झारखंड पिछले तीन दिन से गंभीर संकट में फंस गया है। यह संकट भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा उसके खाते से 1417.50 करोड़ रुपये काट लेने के कारण पैदा हुआ है। केंद्र सरकार के निर्देश पर की गयी इस एकतरफा कार्रवाई से झारखंड ही नहीं, देश के दूसरे राज्य भी सकते में हैं, क्योंकि इस कार्रवाई ने गलत परंपरा की नींव डाल दी है। देश की आजादी के बाद यह दूसरा मौका है, जब किसी राज्य के खाते से बिना उसकी जानकारी के रकम काट ली गयी है। यह रकम डीवीसी के बकाये की पहली किस्त है और ऐसी तीन किस्तें अभी काटी जायेंगी। यानी झारखंड के सामने यह संकट अगले साल जुलाई तक बना रहेगा। झारखंड ने जब इस कार्रवाई का विरोध किया, तो उसे कर्ज लेने का सुझाव दिया गया। यह सुझाव झारखंड ने नामंजूर कर दिया है और अब उसने केंद्र पर अपने बकाये के भुगतान की मांग रख दी है। केंद्र सरकार पर झारखंड का 74.5 हजार करोड़ रुपये बाकी हैं। इसमें अकेले जीएसटी का ही 2982 करोड़ है। रिजर्व बैंक की कार्रवाई से पैदा हुए इस संकट में यदि झारखंड अपने बकाये की वसूली के लिए सख्त कदम उठा ले, तो फिर देश की संघीय व्यवस्था ही खतरे में पड़ जायेगी। रिजर्व बैंक की कार्रवाई और झारखंड के सामने मौजूद विकल्पों पर आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
कोरोना काल से पैदा हुए आर्थिक संकट के दौर में झारखंड सरकार को करारा झटका लगा है। यह झटका राज्य सरकार की किसी गलती के कारण नहीं लगा है, बल्कि केंद्र के निर्देश पर भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा की गयी एकतरफा कार्र्रवाई से लगा है। केंद्र सरकार के निर्देश पर रिजर्व बैंक ने झारखंड सरकार के खाते से 1417.50 करोड़ रुपये काट कर डीवीसी को दे दिये हैं, जो केंद्र सरकार का उपक्रम है। यह पहली किस्त है और यदि झारखंड ने जनवरी, अप्रैल और जुलाई में इतनी रकम का भुगतान नहीं किया, तो रिजर्व बैंक फिर इसी तरह रकम काट लेगा।
इस पूरे मामले का दूसरा पहलू यह है कि झारखंड का केंद्र सरकार और उसके विभिन्न उपक्रमों पर कुल 74 हजार 582 करोड़ रुपये बकाया है। इसमें से अकेले जीएसटी का 2982 करोड़ रुपये शामिल हैं। इसके अलावा खनिज रॉयल्टी के रूप में कोल इंडिया और सेल पर 38 हजार छह सौ करोड़ और कोयला कंपनियों पर लगान के रूप में 33 हजार करोड़ रुपये बकाया हैं। इस बकाये के भुगतान के लिए केंद्र सरकार कोई कदम नहीं उठा रही है, लेकिन अपने एक उपक्रम का बकाया वसूलने के लिए बिना किसी जानकारी के झारखंड को संकट में डाल चुकी है।
भारतीय रिजर्व बैंक की इस कार्रवाई ने एक ऐसी परंपरा की नींव डाल दी है, जिसका आगे चल कर देश की संघीय व्यवस्था के ढांचे पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। इतना ही नहीं, इस कार्रवाई ने उन राज्यों को सकते में डाल दिया है, जहां विरोधी दलों का शासन है। वैसे कहा जा रहा है कि इस फैसले का सियासत से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी आ गयी थी कि देश की आजादी के बाद दूसरी बार केंद्र ने अपने इस अधिकार का इस्तेमाल उस राज्य के खिलाफ किया, जहां से देश की खनिज जरूरतों का 60 फीसदी हिस्सा जाता है।
स्वाभाविक तौर पर केंद्र की इस कार्रवाई के खिलाफ झारखंड में गुस्सा है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और उनकी पार्टी राज्य में आर्थिक नाकेबंदी की चेतावनी दे चुकी है। हेमंत ने तो साफ कर दिया है कि वह झारखंड के हक की भीख नहीं मांगेंगे, बल्कि लड़ कर इसे हासिल करेंगे। इस तरह यह मुद्दा अब धीरे-धीरे सियासत की जमीन पर उतरता जा रहा है। पिछले 10 महीने में हेमंत सोरेन ने पहली बार सीधे केंद्र के खिलाफ मोर्चा खोला है और उनका निशाना सही जगह पर लगा है।
दिसंबर में जब हेमंत ने सत्ता संभाली थी, तब उन्होंने साफ कर दिया था कि वह केंद्र से टकराव की स्थिति पैदा नहीं करेंगे, बल्कि झारखंड के विकास के लिए मिल कर काम करेंगे। बाद में भी उन्होंने अपना यही इरादा दोहराया और यह कहना गलत नहीं होगा कि वह कमोबेश अपने इरादे पर कायम रहे। लेकिन पहले मार्च में डीवीसी ने तीन दिन के लिए झारखंड की बिजली काट दी, फिर बिना राज्य के परामर्श के कोयला खदानों को नीलामी पर चढ़ा दिया गया और भारतमाला समेत दूसरी बड़ी योजनाओं से झारखंड को अलग रखा गया। इन कदमों से साफ हो गया कि झारखंड की विकास यात्रा में जानंबूझ कर रोड़े अटकाये जा रहे हैं।
कोरोना संकट के इस दौर में झारखंड को केंद्र से क्या मिला और क्या नहीं मिला, इस पर विवाद हो सकता है, लेकिन एक बात तय है कि झारखंड आज हर चीज का मोहताज हो गया है। इसका खजाना पूरी तरह खाली है। इसके पास वेतन और पेंशन देने तक के पैसे नहीं हैं। केंद्र सरकार से मदद की बात तो दूर, जबरन पैसा काट लिया जा रहा है।
रिजर्व बैंक की कार्रवाई के बाद अपनी प्रतिक्रिया में हेमंत ने एक बड़ा सवाल यह खड़ा किया है कि आखिर झारखंड के साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया जा रहा है। जो राज्य पूरे देश को कोयला और दूसरे खनिज पदार्थ देता है, उसके साथ यह सौतेला व्यवहार क्यों हो रहा है। हेमंत के ये सवाल वाजिब हैं और एक मुख्यमंत्री होने के नाते उन्होंने केवल राज्य के हक की बात की है। आज हेमंत बेबस हैं। उनके तेवर सख्त हैं, क्योंकि अब पानी सिर के ऊपर से गुजरने लगा है।
इस बात में कोई संदेह नहीं कि अपनी बेशुमार खनिज संपदाओं के कारण चर्चित झारखंड को केंद्र का मजबूत समर्थन चाहिए। हेमंत सरकार अपनी पूरी ताकत और हर उपलब्ध संसाधन का इस्तेमाल कर रही है, लेकिन नये संकट पैदा कर उसकी राह में बाधाएं खड़ी की जा रही हैं। ऐसे में झारखंड यदि सीधे-सीधे टकराव पर उतर जाये, तो पूरे देश की बत्ती गुल हो जायेगी। इतना ही नहीं, देश का पहिया ही थम जायेगा। इसलिए केंद्र को समझना होगा कि किसी भी राज्य की माली हालत को सुधारना अकेले राज्य के वश की बात नहीं है। यह सही है कि राजनीति अलग है और शासन अलग। दोनों को यदि मिला दिया जायेगा, तो इससे केवल नुकसान ही होगा। और यह नुकसान हेमंत सोरेन को कम होगा, क्योंकि उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं है। वह जो भी हासिल करेंगे, वह उनका लाभ ही होगा। नुकसान तो उसका होगा, जो झारखंड को इस हालत में पहुंचाने के लिए जिम्मेवार है। हेमंत को फेल होने का डर नहीं है।