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    Home»Breaking News»रांची: महागठबंधन में चल रहा है शह-मात का खेल
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    रांची: महागठबंधन में चल रहा है शह-मात का खेल

    azad sipahiBy azad sipahiJanuary 2, 2019Updated:January 2, 2019No Comments6 Mins Read
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    कई मोर्चे पर काम कर रही हैं तीनों पार्टियां
    रांची। झारखंड में महागठबंधन होगा, यह तो लगभग तय है, लेकिन हो सकता है कि उसके स्वरूप में आनेवाले समय में बदलाव दिखे। 20 दिसंबर को हेमंत सोरेन गिरिडीह में थे। उन्होंने मीडिया से बातचीत और बाद में झलकडीहा में आयोजित पार्टी के कार्यक्रम में दो टूक कहा कि झामुमो महागठबंधन में बड़े भाई की भूमिका निभाने की हैसियत रखता है। विपक्षी दलों को यह समझना होगा कि झामुमो ही राज्य में दूसरा बड़ा राजनीतिक दल है। साथ ही बीजेपी को शिकस्त देने की क्षमता झामुमो ही रखता है।

    22 दिसंबर को पूर्व विधायक सुखराम की पार्टी में वापसी को लेकर चाईबासा में आयोजित एक कार्यक्रम में भी हेमंत सोरेन ने बीजेपी तथा उसकी सरकार पर निशाना साधा। साथ ही इस बात पर भी जोर दिया कि जेएमएम ही झारखंड में बीजेपी को सत्ता से बाहर करेगा। हालांकि विपक्ष के बड़े कार्यक्रमों और रणनीति को लेकर होने वाली शीर्ष स्तर पर बैठकों में भी हेमंत सोरेन लगातार शामिल होते रहे हैं। 17 दिसंबर को वह अशोक गहलोत के शपथ ग्रहण समारोह में शिरकत करने के लिए जयपुर गये थे। इससे पहले 10 दिसंबर को चंद्रबाबू नायडू की पहल पर दिल्ली में जुटे विपक्षी दलों की बैठक में भी वह शामिल हुए थे। पिछले सितंबर महीने में भारत बंद कार्यक्रम को लेकर भी वह दिल्ली में विपक्षी दलों के साथ थे। दरअसल, इसी बहाने हेमंत सोरेन कांग्रेस का मूड भांपना चाहते हैं और शीर्ष स्तर पर गठबंधन तथा नेताओं के विचारों को समझना भी।

    इससे पहले राज्यसभा चुनाव में जेएमएम ने कांग्रेस के उम्मीदवार धीरज साहू की मदद की थी। उसी वक्त हेमंत सोरेन ने गठबंधन को लेकर कांग्रेस से सीट शेयरिंग और मुख्यमंत्री के सवाल पर अंतिम निर्णय लेने को कहा था।

    दरअसल, जेएमएम चाहता है कि लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस झारखंड में हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट करे। पूर्व में कांग्रेस इस मसौदे पर लगभग सहमत थी, लेकिन वक्त के साथ बदलते समीकरणों के बीच कांग्रेस इससे बचना चाहती है। अब कांग्रेस की बाबूलाल मरांडी से भी नजदीकी बढ़ी है। दरअसल, कांग्रेस को यह लगता है कि आखिरी वक्त अगर जेएमएम से गठबंधन टूट गया, तो जेवीएम को अपने साथ लेकर चला जा सकता है।

    बाबूलाल मरांडी भी कुछ इस तरह की तस्वीर देख रहे हैं। इसलिए वह कोलेबिरा में कांग्रेस के साथ खड़े रहे। 2009 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने बाबूलाल मरांडी के साथ मिलकर ही चुनाव लड़ा था। दोनों दलों को 25 सीटें मिली थीं। कांग्रेस को इसका अहसास तो है कि जेएमएम झारखंड में मजबूत राजनीतिक हैसियत रखता है, लेकिन तीन राज्यों में सरकार बनने के बाद पार्टी के नेता इसकी उम्मीदें लगा रहे हैं कि अब हवा का रुख झारखंड में भी कांग्रेस के पक्ष में आयेगा। दूसरा यह कि कांग्रेस के नेता बाबूलाल मरांडी को सुलझा और अनुभवी नेता के तौर पर देखते रहे हैं। जबकि जेएमएम को इसका गुमान है कि हेमंत सोरेन ने राज्य में बेहद मजबूत नेता के तौर पर खुद को स्थापित किया है। इतना ही नहीं, 2013-14 में सरकार का नेतृत्व भी उन्होंने ठीक से किया है। गौरतलब है कि कुछ महीने पहले सुबोधकांत सहाय, मनोज यादव सरीखे नेताओं ने सरकार के खिलाफ आंदोलन को लेकर पार्टी के अंदर इसी बात पर जोर दिया था कि जेएमएम के पीछे चलने के बजाय कांग्रेस को अपना झंडा लहराने की कोशिशों में जुटना चाहिए। बाद में कांग्रेस ने इस फार्मूले पर काम भी करना शुरू किया और वक्त के साथ कांग्रेस यह महसूस करने लगी है कि झारखंड में वह अपने को सांगठनिक मजबूती के साथ चुनावी चौसर में अगली कतार में शामिल कर सकती है। हालांकि इसमें वह कितना सफल होती है यह चुनावों के नतीजे पर निर्भर करता है।

    इस बीच हेमंत सोरेन गठबंधन के तमाम कशमकश के बीच में लालू प्रसाद की भूमिका को भी अपने पक्ष में करने की कोशिशों में जुट गये हैं। 2013 में लालू प्रसाद ने हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाने में अहम भागीदारी निभायी थी। लालू यह भी समझते हैं कि झारखंड में जेएमएम की अनदेखी कर बीजेपी को शिकस्त नहीं दी जा सकती। लालू का एक ही लक्ष्य होता है कि किसी हाल में बीजेपी को रोका जाये। हेमंत सोरेन को यह भी लगता है कि लालू की मार्फत कांग्रेस पर दबाव बढ़ाया जा सकता है। आरजेडी की प्रदेश अध्यक्ष अन्नपूर्णा देवी ने लालू प्रसाद की सहमति और हेमंत सोरेन से मंत्रणा करने के बाद ही कोलेबिरा में मेनन एक्का को समर्थन देने की घोषणा की थी। इस बीच कांग्रेस के नेताओं की भी लालू प्रसाद से मुलाकात जारी है। कई मौके पर लालू खुले मन से इस बात पर जोर देते रहे हैं कि हेमंत ही नेतृत्व करने के दावेदार हंै। कुछ महीने पहले उन्होंने बाबूलाल और हेमंत का हाथ भी मिलवाया था। गठबंधन के मसौदे पर जेएमएम खुद को सबसे मजबूत दावेदार के तौर पर इसलिए भी पेश कर रहा है कि 2014 में मोदी लहर में भी दुमका में शिबू सोरेन और राजमहल में विजय हांसदा की जीत हुई थी। जबकि गिरिडीह में जेएमएम ने बीजेपी को कांटे की टक्कर दी थी। विधानसभा चुनाव में जेएमएम को 19 सीटों पर जीत मिली थी।

    इस बीच कांग्रेस पार्टी अब आजसू से भी संपर्क साध रही है। जानकारी के अनुसार कांग्रेस एक साथ कई मोर्चे पर काम कर रही है। झामुमो अगर किसी कारणवश महागठबंधन का हिस्सा नहीं बनता है तो वह झाविमो और आजसू को साथ लेकर आगे बढ़ सकती है। वहीं, झामुमो को आजसू किसी भी तरह से स्वीकार नहीं है। इधर बाबूलाल मरांडी भी चाहते हैं कि उनकी पार्टी को लोकसभा और विधानसभा चुनाव में सम्मानजनक सीट मिले। कांग्रेस से उनकी नजदीकी तो है ही, वह झामुमो से भी नजदीकी बढ़ा रहे हैं। महागठबंधन के एक अन्य प्रमुख दल राजद की बात करें तो वह शुरू से ही भाजपा के खिलाफ मजबूत महागठबंधन की पैरोकार रहा है। यही वजह है कि किसी भी मुद्दे पर वह मुखर होकर विरोध नहीं कर रहा है।

    पिछले चुनाव में झारखंड से राजद का सुपड़ा साफ हो गया था। अबकी बार वह महागठबंधन से जुड़कर वापसी करना चाहता है। हालांकि यह भी सच है कि राजद में लालू यादव का जो फरमान होगा, उससे इतर जाने की हिम्मत राजद के किसी नेता में नहीं है। इस पूरे मामले पर गौर करने के बाद यह साफ है कि महागठबंधन का पेंच कांग्रेस, झामुमो और झाविमो के इर्द-गिर्द फंसा हुआ है। देखनेवाली बात यह होगी कि खरमास के बाद ऊंट किस करवट बैठता है।

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