-श्री अयोध्या धाम और श्रीराम जन्मभूमि मंदिर पर विशेष शृंखला
-केके नायर को इंदिरा गांधी ने उनकी ‘गलती’ के लिए बाद में जेल में डाला था
दुनिया भर में निवास कर रहे सनातनियों की आस्था का केंद्र श्रीअयोध्या धाम बड़ी तेजी से और भव्य तरीके से दुनिया के नक्शे पर अपनी जगह कायम कर रहा है। सरयू नदी के किनारे स्थित इस पवित्र नगरी में बन रहे भव्य राम मंदिर का उद्घाटन 22 जनवरी को होना है, जो सनातन धर्मावलंबियों के पांच शताब्दी पुराने सपने का साकार होने का दिन है। लेकिन यह जानना भी बेहद महत्वपूर्ण है कि अयोध्या में इस मंदिर के उद्घाटन तक के लक्ष्य को हासिल करने के रास्ते में कई ऐसे चेहरे भी आये, जिन्होंने मंदिर के लिए न केवल अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया, बल्कि बाद में इसकी कीमत भी चुकायी। दूसरे शब्दों में इन्हें मंदिर आंदोलन का गुमनाम नायक कहा जा सकता है। ये ऐसे किरदार हैं, जिनमें संत भी हैं, महंत भी हैं। नेता भी हैं और अधिकारी भी हैं। मंदिर के लक्ष्य तक पहुंचने के रास्ते में निचली अदालतों की तकरार भी है और सुप्रीम फैसले से खत्म होता इंतजार भी है। प्रधानमंत्री मोदी भी हैं और मुख्यमंत्री योगी भी हैं। देश का कोई सामन्य नागरिक हो या सिविल सर्विस का कोई अधिकारी, सभी ने अपने-अपने स्तर पर राम मंदिर के लिए अपना योगदान दिया है। ऐसे गुमनाम नायकों और किरदारों के बारे में जानना भी बहुत महत्वपूर्ण है, जिनके बिना मंदिर का सपना कभी पूरा नहीं होता। अयोध्या में राम मंदिर से जुड़ी ऐसी ही कहानियों की शृंखला आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह ने तैयार की है। इस शृंखला की पहली कड़ी में एक ऐसे शख्स की कहानी बता रहे हैं, जिन्होंने अगर देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और उत्तर ा्रदेश के मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत के आदेश को मान लिया होता या इसके बदले इस्तीफा दे दिया होता, तो अयोध्या में भगवान राम का भव्य मंदिर शायद आज नहीं बन पाता। केरल के अलप्पी के रहनेवाले इस अधिकारी का नाम था केके नायर। आज पढ़िए केके नायर की कहानी।
सदियों के इंतजार के बाद अब अयोध्या 22 जनवरी को राम मंदिर के उद्घाटन के लिए तैयार हो गया है। राम जन्मभूमि के लिए कुछ कारसेवकों ने अपने प्राणों को भी रामलला के लिए दांव पर लगा दिया था। उस वक्त आंदोलन का नेतृत्व करनेवाले और प्राण न्योछावर करनेवाले लोगों की बस एक ही चाहत थी कि रामलला मंदिर में विराजमान हों। अपने ही देश में भगवान राम को न्याय दिलाने के लिए हिंदुओं की पीढ़ियों द्वारा लंबे समय से चले आ रहे संघर्ष का समापन होने जा रहा है। उनका संकल्प अब पूरा होने जा रहा है। उसी आंदोलन के दौरान एक ऐसे व्यक्ति ने इसमें हिस्सा लिया, जिन्होंने राजनीतिक दबावों के बीच अपने करियर को दांव पर लगा कर राम मंदिर बनवाने का सपना देखा और प्रयास किया।
वह शख्स थे कंडांगलथिल करुणाकरण नायर, जिन्हें केके नायर के नाम से जाना जाता है। केके नायर का जन्म 11 सितंबर, 1907 को केरल में हुआ था। वह भारतीय सिविल सेवा अधिकारी थे और भारत के गणतंत्र बनने से पहले ही हिंदुओं की पूजा के मौलिक अधिकार की रक्षा करने में सबसे आगे थे। उनका जीवन केरल के अलप्पुझा के कुट्टनाड गांव से शुरू हुआ। केरल में अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद नायर उच्च अध्ययन के लिए इंग्लैंड गये और 21 वर्ष की आयु में भारतीय सिविल सेवा (आइसीएस) की परीक्षा उत्तीर्ण की। परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्हें एक जून, 1949 को अयोध्या (फैजाबाद) के उपायुक्त सह जिला मजिस्ट्रेट के रूप में नियुक्त किया गया था।
अयोध्या का वह दौर उनकी जिंदगी का अहम हिस्सा बन गया था। नायर को राम जन्मभूमि मुद्दे पर एक रिपोर्ट करने के लिए उत्तरप्रदेश की राज्य सरकार की तरफ से एक पत्र मिला था। उस मुद्दे पर रिपोर्ट को प्रस्तुत करने के लिए उन्होंने अपने सहायक गुरुदत्त सिंह को भेजा। इसके बाद 10 अक्टूबर, 1949 को सिंह ने अपनी रिपोर्ट में उस स्थान पर एक राजसी राम मंदिर के निर्माण की सिफारिश की। सिंह ने स्थल का दौरा कर यह देखा कि उस स्थल के लिए हिंदू और मुस्लिम आपस में लड़ रहे थे। उन्होंने लिखा, हिंदू समुदाय ने इस आवेदन में छोटे के बजाय एक विशाल मंदिर के निर्माण का सपना देखा है। इसमें किसी तरह की परेशानी नहीं है। उन्हें अनुमति दी जा सकती है। हिंदू समुदाय उस स्थान पर एक अच्छा मंदिर बनाने के लिए उत्सुक है, जहां भगवान रामचंद्र जी का जन्म हुआ था। जिस भूमि पर मंदिर बनाया जाना है, वह नजूल (सरकारी भूमि) है।
नेहरू जी का निर्देश, फिर भी नहीं झुके केके नायर
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के निर्देश पर उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने राम मंदिर से हिंदुओं को बेदखल करने की कोशिश की। हालांकि केके नायर ने उन्हें वहां से भेजने से इनकार कर दिया और आदेश को लागू नहीं करने का फैसला किया। उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि हिंदू उस स्थल पर पूजा कर रहे हैं। उन्होंने मूर्तियों को साइट से हटाने से भी इनकार कर दिया। इसके बाद नायर को गोविंद वल्लभ पंत ने जिला मजिस्ट्रेट के पद से निलंबित कर दिया।
इन सबके बाद केके नायर ने तत्कालीन कांग्रेस सरकार के खिलाफ अदालत का रुख किया। अदालत ने मामले पर उनके पक्ष में फैसला सुनाया। नायर को वापस अपना आइसीएस अधिकारी का पद मिल गया, लेकिन उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया। यह फैसला उन्होंने पंडित जवाहरलारल नेहरू के खिलाफ बढ़ती नाराजगी को मद्देनजर लिया। नायर ने नेहरू के सामने झुकने से इनकार कर दिया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री की खुली अवहेलना और लाखों हिंदुओं को न्याय दिलाने के उनके दृढ़ संकल्प की वजह से लाखों लोग उन्हें पसंद करने लगे थे। उनके व्यवहार की वजह से लोग उन्हें ‘नायर साहब’ कहते थे।
आइसीएस से इस्तीफा देने के बाद, उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक वकील के रूप में प्रैक्टिस करनी शुरू कर दी। केके नायर और उनका परिवार अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए जनसंघ में शामिल हो गया। उनकी पत्नी शकुंतला नायर चुनाव लड़ीं और 1952 में उत्तरप्रदेश विधानसभा की सदस्य बनीं। नायर और उनकी पत्नी दोनों 1962 में लोकसभा के सदस्य बने। दिलचस्प बात यह है कि उनके ड्राइवर को भी उत्तरप्रदेश की विधानसभा के सदस्य के रूप में चुना गया था। वहीं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कहने पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद द्वारा घोषित राष्ट्रीय आपातकाल के काले दिनों के दौरान नायर और उनकी पत्नी को गिरफ्तार भी किया गया था। 7 सितंबर 1977 को केके नायर का निधन हो गया। उन्होंने अपना जीवन जनसंघ और राम मंदिर के लिए समर्पित कर दिया। उत्तरप्रदेश राज्य में एक प्रतिष्ठित व्यक्ति होने के बावजूद उन्हें अपने गृह राज्य केरल में भी बहुत सम्मान और पहचान मिली।
केरल में राष्ट्रवादियों ने अपने गांव में विश्व हिंदू परिषद द्वारा दान की गयी भूमि पर उनका स्मारक बनाने का फैसला भी किया है। इसके अलावा केके नायर मेमोरियल चैरिटेबल ट्रस्ट के नाम से एक ट्रस्ट भी स्थापित किया गया है। कल्याणकारी गतिविधियों के अलावा ट्रस्ट छात्रों के लिए सिविल सेवा उम्मीदवारों और छात्रवृत्ति के लिए प्रशिक्षण प्रदान करता है।
केके नायर द्वारा चलाये गये राम जन्मभूमि आंदोलन को लालकृष्ण आडवाणी, अशोक सिंघल, कल्याण सिंह, विनय कटियार और उमा भारती जैसे बड़े नेताओं ने बाद में जारी रखा। 2019 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा ऐतिहासिक फैसले के बाद उसी स्थल पर राजसी राम मंदिर बनाने के लिए एक ट्रस्ट का गठन किया गया है, जिसके लिए नायर ने अपने करियर को भी समर्पित कर दिया था। यद्यपि केके नायर इस दुनिया में नहीं हैं, फिर भी आनेवाले वर्षों में आंदोलन में किये गये उनके योगदान को याद रखा जायेगा।
सिविल जज बीर सिंह के फैसले की नींव पर खड़ा हुआ राम मंदिर
श्रीराम जन्मभूमि पर बन रहे मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा की घड़ी आ गयी है। यहां तक पहुंचने में बीर सिंह के एक फैसले ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। 74 साल पहले सुरक्षित दर्शन और मूर्ति हटाने पर रोक लगाने वाले फैजाबाद के तत्कालीन सिविल जज बीर सिंह मुजफ्फरनगर के दूधली गांव में जन्मे थे। किसान परिवार के बेटे ने इंसाफ की कलम से अमिट हस्ताक्षर कर दिये। बीर सिंह के बेटे केके सिंह भी फैजाबाद के जिला जज रहे।
दूधली आजादी के नायकों का गांव है। यहां की दहलीज से निकले सैनिकों ने पूरे जज्बे से देश सेवा की। बीर सिंह इंग्लैंड से बार एट लॉ की उपाधि प्राप्त कर जज बने थे। फैजाबाद में सिविल जज रहते हुए बीर सिंह ने 16 जनवरी, 1950 को विवादित स्थल से मूर्ति हटाने पर रोक लगायी थी। उनके भतीजे प्रयागराज में अपर शासकीय अधिवक्ता राजबहादुर सिंह बताते हैं कि तब श्रद्धालु गोपाल सिंह विशारद और पुजारी रामचंद्र दास परमहंस के केस में सिविल जज ने कमीशन भेज कर रिपोर्ट तलब की और कानून के दायरे में मूर्ति हटाने पर रोक लगा कर पूजा करने की अनुमति दी थी। फैसले को हाइकोर्ट में चुनौती दी गयी, लेकिन सिविल जज के आदेश को कानूनसम्मत माना गया।
हरिद्वार जाते हुए घर पहुंच गये परमहंस
राजबहादुर के अनुसार राम मंदिर आंदोलन के दौरान हरिद्वार जाते हुए परमहंस बीर सिंह के आवास पर पहुंचे थे। पूर्व प्रधान महेंद्र सिंह बताते हैं, बीर सिंह कहते थे कि अगर जज पैसा ले लेगा, तो बेड़ा गर्क हो जायेगा।
राय साहब के परिवार ने लिखी नयी इबारत
दूधली के ठाकुर लेखपाल सिंह अंग्रेजी शासन में राय साहब के नाम से मशहूर हुए। वह ग्रामीण क्षेत्र के पहले स्नातक थे। अंग्रेजी हुकूमत में पटवारी के पद पर भर्ती होकर कलेक्टर के पद से सेवानिवृत्त हुए। उनके पांच पुत्रों में बीर सिंह सबसे छोटे थे। दूसरे ब्रह्म सिंह किसान, तीसरे बीबी सिंह ब्रिटिश काल में आइसीएस अफसर रहे। चौथे दुर्गा सिंह कृषि इंस्पेक्टर और पांचवें चंद रूप सिंह सरकारी नौकर थे। न्यायाधीश बीर सिंह के बेटे केके सिंह तत्कालीन फैजाबाद में जिला जज भी रहे।