बनेंगे प्रतिपक्ष का नेता, सदन में भाजपा विधायकों को मिलेगा बूस्टर डोज
मजबूत हेमंत सरकार के समक्ष चुनौती पेश करने की कठिन घड़ी, विधायकों में जोश भरना भी आसान नहीं
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष मेंं आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
झारखंड के पहले मुख्यमंत्री और प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी को विधायक दल का नेता चुन लिया गया है। झारखंड की छठी विधानसभा में वह नेता प्रतिपक्ष होंगे। पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के इस फैसले से जहां बाबूलाल मरांडी को कद के अनुसार पार्टी में सम्मान मिला है, वहीं उन्हें चुनाव में करारी हार के बाद मायूस हो चुके भाजपा समर्थकों और खासकर विधायकों के अंदर उत्साह का संचार करने की चुनौती भी है। चुनौती हेमंत सोरेन सरकार की कई सफल योजनाओं से राज्य के लोगों के बीच मिली अपार सहानुभूति के बीच भाजपा के पक्ष में माहौल बनाने की है। कहीं न कहीं भाजपा के इस फैसले में सही मायने में कई निशानों को एक साथ साधने की कोशिश की गयी है। 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद से झारखंड के आदिवासी जिस तरह भाजपा से दूर छिटक गये हैं, उससे पार्टी को 2024 के चुनाव में केवल झेलना ही नहीं पड़ा, बल्कि अब तक की सबसे बड़ी पराजय का सामना भी करना पड़ा। विधानसभा चुनाव से पहले बाबूलाल मरांडी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया, लेकिन चुनाव की पूरी कमान बाहरी नेताओं को सौंप कर आलाकमान ने चूक कर दी थी। चुनाव के दौरान एक तरह से झारखंड के पार्टी नेतृत्व को हाशिये पर धकेल दिया गया था। हालांकि बाबूलाल मरांडी ने संगठन को मजबूत बनाने के लिए अपना सब कुछ झोंक दिया, लेकिन इसका सकारात्मक संदेश मतदाताओं में नहीं गया। मतदाताओं में यह भ्रम की स्थिति अंतिम समय तक बनी रही कि अगर भाजपा सफल भी होती है, तो जनता के किये गये वायदे को कौन लागू करेगा। यही कारण है कि भाजपा को चुनावी सफलता नहीं मिली। अब विधायक दल के नेता की जिम्मेदारी सौंप कर पार्टी ने बता दिया है कि वह चुनावी हार को भूल कर आगे की रणनीति बनाने में जुट गयी है। वैसे भी बाबूलाल मरांडी के बारे में कहा जाता है कि वह कर्म पर भरोसा करते हैं और संघर्ष से कभी नहीं घबड़ाते हैं। उनकी गिनती झारखंड के उन गिने-चुने नेताओं में होती है, जिनके दिलो-दिमाग में हमेशा झारखंड और यहां के लोग रहते हैं। अपने राजनीतिक करियर में तमाम उतार-चढ़ाव झेलने के बावजूद उनका संघर्ष का माद्दा आज भी बरकरार है। विचारों में स्पष्टता और लक्ष्य के प्रति उनका समर्पण तमाम लोगों के लिए ऊर्जा कस संचार भी करता है। वह अपनी साफगोई के लिए तो जाने जाते ही हैं, उनका कोई व्यक्तिगत दुश्मन नहीं है, यह सबसे खास बात है। भाजपा के सबसे बड़े आदिवासी नेता के रूप में पहले से ही स्थापित बाबूलाल मरांडी की बात आज भी कार्यकर्ताओं के बीच गौर से सुनी जाती है। राज्य के पहले मुख्यमंत्री के रूप में उनके कामों का आज भी मिसाल दिया जाता है। भाजपा ने ऐसे चेहरे को विधायक दल का नेता बना कर यह संदेश दिया है कि विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद भी भाजपा आदिवासी मतदाताओं से विमुख नहीं हुई है। हालांकि कहा जा सकता है कि बाबूलाल मरांडी के सिर पर कांटों भरा ताज रखा गया है, क्योंकि उन्हें पग-पग पर झारखंड की मजबूत हेमंत सरकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। दूसरी ओर पिछले विधानसभा से खाली पड़ी प्रतिपक्ष के नेता की सीट अब सदन में भरी हुई दिखेगी। संख्या बल में कम होने के बाद भी सदन में भाजपा विधायकों के लिए यह बूस्टर डोज का काम करेगा। सदन में सत्ता पक्ष द्वारा समय-समय पर विधायक दल नेता नहीं होने का ताना अब नहीं सुनना पड़ेगा। बाबूलाल मरांडी को झारखंड में भाजपा विधायक दल की कमान सौंपे जाने से सदन के अंदर और बाहर राजनीतिक असर का आकलन कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
बाबूलाल मरांडी को झारखंड में भाजपा विधायक दल का नेता चुन लिया गया है। वह अब नेता प्रतिपक्ष होंगे और इसके साथ ही झारखंड की छठी विधानसभा के भीतर का परिदृश्य भी अब बदल जायेगा। इस एक घोषणा का झारखंड में कितना इंतजार हो रहा था, इसका पता इसी बात से चलता है कि घोषणा के कुछ ही घंटे बाद इस पर सकारात्मक प्रतिक्रियाओं की बाढ़ सी आ गयी। पिछले साल नवंबर में विधानसभा चुनाव में बुरी तरह पराजित होने के बाद से भाजपा विधायक दल के नेता के चयन में देरी कर रही थी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद भाजपा इस पद पर किसी को नहीं चुन रही थी। उसे लोगों के सवालों का सामना भी करना पड़ रहा था।
अब भाजपा ने देर आये दुरुस्त आये के अंदाज में बाबूलाल मरांडी को यह जिम्मेदारी सौंप दी है। विधानसभा चुनाव से ठीक पहले रवींद्र कुमार राय को प्रदेश का कार्यकारी अध्यक्ष बना कर भाजपा ने बाबूलाल मरांडी को प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी से मुक्त करने का संकेत दे दिया था। बाबूलाल मरांडी को विधायक दल का नेता बनाये जाने के पीछे का कारण यह बताया जाता है कि विधानसभा चुनाव हारने के बाद से ही भाजपा इस बात को लेकर चिंतित है कि वह झारखंड में अपनी खोयी जमीन को कैसे हासिल कर सकेगी। राज्य के आदिवासी जिस तेजी से भाजपा से छिटक कर दूर चले गये हैं, पार्टी भविष्य को लेकर बेहद सशंकित है। बाबूलाल मरांडी को विधायक दल की कमान सौंपने के बाद जो सबसे बड़ा और पहला अंतर आयेगा, वह यह कि अब भाजपा कम से कम खुद को प्रतिद्वंद्वियों से आगे नहीं, तो कम से कम उनके बराबर तो मान ही सकती है। झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार जिस आक्रामक तरीके से काम कर रही है, उसके समक्ष चुनौती पेश करने की कोशिश करेगी।
अलग किस्म की राजनीति की :
बाबूलाल मरांडी ने हमेशा अलग किस्म की राजनीति की है। चाहे कोडरमा के अभ्रक मजदूरों का मामला हो या संथाल के विस्थापितों का, गिरिडीह में उग्रवाद का मुद्दा हो या धनबाद में अपराध का, बाबूलाल मरांडी आंदोलन के लिए पहली कतार में रहे। उग्रवाद के खिलाफ उन्होंने ‘टॉर्चलाइट अभियान’ चलाया, जिसने नक्सलियों को बुरी तरह नाराज कर दिया। अभियान के तहत बाबूलाल मरांडी ने उग्रवाद प्रभावित गांवों में टॉर्चलाइट बांटना शुरू किया था। इसका नतीजा यह हुआ कि उन्हें अपना जवान बेटा खोना पड़ा।
हमेशा राजनीति के केंद्र में रहे:
बाबूलाल मरांडी के व्यक्तित्व को इसी बात से समझा जा सकता है कि वह हर परिस्थिति में राजनीति के केंद्र में रहे। इसका मुख्य कारण यह है कि चुनाव हारने के बावजूद उन्होंने जनता से अपना संपर्क जीवित रखा है। लगातार जनता के संपर्क में रहने और पूरे राज्य की यात्रा करने के कारण उन्होंने अपने राजनीतिक वजूद को मजबूत ही किया। बाबूलाल के बारे में कहा जाता है कि वह कभी हल्की बात नहीं करते और बहुत आगे की सोच कर अपनी रणनीति तैयार करते हैं। उनके बारे में यह बात भी मशहूर है कि वह किसी फैसले पर पहुंचने से पहले खूब विचार-विमर्श करते हैं, लोगों के सुझाव सुनते हैं और तब फैसले पर पहुंचते हैं। एक बार फैसला लेने के बाद पीछे नहीं हटते। राजनीति के मैदान में ऐसा कम देखने को मिलता है। बाबूलाल मरांडी सोच-समझ कर अपनी रणनीति बनाते हैं और फिर उस पर अमल करते हैं। वह जो भी मुद्दा उठाते हैं, उसे अंजाम तक पहुंचाने के बाद ही दम लेते हैं। वह यात्राओं और दौरों की मदद से लोगों से सीधा संवाद बनाते हैं। उनके पास झारखंड के विकास का एक विजन है, जिस पर वह काम करते हैं। साफ-सुथरी और स्पष्ट राजनीतिक विचारधारा इनकी खासियत है। एक साधारण सरकारी स्कूल के शिक्षक से सांसद, केंद्रीय मंत्री और मुख्यमंत्री का सफर तय करनेवाले बाबूलाल मरांडी के विचारों में यही बारीकी और स्पष्टता उन्हें प्रदेश के दूसरे नेताओं से अलग करती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक के निष्ठावान स्वयंसेवक और प्रचारक के रूप में कैरियर शुरू करनेवाले बाबूलाल मरांडी का जीवन कई झंझावातों से गुजरा है।
शिबू सोरेन से हारे पहला चुनाव
1991 में मरांडी ने भाजपा के टिकट पर दुमका लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा, जिसमें उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा था। 1996 में वह फिर शिबू सोरेन से हार गये। इसके बाद भाजपा ने 1998 में विधानसभा चुनाव के दौरान उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बना दिया। पार्टी ने उनके नेतृत्व में झारखंड क्षेत्र की 14 लोकसभा सीटों में से 12 पर कब्जा कर लिया। उस चुनाव में उन्होंने शिबू सोरेन को दुमका से हरा कर चुनाव जीता था। इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में उन्हें वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री बनाया गया। 15 नवंबर, 2000 को अलग झारखंड राज्य बनने के बाद एनडीए के नेतृत्व में बाबूलाल मरांडी ने राज्य की पहली सरकार बनायी और करीब 18 महीने तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे। इसके बाद उन्होंने 2004 के लोकसभा चुनाव में कोडरमा सीट से चुनाव जीता, जबकि पार्टी के अन्य उम्मीदवारों को हार का मुंह देखना पड़ा। मरांडी ने कोडरमा सीट सहित 2006 में भाजपा की सदस्यता से भी इस्तीफा देकर अपनी नयी पार्टी झारखंड विकास मोर्चा बना ली, जिसमें भाजपा के पांच विधायक पार्टी छोड़ शामिल हो गये। इसके बाद कोडरमा उपचुनाव में वह निर्विरोध चुन लिये गये। कोडरमा सीट से 2009 का लोकसभा चुनाव जीत कर वह एक बार फिर संसद में पहुंच गये।
लगातार हार भी नहीं तोड़ सकी हौसला:
अपनी अलग पार्टी बनाने के बाद बाबूलाल मरांडी को लगातार चुनावी हार का सामना करना पड़ा। 2014 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी के आठ विधायक चुने गये, लेकिन बाद में उनमें से छह ने इस्तीफा दे दिया। लोकसभा चुनाव में झाविमो को कोई सफलता नहीं मिल सकी। खुद बाबूलाल मरांडी भी चुनाव हार गये। लेकिन बार-बार की चुनावी पराजय से भी उनका हौसला कम नहीं हुआ। वह हमेशा संघर्ष के रास्ते पर आगे बढ़ते रहे।
14 साल बाद भाजपा में वापसी:
करीब 14 साल तक अलग पार्टी के माध्यम से राजनीति करनेवाले बाबूलाल मरांडी 2019 के विधानसभा चुनावों के बाद 17 फरवरी, 2020 को भाजपा में वापस आ गये। पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष अमित शाह की मौजूदगी में उन्होंने अपनी पार्टी का भाजपा में विलय कर दिया और खुद पार्टी की सदस्यता ग्रहण की। उसके बाद उन्हें विधानसभा में भाजपा विधायक दल का नेता बनाया गया। उस विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को तीन सीटें मिली थीं, लेकिन दो विधायकों ने बाबूलाल का साथ छोड़ दिया। बाबूलाल मरांडी एक बार फिर राज्य की राजनीति के केंद्र में हैं। भाजपा के सबसे बड़े आदिवासी चेहरे के रूप में उनकी चुनौती कम नहीं है। पार्टी के विधायकों का नेतृत्व करना और उनके भीतर नये तरह का उत्साह पैदा कर विधानसभा के भीतर सत्ता पक्ष के लिए मुश्किलें खड़ी करना उनके लिए इतना आसान नहीं होगा।