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    Home»विशेष»चुनाव से पहले ही ढीली पड़ गयी है झारखंड कांग्रेस
    विशेष

    चुनाव से पहले ही ढीली पड़ गयी है झारखंड कांग्रेस

    adminBy adminMarch 31, 2024Updated:April 1, 2024No Comments9 Mins Read
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    विशेष
    -रांची और धनबाद समेत चार सीटों पर अब तक तय नहीं हो सके हैं नाम
    -उम्मीदवारों की घोषणा में हो रही देरी के कारण बढ़ रही है अनिश्चितता
    -आक्रामक राजनीति के इस दौर में भी पुराने ढर्रे पर चल रही कांग्रेस पार्टी

    देश भर में जारी सियासी सरगर्मी के बीच झारखंड में अब यह चर्चा होने लगी है कि यहां देश की सबसे पुरानी पार्टी, यानी कांग्रेस चुनाव से पहले ही ढीली पड़ गयी है और उसने भाजपा को वॉकओवर दे दिया है। इस चर्चा के पीछे वजह यह है कि एक तरफ जहां भाजपा और दूसरे दल अपनी चुनावी रणनीति तय करने में व्यस्त हैं, तो दूसरी तरफ कांग्रेस नेता अभी रांची और दिल्ली के बीच संतुलन बनाने में लगे हुए हैं। झारखंड की 14 में से सात सीटों पर कांग्रेस को उम्मीदवार देना है, लेकिन उसने अब तक केवल तीन प्रत्याशियों की ही घोषणा की है। रांची, धनबाद, गोड्डा और चतरा या पलामू से कांग्रेस का प्रत्याशी कौन होगा, इस पर अब भी विचार चल रहा है, क्योंकि पार्टी के भीतर की गुटबाजी प्रत्याशियों के चयन पर भारी पड़ रही है। कांग्रेस ने रांची के पूर्व सांसद रामटहल चौधरी को अपने खेमे में शामिल तो कर लिया है, लेकिन उन्हें अब तक प्रत्याशी घोषित नहीं किया है, क्योंकि उसे बगावत का डर सता रहा है। यही हालत धनबाद की भी है, क्योंकि वहां भी गिरिडीह के पूर्व सांसद रविंद्र कुमार पांडेय को पार्टी में शामिल कराने के बाद टिकट देने की बात तय हुई है, लेकिन इसे अब तक कार्यान्वित नहीं किया जा सका है, क्योंकि इसमें भी कई पेंच हैं। कांग्रेस की इस असमंजस की स्थिति के कारण ही कहा जा रहा है कि वह मुकाबले से पहले ही हारने का मन बना चुकी है। क्या हैं झारखंड कांग्रेस की इस ढुलमुल रवैये के कारण और आसन्न चुनाव में क्या हो सकता है इसका असर, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    झारखंड समेत पूरे देश में जारी सियासी सरगर्मी के बीच अब देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की स्थिति पर गंभीर सवाल खड़े होने लगे हैं। झारखंड के संदर्भ में यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यहां पार्टी सत्ता में लगभग बराबर की साझीदार है। चुनावी गहमा-गहमी के दौर में झारखंड कांग्रेस अब तक अपना चार उम्मीदवार तय नहीं कर सकी है, जबकि भाजपा और आजसू ने अपने प्रत्याशी घोषित कर दिये हैं और वे चुनाव प्रचार अभियान का पहला चरण तेजी से पूरा भी कर रहे हैं। ऐसे में यह सवाल उठ रहा है कि आखिर चुनाव से पहले कांग्रेस इतनी लचर अवस्था में कैसे पहुंच गयी है। इस सवाल का जवाब बहुत आसान नहीं है। इसका जवाब जानने के लिए व्यापक दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है।
    यह ठीक है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी, कांग्रेस के बिना विपक्षी एकता या मोर्चाबंदी अधूरी है, किंतु वर्तमान कांग्रेस का राजनीतिक क्षरण भी एक सच है। झारखंड में सत्ता में साझीदार होने के बावजूद कांग्रेस सांगठनिक रूप से इतनी जर्जर हो चुकी है कि इसके पास न रणनीति है और न कोई विजन। पार्टी केवल नकारात्मक राजनीति के सहारे चल रही है, जहां हर नेता अपनी मर्जी से मुद्दे चुनता है, उठाता है और बयान जारी कर चुपचाप बैठ जाता है। इससे पता चलता है कि वास्तव में झारखंड कांग्रेस की समस्या बहुआयामी है। इसमें पहला है कि पार्टी नेतृत्व संकट से दो-चार है। गुटबाजी के विष-आलिंगन में फंसी झारखंड कांग्रेस का हर नेता अलग गुट का प्रतिनिधित्व करता है। दूसरी समस्या पार्टी का बौद्धिक रूप से शून्य होना है। आज हम जिस कांग्रेस को देख रहे हैं, वह अपने व्यवहार-आचरण से सियासी हाशिये पर जा चुके वामपंथी चिंतन की घटिया कार्बन कॉपी है, जिसे तत्कालीन कांग्रेस ने वर्ष 1969-71 में ‘आउटसोर्स’ किया था। झारखंड कांग्रेस की तीसरी समस्या यह है कि उसका नेतृत्व अब फर्जीवाड़े के गंभीर आरोपों में फंस चुका है।

    प्रत्याशी चयन में सामने आयी कमजोरी
    झारखंड की तरफ लौटते हैं। राज्य की 14 सीटों में से कांग्रेस को सात सीटों पर उम्मीदवार देना है। इनमें से तीन सीटों, खूंटी, लोहरदगा और हजारीबाग के लिए प्रत्याशी घोषित हो गये हैं। अब रांची, धनबाद, गोड्डा और पलामू या चतरा से प्रत्याशी देना है। रांची से सुबोधकांत सहाय का नाम लगभग तय था, लेकिन अब स्थिति बदल चुकी है। भाजपा के सांसद रहे रामटहल चौधरी अब कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं और उन्हें टिकट देने की तैयारी चल रही है। ऐसे में सवाल यह है कि आखिर कांग्रेस उन्हें टिकट देने में देरी क्यों कर रही है। वास्तव में यह देरी संभावित बगावत को रोकने के लिए की जा रही है। रामटहल चौधरी तपे-तपाये नेता रहे हैं। वह एक या दो बार नहीं, पांच बार रांची से कांग्रेस को हरा चुके हैं। ऐसे में इस बार यदि उन्हें कांग्रेस टिकट देती है, तो पार्टी के भीतर बगावत लगभग तय है। कांग्रेस के कार्यकर्ता कह रहे हैं कि इतने सालों तक भाजपा का चेहरा रहे किसी नेता का अचानक से कांग्रेसी बन जाना आसानी से पचाया नहीं जा सकता। वहीं मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग रामटहल चौधरी का हिमायती नहीं है। उसका कहना है कि जिसने 20 साल तक भाजपा की नीतियों को सींचा, जो मुसलमानों के खिलाफ मुखर रहा, उसे वे इतनी आसानी से कैसे अपना लेंगे। ये लोग बाबूलाल मरांडी का उदाहरण दे रहे हैं। उन्होंने कहा कि बाबूलाल मरांडी ने भी भाजपा छोड़ दी थी और जेवीएम बना लिया था। वह भाजपा के खिलाफ मुखर भी खूब हुए, लेकिन इसके बावजूद मुसलिम समाज ने बाबूलाल को अपना नहीं बनाया। उनका कहना है कि अगर रामटहल चौधरी 20 साल तक भाजपा में रहे हैं और मुसलमानों के खिलाफ उन्होंने आग उगली है, तो इसे भूलने में बीस साल तो लगेंगे ही। ऐसा थोड़े न होता है कि कल तक आपने गाली दी और आज आप गले लगाने आ गये, तो हम गले लगा ही लेंगे।
    लगभग यही स्थिति धनबाद की भी है। वहां से उम्मीदवारों का टोटा होने के बाद पार्टी ने गिरिडीह के पूर्व सांसद रविंद्र कुमार पांडेय से संपर्क साधा और उन्हें पार्टी में शामिल होने के बदले धनबाद से टिकट देने की पेशकश की। पांडेय इसके लिए तैयार भी हो गये, लेकिन धनबाद के कांग्रेसियों ने इसमें पेंच फंसा दिया। उनका कहना था कि करीब चार दशक तक पूरे कोयलांचल में भाजपा का चेहरा रहे किसी नेता को अब कांग्रेस की ओर से मैदान में उतारना आत्मघाती कदम होगा। उनका कहना है कि रवींद्र पांडेय ने कांग्रेस को दलदल में छोड़ कर भाजपा को गले लगाया था। अब जब उन्होंने भाजपा ने टिकट नहीं दिया, तो वह महज टिकट के लिए कांग्रेस में आये हैं। ऐसे लोगों पर कैसे भरोसा करें। पार्टी को कीर्ति आजाद का उदाहरण याद रखना चाहिए। इस पेंच के कारण रविंद्र पांडेय का कांग्रेस में शामिल होना भी फिलहाल स्थगित हो गया है। अब पूर्णिमा नीरज सिंह का नाम सामने आ रहा है। अंतिम समय में उनको टिकट मिलता भी है, तो वह कितनी मुश्तैदी से लड़ पायेंगी, यह भविष्य के गर्भ में है।

    कांग्रेस लड़ाई के लिए तैयार नहीं
    कांग्रेस की हालत यह है कि वह मुकाबले के लिए इच्छुक तो है, लेकिन वह इसके लिए तैयार नहीं है, क्योंकि उसके पास योद्धा ही नहीं है। पार्टी के नेता भी कह रहे हैं कि अगर अचानक किसी को चुनाव लड़ने के लिए कहा जाये, तो कौन इसके लिए तैयार होगा। पार्टी ने कभी संकेत नहीं दिया कि किसी नेता को चुनाव लड़ना है। इसलिए कांग्रेस का कोई नेता चुनाव की तैयारी नहीं कर सका है। इसके अलावा कांग्रेस के पास ऐसे नेताओं की भारी कमी है, जो लोकसभा चुनाव में उतरने की काबिलियत रखते हों। पहचान की बात छोड़ भी दें, तो संसाधन के हिसाब से भी वे प्रतिद्वंद्वियों से पिछड़ते नजर आ रहे हैं।
    कुछ समय पहले कांग्रेस ने अधिक महत्वपूर्ण भूमिका के लिए संभावित युवा नेताओं की पहचान करने और उन्हें तैयार करने की कोशिश की, लेकिन यह झारखंड में असफल साबित हुई। इसीलिए पार्टी को भाजपा से मुकाबला करने के लिए उपयुक्त उम्मीदवारों के वास्तविक संकट का सामना करना पड़ रहा है, जो हमेशा चुनावी मोड में रहती है।

    क्या है कांग्रेस की इस कमजोरी का कारण
    झारखंड कांग्रेस का यह नकारात्मक रवैया वास्तव में कुछ महत्वपूर्ण संकेत देता है। एक तो यह पार्टी संगठन की कमजोरी को उजागर करता है, जो इस यकीन से पैदा होता है कि आपको विरासत में इतनी ताकत मिली है कि आपकी नाकामियों के लिए कोई भी आपको जवाबदेह नहीं ठहरा सकता। दूसरी बात यह कि आपके लिए पार्टी हित से ज्यादा महत्वपूर्ण है आपकी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद। और तीसरी बात यह कि भयंकर भूल करने के बाद भी आपको सुधार करने या खोयी हुई जमीन को वापस हासिल करने की कोशिश करना जरूरी नहीं लगता। यह ऐसा ही है, जैसे आप यह मान बैठे हों कि हमने अपना घर ढहाने का इतना शानदार काम कर दिया है कि उधर मुड़ कर देखने की जहमत क्यों की जाये। इसका नतीजा यह है कि झारखंड कांग्रेस में नेतृत्व पर कोई सवाल नहीं उठाया जाता। जो सवाल उठाते हैं, उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है और बाहर जाते हुए उन्हें वफादारों के हमलों का सामना करना पड़ता है। जो टिके रहते हैं, वे चारे के रूप में राज्यसभा सीट हासिल करने की कोशिश करते हैं, जो अब भी उपलब्ध हो सकती है। इसके बाद जो मूल सवाल पैदा होता है, वह है कि पार्टी है कहां? झारखंड में गठबंधन है, तो वहां सबसे बड़ा दल झामुमो पूरी तरह एकजुट है, लेकिन दरार कांग्रेस में ही दिखाई दे रही है।
    यह सही है कि जब भी हम झारखंड कांग्रेस, उसके भविष्य, उसकी खूबियों, कमजोरियों, अवसरों और चुनौतियों पर नजर डालते हैं, तब हर बार यही पाते हैं कि उसकी हालत चंद महीने पहले की हालत से और बदतर ही हुई है। पिछले एक दशक में तो इसकी भी वजह है। इस दौरान इस पार्टी ने जो एकमात्र जीत हासिल की है, वह है राजनीति के गर्त की ओर दौड़ में। इसके बावजूद झारखंड की चुनावी सफलता ने कांग्रेस के लिए संजीवनी का काम किया था, लेकिन अब इसके घर के चूहे ही इस पहाड़ को खोखला बना चुके हैं। कांग्रेस को यह समझना होगा कि 2019 में उसने जो सफलता हासिल की, उसके पीछे झामुमो के साथ उसका गठबंधन था, ना कि उसकी अपनी लोकप्रियता। कांग्रेस को यह भी समझना होगा कि वह अब झारखंड में झामुमो पर ही आश्रित है, जैसे बिहार में उसका संबल राजद है।
    झारखंड कांग्रेस के लिए अब भी वक्त है संभलने का। उसे अपने संगठन पर सबसे अधिक ध्यान देना होगा। इसके लिए स्थानीय नेतृत्व को सामने लाना होगा, जो कम से कम पार्टी के लिए स्टैंड ले सके। उसे अब उन लोगों से भी किनारा करना होगा, जो बूढ़े हो चुके हैं। उनसे भी सावधान रहना होगा, जो पुत्रमोह में फंसे हुए हैं। जब तक ऐसा नहीं होता, कांग्रेस अपने क्षरण की इस राह पर लगातार आगे बढ़ती रहेगी।

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