैं।

    पुराने जातिगत बंधन इन पर लागू नहीं होते। उत्तर प्रदेश में भविष्य के चुनाव वही जीतेगा जो इन वोट बैंक्स को अपनी तरफ जोड़ सकेगा। इसलिए समाजवादी पार्टी में चल रही सिर-फुटौवल को ठीक से समझिए। अगर 2012 के चुनाव में अखिलेश के फॉम्युर्ले की थोड़ी झलक थी, तो 2017 भूल जाइये और 2022 के बारे में सोचिए। मध्य वर्ग, युवा और महिलाओं का वोट बैंक 2017 में चुनाव जीतने में भूमिका निभा सकता है लेकिन 22 आते-आते ये तीन वोट बैंक केवल भूमिका नहीं निभायेंगे। ये ही चुनाव तय करेंगे। इन तीनों वोट बैंक के मुद्दे और सरोकार बिल्कुल अलग हैं।

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