विशेष
-हर साल लगभग 40 लाख लोग रोजगार के लिए दूसरे राज्यों में जा रहे हैं
-तमाम सरकारी प्रयासों और योजनाओं की पोल खोलते हैं पलायन के आंकड़े
-उत्तराखंड टनल हादसे के बाद से और भी मौजूं हो गया है पलायन का सवाल
उत्तरकाशी टनल हादसे ने पूरी दुनिया के सामने और खास कर भारत और झारखंड के सामने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है। यह सवाल है मानव संसाधन के पलायन का। झारखंड में पलायन का दर्द नया नहीं है। पहले अविभाजित बिहार और 23 साल पहले बना झारखंड यदि देश-दुनिया में जाना जाता है, तो सिर्फ खनिज संपदा के कारण ही नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार, मानव तस्करी और पलायन के लिए भी वह चर्चित है। झारखंड में पलायन कितनी गंभीर समस्या बन चुका है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उत्तरकाशी टनल में फंसे 15 मजदूर केवल 25 हजार प्रति माह के वेतन की लालच में वहां काम करने गये थे। इसके अलावा झारखंड से हर साल करीब 40 लाख लोग केवल रोजी-रोजगार की तलाश में देश के विभिन्न हिस्सों में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी पलायन करते हैं। इसके अलावा झारखंड के माथे पर मानव तस्करी भी एक कलंक है। इसमें फर्जी प्लेसमेंट एजेंटों द्वारा राज्य की महिलाओं और बच्चों को दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और दूसरे महानगरों में नौकरी दिलाने के नाम पर ले जाकर बेच दिया जाता है, जहां उनका शारीरिक और मानसिक शोषण होता है। सबसे दुखद बात यह है कि सरकार की तमाम नीतियां, कानून और योजनाएं भी इस समस्या का हल नहीं निकाल पा रही हैं। वास्तव में झारखंड में पलायन और मानव तस्करी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। पलायन और मानव तस्करी विकास से जुड़े कई विरोधाभासी मुद्दों में से एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। इसके मूल में है गरीबी, जहां भूख से लोग मरने के कगार पर आ जायें, तो कानून का होना और न होना उनके लिए कोई मायने नहीं रखता है। सरकार हालांकि पलायन और मानव तस्करी रोकने के दावे करती है, लेकिन अगर सरकार काम मुहैया कराती है, तभी वे लोग अपने राज्य में रहेंगे, अन्यथा उनका पलायन बदस्तूर जारी रहेगा। क्या है झारखंड से पलायन की हकीकत और क्या हो सकता है इसका निदान, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
देश की वाणिज्यिक राजधानी मुंबई का छत्रपति शिवाजी महाराज हवाई अड्डा, जहां से दुनिया के हर कोने के लिए विमान सेवा उपलब्ध है। यहां अहले सुबह मुलाकात होती है विकास सिंह से। वह कैब सेवा देनेवाली कंपनी में चलनेवाली गाड़ी का ड्राइवर है। थाणे में रहता है। बातचीत में कहता है, झारखंड से हैं। आगे पूछने पर कहता है, हजारीबाग, फिर बरही और अंत में बरकट्ठा। यह पूछने पर कि वह मुंबई कैसे पहुंच गया। विकास कहता है, गांव में क्या करता। हाइस्कूल पास करने के बाद कहीं कोई काम नहीं मिला। हजारीबाग और रांची में एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में काम किया। फिर ढाई साल पहले मुंबई आ गया। यहां विकास के गांव, यानी बरकट्ठा इलाके के एक हजार से अधिक लोग इसी तरह छोटा-मोटा काम कर पेट पाल रहे हैं। विकास कहता है, झारखंड में ढंग का काम मिल जाता, तो हर दिन महज तीन-चार सौ रुपये बचाने के लिए इतनी दूर क्यों आता।
विकास की कहानी सुनने के बाद सहसा याद आता है लोकप्रिय वेब सीरीज ‘खाकी: द बिहार चैप्टर’ का ओपनिंग सीन, जब आइपीएस बनने के बाद अमित लोढ़ा अपनी नवविवाहिता पत्नी के साथ ट्रेन में सफर करते हुए एक सहयात्री से कहते हैं, जयपुर के रहनेवाले हैं। बिहार में जॉब मिली है, सो जा रहा हूं। तब वह बुजुर्ग सहयात्री कहता है, बिहार में कहां जॉब है। बिहार के लोग तो रोजगार के लिए बाहर जाते हैं। आपको बिहार में कौन सा जॉब मिला है। उस बुजुर्ग यात्री की टिप्पणी बिहार-झारखंड की उस समस्या को रेखांकित करती है, जिसे दुनिया पलायन और मानव तस्करी के नाम से जानती है।
ऊपर वर्णित इन दोनों कहानियों का निष्कर्ष एक ही है। प्राकृतिक संपदा से भरपूर झारखंड सांस्कृतिक मामले में बड़ा विशिष्ट है। भाषा और लोगों के रहन-सहन के आधार पर इसकी एक अलग पहचान पूरे विश्व में है। यह स्वयं में अपना एक स्वर्णिम अतीत समेटे हुए है। लेकिन विडंबना यह है कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी यहां के लोगों की न तो दशा बदली और न दिशा। इतना देखने को अवश्य मिला कि यहां के लोग जंगल और जमीन से दूर होने पर मजबूर कर दिये गये। इससे यहां के लोगों की जीवन शैली में परिवर्तन आ गया। रोजगार के लिए आदिवासी और अन्य समुदाय के लोग बड़ी संख्या में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। जल, जंगल और जमीन के लिए लंबे संघर्ष के बाद 15 नवंबर 2000 को बिहार से अलग होकर एक आदिवासी बहुल राज्य झारखंड बना था। इसका लाभ यह हुआ कि पिछले 23 वर्षों में इस राज्य की कमान पांच बार आदिवासी नेताओं के हाथ में रही। 28 एसटी विधानसभा सीटों के बावजूद इस राज्य में रह रहे आदिवासी तंगहाली में ही जी रहे हैं तथा पलायन को मजबूर हैं। करमा, सोहराय आदि जैसे त्योहार के दौरान इनकी कला और संस्कृति मनमोहक आकर्षक छटा बिखेरती है, लेकिन विकास की दौड़ में आज ये लोग पीछे छूट गये हैं। चिंता का विषय यह है कि झारखंड में आदिवासी समुदाय की संख्या घट रही है। 1951 में जब झारखंड नहीं बना था, तब इसकी जनसंख्या 36.02 फीसदी थी, लेकिन राज्य झारखंड बनने के बाद 2011 में इनकी जनसंख्या 26.02 फीसदी हो गयी। इसका मुख्य कारण पलायन और मानव तस्करी है।
यह हकीकत है कि आदिवासियों का इस्तेमाल सिर्फ वोट बैंक के रूप में होता रहा है। जब कभी भी रोजगार की बात होती है, तो इस समाज को मजदूर के रूप में ही देखा जाता है। आजीविका के सिमटते साधन की वजह से झारखंड वासियों के युवाओं को अपने गांव से पलायन करना पड़ रहा है। लाखों की संख्या में आदिवासी युवक-युवती अपनी पेट की आग बुझाने के लिए राज्य के बाहर जाने के लिए बाध्य हैं। झारखंड में पलायन और मानव तस्करी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। पलायन और मानव तस्करी विकास से जुड़े कई विरोधाभासी मुद्दों में से एक महत्वपूर्ण और गंभीर मुद्दा है। झारखंड में दलित और आदिवासी आबादी की 35 प्रतिशत जनसंख्या पलायन को मजबूर है। इनमें 55 प्रतिशत महिलाएं, 30 प्रतिशत पुरुष और 15 प्रतिशत बच्चे शामिल हैं। इनमें सबसे ज्यादा दिहाड़ी मजदूर और शेष फर्जी प्लेसमेंट एजेंसी और दलालों के द्वारा राज्य से बाहर ले जाये जा रहे हैं। झारखंड में मजदूर सस्ती दरों पर उपलब्ध होने के कारण मजदूरों का पलायन खाड़ी देशों में भी लगातार हो रहा है। देश के भीतर भी सर्वाधिक पलायन झारखंड से होता है।
एक गैर-सरकारी संस्था ने कुछ दिन पहले एक रिपोर्ट जारी की थी। उसमें कहा गया था कि झारखंड से हर साल करीब 40 लाख लोग देश-विदेश में रोजी-रोटी की तलाश में जाते हैं। इनके लौटने की संख्या पांच लाख भी नहीं होती। इतना ही नहीं, हर साल करीब 12 सौ झारखंडी विभिन्न हादसों के शिकार होते हैं और इसके बदले में उन्हें कोई मुआवजा नहीं मिलता है। इतना ही नहीं, वर्ष 2019 से लेकर 2022 के अंत तक मानव तस्करी के कुल 656 केस दर्ज किये गये हैं। इनमें मानव तस्करी के शिकार की संख्या 1574 थी। 18 वर्ष से कम उम्र के मानव तस्करी के शिकार युवकों की संख्या 332 और 18 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों की संख्या 117, 18 वर्ष से अधिक उम्र की लड़कियों की संख्या 309 थी। गत वर्ष राज्य में सबसे अधिक मानव तस्करी के केस गुमला, सिमडेगा, खूंटी, साहिबगंज और रांची में दर्ज किये गये हंै। इन पांच वर्षों में सबसे अधिक 212 लोग सिमडेगा से मानव तस्करी के शिकार हुए हैं। पलायन का दूसरा रूप उच्च शिक्षा के लिए बाहर जाना भी है। प्रतिभाओं का यह पलायन भी झारखंड के लिए खतरे की घंटी है।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के सहयोग से हुए इस अध्ययन में यह बात भी सामने आयी है कि बदलती हुई कृषि पद्धतियों ने भी संकटपूर्ण प्रवासन को बढ़ा दिया है। झारखंड के किसान एक फसली कृषि पर गुजर-बसर करते हैं। वर्ष के छह माह किसान परिवारों के पास नगद आमदनी के लिए काम नहीं रहता है। यह समस्या पलायन को बल प्रदान करती है। महिलाएं बिना किसी सुरक्षा उपाय के मजदूरी के बारे में बिना किसी सटीक पड़ताल और जानकारी के दलालों के साथ अकेले प्रवास करती हंै और तस्करी और शोषण के मध्य पिस जाती हैं। आमतौर पर मजदूरों का पलायन धनरोपनी के बाद होता था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से सुखाड़ की आशंका ने पहले ही उन्हें गांव घर छोड़ने के लिए विवश कर दिया है।
पलायन और मानव तस्करी दीमक की तरह झारखंड को खोखला कर रही है। यह राज्य और केंद्र सरकार दोनों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। झारखंड के किसी भी राजनीतिक दल के लिए यह समस्या प्राथमिकता सूची में नहीं आयी है। उम्मीद है कि अब इस कलंक से मुक्ति पाने की दिशा में ध्यान दिया जायेगा।