मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने अपने कार्यकाल के एक सौ दिनों के भीतर स्थानीय नीति को नये सिरे से परिभाषित करने के लिए बहुप्रतीक्षित कदम बढ़ा दिया है और इसके साथ ही झारखंड के स्थापना काल से चला आ रहा यह मुद्दा एक बार फिर चर्चाओं के केंद्र में आ गया है। झारखंड की यह बदनसीबी ही कही जायेगी कि स्थापना के दो दशक बाद भी इसकी अपनी सर्वमान्य स्थानीय नीति नहीं बन सकी है और इसलिए यह भी तय नहीं हो सका है कि असली झारखंडी कौन है। भारत के राजनीतिक इतिहास का यह पहला ऐसा राज्य है, जहां आज तक स्थानीय नीति की सर्वमान्य परिभाषा तय नहीं की जा सकी है। राज्य की स्थापना से लेकर आज तक इस बेहद संवेदनशील और महत्वपूर्ण मुद्दे पर केवल राजनीति ही हुई, जिसका परिणाम तो कुछ नहीं निकला, लेकिन आधा दर्जन लोगों की जान जरूर गयी। इसे झारखंड की विडंबना ही कही जायेगी कि जिनके लिए यह राज्य बना, उन्हें ही अपनी पहचान के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है, जबकि दूसरे लोग उनके हक-अधिकार पर कब्जा करते जा रहे हैं। हेमंत सोरेन ने इस मुद्दे का हल करने की दिशा में एक बार फिर पहल की है। इस फैसले के साथ ही उन्होंने झारखंड के सभी राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों के सामने एक बड़ी चुनौती भी पेश की है और यह चुनौती है इस राज्य को स्थानीय नीति के दलदल से बाहर निकालने की। क्या हेमंत सोरेन की इस चुनौती को दूसरे राजनीतिक दल स्वीकार करेंगे और इसका परिणाम क्या होगा, इस पर आजाद सिपाही पॉलिटकल ब्यूरो की खास पेशकश।
17 मार्च, 2020 को झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार ने एक बड़ा फैसला लिया। यह फैसला था राज्य की स्थानीय नीति को नये सिरे से तय करने के लिए समिति बनाने का। इस फैसले की कहानी आज से 18 साल पहले शुरू हुई थी, जब 2002 में राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने झारखंड की स्थानीय नीति को तय करते हुए कहा कि इसका आधार 1932 में तैयार खतियान होगा। इसकी बेहद तीखी प्रतिक्रिया हुई और राज्य भर में हिंसक आंदोलन हुए। 24 जुलाई, 2002 को आधा दर्जन से अधिक लोगों की जान चली गयी और सैकड़ों घायल हुए। डोमिसाइल आंदोलन के नाम से चर्चित उस आंदोलन में अरबों की संपत्ति जल कर राख हो गयी और झारखंड के समाज में एक कभी न मिटनेवाली विभाजक रेखा खिंच गयी। डोमिसाइल आंदोलन के घाव की टीस आज भी झारखंड महसूस करता है। उस डोमिसाइल नीति के कारण बाबूलाल मरांडी की छवि झारखंड के गैर-आदिवासियों के बीच ऐसी बनी, जिससे उनका राजनीतिक कैरियर ही दांव पर लग गया, सरकार गिर गयी, सो अलग।
बाबूलाल मरांडी की सरकार गिरने के साथ ही डोमिसाइल का मुद्दा ठंडा पड़ने लगा, लेकिन राजनीतिक दलों ने इसकी संवेदनशीलता को पहचान लिया था। तब से लेकर 2016 तक विधानसभा के हर सत्र में यह मुद्दा उठता रहा। सभी राजनीतिक दलों के लिए स्थानीयता या डोमिसाइल एक ऐसा मुद्दा बन गया, जिसके सहारे उनकी राजनीति चलती रही।
खूब होती रही राजनीति
राजनीतिक दलों के इस द्वंद्व के बीच झारखंड का आम जन मानस अपनी पहचान के लिए तरसता रहा। जिनके हितों के लिए झारखंड बना था, वे अपने ही घर में बेगाने से होने लगे और बाहर से आये लोग उनके अधिकारों पर कब्जा करते रहे। बेबस झारखंडी अपने सामने ही लुट रहे थे और राजनीतिक दल इस पीड़ा को वोट के रूप में बदल कर अपनी पीठ थपथपा रहे थे। सरकारें बनती रहीं और गिरती रहीं, लेकिन इस संवेदनशील मुद्दे पर केवल राजनीति होती रही।
दूसरी बार भी आदिवासियों के साथ छल!
वर्ष 2014 में जब रघुवर दास के नेतृत्व में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी, तो उसने स्थानीय नीति को परिभाषित किया। उस नीति के अनुसार 1986 से पहले इस इलाके में आनेवाले लोगों को झारखंड का स्थायी निवासी माना गया। लेकिन यह नीति झारखंड के उस समाज को अस्वीकार थी, जिसके लिए यह राज्य बना था। इसलिए इसका भी विरोध हुआ और परिणाम यह हुआ कि यह नीति भी कारगर ढंग से लागू नहीं हो सकी। सात अप्रैल, 2016 को कैबिनेट से मंजूरी मिलने के बाद 16 अप्रैल को यह नीति प्रभाव में आयी, लेकिन इसने पहले से ही विवादों में घिरे इस मुद्दे को और विवादित बना दिया।
क्या रही विवाद की वजह
2016 में लागू की गयी स्थानीयता नीति को लेकर सबसे बड़ा विवाद इसके कट आॅफ डेट को लेकर था। इसका कट आॅफ डेट एक जनवरी, 1986 रखा गया था। यानी इस तारीख तक जो भी झारखंड में आया, उसे झारखंडी माना जाना था। इसका आदिवासी समाज ने पुरजोर विरोध किया। उसका कहना था कि इसका सीधा मतलब यही है कि झारखंड के मूल निवासी, जो सैकड़ों-हजारों साल से इस इलाके में रह रहे हैं, उनके अधिकार पर कुठाराघात। स्वाभाविक तौर पर इसका विरोध हुआ और 2019 के विधानसभा चुनाव में यह एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना रहा। आदिवासियों ने इस नीति को अपने हितों के प्रतिकूल समझा और इसका परिणाम यह हुआ कि भाजपा की सरकार को उन्होंने सत्ता से उखाड़ फेंका।
क्यों नहीं सुलझ रहा है मामला
झारखंड में स्थानीयता की सर्वमान्य परिभाषा आज तक तय नहीं हो सकी है। इसका मूल कारण यह है कि खनिज संपदा से भरपूर इस प्रदेश का देश के दूसरे हिस्से के लोगों ने भरपूर दोहन किया। झारखंडियों के प्रकृति प्रेम की परंपरा को हाशिये पर डाल दिया गया। बाहर से आये लोगों ने यहां के स्वच्छंद और सरल जनजीवन को यहीं के लिए अपरिचित बना दिया। रोजी-रोजगार और उद्योग-धंधों से झारखंडी दूर होते गये। जल-जंगल-जमीन से उन्हें काट दिया गया।
विस्थापन और पलायन जैसी समस्याएं झारखंडियों के लिए आम हो गयीं और आबादी का यह हिस्सा अपने ही घर में अपरिचित होता गया। जब अलग राज्य बना, तब उनके लिए उनकी पहचान स्थापित करने की राजनीतिक कोशिश हुई। और यहीं बड़ी गलती हो गयी। राजनीतिक दलों ने इस मुद्दे को अपने-अपने चश्मे से देखना शुरू किया और स्थानीयता की परिभाषा पर वोट की खेती होने लगी।
हेमंत सोरेन पर है उम्मीदों का बोझ
2019 के विधानसभा चुनाव में ऐतिहासिक जीत हासिल करने के बाद सत्ता में आये हेमंत सोरेन के लिए स्थानीयता एक अहम मुद्दा है। यह मुद्दा जहां उनकी पहचान और परंपराओं से जुड़ा हुआ है, वहीं झारखंड के करीब एक करोड़ आदिवासियों की उम्मीद भी उन पर टिकी हुई है। इतना ही नहीं, बाहर से आकर इस इलाके को अपना बना चुके लोगों की उम्मीदों का बोझ भी हेमंत सोरेन ढो रहे हैं। उन्होंने स्थानीयता को नये सिरे से परिभाषित करने का जो फैसला किया है, वह उनकी राजनीतिक इच्छाशक्ति और चुनाव में जनता से किये गये वायदे का परिचायक है। उन्होंने यह फैसला कर इस मुद्दे को राजनीति के चंगुल से निकाल कर समाज के सामने रखा है। अब यह सभी राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों के सामने एक चुनौती है कि वे झारखंड की पहचान का सर्वमान्य फॉर्मूला निकाल कर इस प्रदेश को विकास के रास्ते पर आगे ले जाने में कंधे से कंधा मिला कर काम करें।