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    Home»Jharkhand Top News»लुइस मरांडी के लिए कांटे ही कांटे हैं दुमका में
    Jharkhand Top News

    लुइस मरांडी के लिए कांटे ही कांटे हैं दुमका में

    azad sipahi deskBy azad sipahi deskOctober 15, 2020Updated:October 23, 2020No Comments6 Mins Read
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    दुमका के दंगल में उतर कर डॉ लुइस मरांडी ने जिस जोश और उत्साह का मुजाहिरा किया है, वह यह साबित करने के लिए काफी है कि वह यह चुनाव किसी अंडरडॉग की तरह लड़नेवाली नहीं हैं। लेकिन वह जानती हैं कि दुमका का उप चुनाव उनके चार दशक लंबे राजनीतिक कैरियर का संभवत: सबसे कठिन चुनाव साबित होनेवाला है, क्योंकि इस बार उनका मुकाबला एक ऐसे प्रतिद्वंद्वी से है, जिस पर वार करने के लिए उनके तरकश में बहुत अधिक तीर नहीं है। शायद इसलिए उन्होंने नामांकन भरने के बाद कहा कि यह नामांकन उन्होंने नहीं, बल्कि दुमका की जनता ने भरा है। इस बार लुइस मरांडी ऐसे मुकाबले में उतरी हैं, जो न केवल उनके राजनीतिक कैरियर के लिए निर्णायक होगा, बल्कि उनकी पार्टी भाजपा के कई नेताओं का भी भविष्य तय करेगा। इससे पहले दिसंबर में जब लुइस मरांडी यहां से चुनाव लड़ रही थीं, तब वह सरकार में मंत्री थीं। शासन-प्रशासन उनका था, फिर भी वह हेमंत सोरेन के हाथों चुनाव हार गयी थीं। आज भी उनके लिए मुश्किल यह है कि 10 महीने में परिस्थितियां बहुत अधिक नहीं बदली हैं कि वह झामुमो के खिलाफ एंटीइनकमबेंसी रूपी हथियार का प्रभावी इस्तेमाल कर सकें। इसलिए उन्होंने पहले कदम से ही दुमका के साथ भावनात्मक रिश्ता स्थापित करने का प्रयास किया है। लुइस की मुश्किलें यहीं खत्म नहीं होतीं, बल्कि उन्हें अपने घर के अंदर बह रही विरोध की धारा को भी रोकना होगा, ताकि उसकी धमक बाहर नहीं सुनाई दे। दुमका के दंगल में लुइस मरांडी के सामने पेश होनेवाली चुनौतियों का विश्लेषण करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

    दुमका विधानसभा सीट के लिए होनेवाले उप चुनाव में उतरते हुए भाजपा की प्रत्याशी डॉ लुइस मरांडी ने जब कहा कि यह नामांकन उन्होंने नहीं, बल्कि दुमका की जनता ने भरा है, तो इसके साथ ही साफ हो गया कि वह इस चुनाव को कौन सी दिशा देना चाहती हैं। नामांकन भरने के बाद उन्होंने दुमका की जनता से भावनात्मक रिश्ता कायम करने की कोशिश की और कहा है कि इस चुनाव में दुमका की जनता अपने साथ हुए छल का जवाब देगी। लुइस मरांडी के इस बयान से साफ हो गया है कि वह यह चुनाव ठोस मुद्दों की पिच पर नहीं, बल्कि भावनाओं की रेतीली जमीन पर लड़नेवाली हैं। शायद इसीलिए उन्होंने इस चुनाव को ‘दुमका की बेटी बनाम नेता का बेटा’ की संज्ञा दी है।
    जहां तक चुनावी प्रदर्शन की बात है, तो लुइस मरांडी के लिए चुनाव मैदान में उतरने का यह चौथा मौका है। दो बार उन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ा है और एक बार उन्हें दुमका के मतदाताओं का आशीर्वाद मिला है। लेकिन 2014 से 2019 के बीच के अपने कार्यकाल के दौरान लुइस मरांडी ने दुमका के लिए क्या किया, यह 10 महीने पहले हुए चुनाव में साबित हो चुका है, जब उन्हें जनता ने खारिज कर दिया था। पिछले चुनाव में उनकी पराजय का एक मुख्य कारण स्थानीय स्तर पर पर्याप्त समर्थन नहीं मिलना था। दुमका में भाजपा की स्थानीय राजनीति में लुइस मरांडी को आज भी पर्याप्त समर्थन नहीं मिल रहा है। यह बात दुमका और गोड्डा के सांसदों की नामांकन में अनुपस्थिति से साबित होती है। इसलिए लुइस मरांडी को यह मान लेना चाहिए कि इस चुनावी वैतरणी को उन्हें अपने राजनीतिक कौशल और प्रदेश स्तरीय नेताओं के समर्थन से ही पार करना है। और प्रदेश स्तरीय नेताओं की भी राह अलग-अलग है।
    इस बार दुमका में केवल लुइस मरांडी के राजनीतिक भविष्य का फैसला नहीं होगा, बल्कि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दीपक प्रकाश के नेतृत्व और लंबे समय बाद पार्टी में लौटे बाबूलाल मरांडी की स्वीकार्यता की भी परीक्षा होगी। परीक्षा अभी-अभी भाजपा के राष्टÑीय उपाध्यक्ष बने रघुवर दास की भी होगी, जो तीन दिन तक दुमका में कैंप करके लौटे हैं। बता दें कि बाबूलाल मरांडी दुमका के सांसद रह चुके हैं और आज की तारीख में भाजपा के भीतर सबसे बड़े आदिवासी नेता हैं। दुमका के मतदाताओं में उनकी कितनी पैठ बची हुई है, यह भी इस चुनाव में तय हो जायेगा। इस तरह लुइस मरांडी के सामने भाजपा के दरक चुके गढ़ को बचाने की भी चुनौती है। पिछले साल मई में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने दुमका सीट जीती थी और उस समय सभी विधानसभा क्षेत्रों में उसे अच्छी-खासी बढ़त हासिल हुई थी। लेकिन छह महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में बाजी पलट गयी। इससे साफ हो जाता है कि दुमका के मतदाताओं के बीच भाजपा का जनाधार कम हुआ है। वैसे भी विधानसभा चुनाव हारने के बाद से लुइस मरांडी की आम जनता में मौजूदगी कम ही ही देखी गयी, हालांकि कोरोना संकट के दौरान उन्होंने बहुत से लोगों की मदद की है।
    इसके बाद लुइस मरांडी की सबसे कठिन चुनौती यह होगी कि वह अपने प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ मतदाताओं को कुछ बोल भी नहीं सकती हैं, क्योंकि झामुमो ने जिस बसंत सोरेन को मैदान में उतारा है, उनका यह पहला चुनाव है। लुइस मरांडी के साथ भाजपा के सामने मुद्दों की कमी का संकट भी है। यदि भाजपा एंटी इनकमबेंसी की बात करती है, तो फिर वह खुद सवालों के घेरे में आ सकती है, क्योंकि अभी तक इस सरकार का कोई काम इतना विवादित नहीं हुआ है। तब लुइस मरांडी के पास एकमात्र विकल्प यही बचता है कि वह भावनाओं का कार्ड खेलें। दुमका और संथाल की पहचान के साथ खुद को जोड़ कर वह मतदाताओं के दिलों में पहुंच सकती हैं। लेकिन इसमें मुश्किल यह है कि उन्हें अपनी पार्टी के स्थानीय कार्यकर्ताओं का भरपूर समर्थन चाहिए, जो अब तक के संकेतों के अनुसार उनके साथ नहीं है। ऐसे में लुइस मरांडी चुनाव आते-आते स्थानीय कार्यकर्ताओं को अपने पक्ष में काम करने के लिए कितना तैयार कर पाती हैं, यह देखनेवाली बात होगी।
    कुल मिला कर लुइस मरांडी ने दुमका के दंगल को रोमांचक तो बना ही दिया है। वह जानती हैं कि यह चुनाव उनके राजनीतिक कैरियर के लिए निर्णायक है। इसलिए वह अभी से ही जी-जान से जुट गयी हैं। दुमका उनका कार्यक्षेत्र रहा है और यहां के मन-मिजाज को भांपना उनके लिए बहुत मुश्किल नहीं है। लेकिन दिसंबर के चुनाव का अनुभव उनके लिए बड़ा सवाल बन कर सामने खड़ा है। उस हार का बोझ वह जितनी जल्दी उतार कर फेंक देंगी, उनका चुनावी सफर उतना ही आसान हो जायेगा। अब देखना यह है कि दुमका के दंगल में लुइस मरांडी इस बार क्या कमाल दिखाती हैं।

    There are thorns for Luis Marandi in Dumka
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