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    Home»Breaking News»रांची: वाम दलों ने मांगी पांच सीटें, कैसे बनेगी बात
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    रांची: वाम दलों ने मांगी पांच सीटें, कैसे बनेगी बात

    azad sipahiBy azad sipahiJanuary 6, 2019Updated:January 6, 2019No Comments6 Mins Read
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    अगर वाम हुआ लाल, तो खुलेगी महागठबंधन की गठरी

    रांची। झारखंड में वाम दलों का वर्तमान गर्दिश में है। विचारों में जड़ता की वजह से भविष्य का पता नहीं, लेकिन इतिहास गर्व करनेवाला जरूर है। संसदीय राजनीति में सत्ता पर काबिज होने के सपनों को लेकर चला वामदलों का कारवां ठहर सा गया है। बिखर गया है। लाल झंडा की राजनीति करने वाले सभी वामदल अपनी साख जनता के बीच खो चुके हैं। वामदल हाशिये पर चले गये हैं। बंदूक के बल पर अथवा संसदीय राजनीति के जरिये व्यवस्था परिवर्तन कर सत्ता पर काबिज होने का सपना देख रहे लाल झंडे की राजनीति गर्दिश में आ गयी है। समय ने इस कदर करवट ली है कि युवा वर्ग अब अपना भविष्य और प्रगति व्यवस्था परिवर्तन में नहीं, बल्कि पूंजीवादी व्यस्था में ही सुरक्षित मान रहा है। आज का युवा वर्ग वर्तमान पूंजीवादी सिस्टम में ही भविष्य तलाशने की जद्दोजहद में लगा है।

    मार्क्सवाद की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े हो रहे हैं। झारखंड समेत देश में वामदलों की यही स्थिति है। 34 सालों तक बंगाल में शासन करनेवाला देश की सबसे बड़ा वामपंथी दल माकपा झारखंड और विहार विधानसभा से गायब है और ओड़िशा में नामलेवा एक ही है। अलबत्ता भाकपा और माकपा से बहुत बाद संसदीय राजनीति में आयी माले की स्थिति झारखंड और बिहार में थोड़ी बेहतर है। माले का बिहार विधानसभा में तीन और झारखंड में एक प्रतिनिधि है। लेकिन बंगाल और ओड़िशा विधानसभा में वह नहीं है। अस्तित्व में आने के बाद झारखंड में अब तक हुए विधानसभा चुनाव में एक उपचुनाव को छोड़ भाकपा का खाता नहीं खुल पाया है। माकपा का तो यहां और बुरा हाल है। माकपा का भी झारखंड विधानसभा में अभी तक खाता नहीं खुला है। वहीं माले यहां हर चुनाव में एक सीट पर जीत हासिल करती रही है। गौरतलब है कि एकीकृत बिहार में वामदलों में भाकपा सबसे मजबूत पार्टी रही है। बिहार विधानसभा में 1972 में वह मुख्य विपक्षी दल था और 1995 में 35 से अधिक भाकपा के विधायक थे।

    एकीकृत विहार के समय झारखंड के पूर्वी सिंहभूम में 1985 में भाकपा के तीन विधायक बहरागोड़ा से देवीपदो उपाध्याय, घाटशिला से टीकाराम मांझी और जुगसलाई से तुलसी रजक विधायक रह चुके हैं। जमशेदपुर पूर्वी विधानसभा और जमशेदपुर पश्चिमी विधानसभा में, जहां भाजपा का अभी गढ़ माना जाता है, वहां कभी भाकपा का कब्जा हुआ करता था, लेकिन अब झारखंड में भाकपा और माकपा की स्थिति दयनीय है। हालांकि माले राज्य के 24 जिलों में से 16 जिले में सक्रिय है। गिरिडीह जिले में माले अच्छी स्थिति में है। वामपंथ के नाम पर माले ही ऐसा दल है, जो जनता के सवालों पर विधानसभा से सड़क तक सक्रिय है। भाकपा और माकपा की राजनीति बयानों तक ही सीमित है। झारखंड में वामदलों की राजनीतिक गोलबंदी असरदार नहीं रह गयी है। झारखंड में शहीद महेंद सिंह की ईमानदारी, सादगी और किये गये जनसंघर्षों को माले जनता के बीच ले जाने में सक्रिय है। 16 जनवरी को जन योद्धा महेंद्र सिंह की कर्मभूमि गिरिडीह के बगोदर में उनके शहादत दिवस पर उमड़नेवाली हजारों-हजार की भीड़ से इस वामपंथी योद्धा की लोकप्रियता का अंदाजा लगाया जा सकता है।

    नयी पीढ़ी के जेहन से भाकपा नेताओं के आदर्श लुप्त हैं। आजादी के बाद भारत की संसदीय राजनीति में मार्क्सवाद-लेनिनवाद के सिद्धांत पर आधारित पार्टी भाकपा की अहम भूमिका रही है। 1925 में गठित भाकपा देश की पहले आम चुनाव में संसद में दूसरी बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। भारतीय जनता के बीच मार्क्सवादी सिद्धांत इस कदर लोकप्रिय हुआ कि 1957 के चुनाव में केरल राज्य में सरकार बनाने वाली भाकपा दुनिया का सबसे पहला वामपंथी दल बन गया। आजाद भारत में कम्युनिस्ट सिद्धांत लोगों के बीच आदर्श बन तेजी के साथ उभरा। 1964 में भाकपा दो फाड़ हो गयी। भाकपा से अलग हो कर माकपा का गठन हुआ। भाकपा के विभाजन से लाल झंडे की पार्टी और वापपंथी आंदोलन को एक बड़ा झटका लगा, जिसकी आज तक भरपाई नहीं हो पायी। वामपंथी दल कई गुटों में विभाजित होते चले गये। 1967 में माकपा भी टूटी। माकपा से विद्रोह कर अस्तित्व में आयी पार्टी को आज माओवादी कहा जाता है।

    नक्सलबाड़ी से किसान विद्रोह करते हुए इस गुट ने भारतीय सत्ता को चुनौती दी। समय-समय पर दो वामपंथी धाराएं भारतीय सत्ता को चुनौती देती रहीं। एक संसदीय राजनीति के माध्यम से तो दूसरा हथियार के जरिये। आज दोनों ही धाराएं धराशायी और कमजोर हैं। यह कहना सही होगा कि माकपा से विद्रोह कर अलग हुए माओवादी गुट ने ही भारत की संसदीय राजनीति में वामपंथी दलों की ताबूत में कील ठोंक दी। पश्चिम बंगाल की राजनीति में तो साफ देखा जा सकता है। यहां पैर जमाये वाम मोर्चा की जमीन किस तरह से छिन गयी। भाकपा को टूटे तीन ही साल हुए थे कि माकपा भी विभाजन की शिकार हुई, लेकिन माकपा दस सालों में ही अपने जमीनी संघर्ष की बदौलत मजबूती के साथ पश्चिम बंगाल की सत्ता पर काबिज होकर भारत की संसदीय राजनीति की मुख्य धारा में आ गयी।

    नये नेतृत्व ने सिंगूर और नंदीग्राम में किसानों की जमीन कौड़ी के भाव में कॉरपोरेट घराने को देने की पहल और औद्योगिक के नये प्रयोग ने वाममोर्चा को न केवल सत्ता से बेदखल कर दिया, बल्कि यह पार्टी आम जनता से दूर होती चली गयी। हालांकि सत्ता से बेदखल होने में नक्सलियों की अहम भूमिका रही। कड़े संघर्ष और बलिदान के बाद माकपा की जिस पीढ़ी ने सत्ता हासिल की थी, उसका बदलना भी एक बड़ा कारण है। सत्ता में आने के बाद जो कैडर जुड़े और दशकों तक सत्ता सुख के हिस्सेदार बने, उस पीढ़ी का संघर्ष से कोई वास्ता ही नहीं रहा। वामपंथी चिंतक भी कहते हैं कि वामदल के नेता और कार्यकर्ता भारतीय राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक यथार्थ को समझने को तैयार नहीं थे। बदलते समय के नब्ज को पकड़ पाने में वे पूरी तरह विफल रहे। नतीजा भारतीय संसदीय राजनीति का एक मजबूत स्तंभ हाशिये पर चला गया। कम्युनिस्टों ने समय-समय पर भारी राजनीतिक भूल की।

    वामपंथी चितंकों के मुताबिक चुनावी अवसरवाद और एकांगी हथियारबंद संघर्ष ने भारत में वामपंथियों को हाशिये पर डाल दिया है। जातीय और वर्ग के सवालों और उनके अंतरविरोधों को द्वंद्वात्मक तरीके से सुलझाने में वे असफल रहे हैं। स्याह सच यह है कि एक जमाने में बिहार के बेगूसराय को मास्को और मधुबनी को लेनिनग्राद के नाम से जाना जाता था। वहीं भोजपुर को माले का गढ़ कहा जाता था, लेकिन 1990 के बाद वामपंथी धारा उन धाराओं के साथ खड़ी होने लगी।

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