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    Home»Jharkhand Top News»क्यों कतरा जा रहा पिंजरे में बंद तोते का पर!
    Jharkhand Top News

    क्यों कतरा जा रहा पिंजरे में बंद तोते का पर!

    azad sipahi deskBy azad sipahi deskNovember 7, 2020No Comments5 Mins Read
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    झारखंड सरकार ने देश की प्रतिष्ठित जांच एजेंसी सीबीआइ को बगैर अनुमति राज्य में किसी भी मामले की जांच करने पर रोक लगा दी है। ऐसा करनेवाला झारखंड सातवां राज्य है, लेकिन इस फैसले के साथ एक गंभीर सवाल यह पैदा हो गया है कि क्या भारतीय संघवाद की अवधारणा एक-एक कर बिखर रही है। केंद्र और राज्यों के रिश्तों की बुनियाद पर खड़ी भारतीय संघ की परिकल्पना को कौन कमजोर बना रहा है। निश्चित रूप से विपक्ष की तरफ से इसकी पूरी जिम्मेवारी केंद्र सरकार पर थोपी जा रही है और सीबीआइ जैसे संगठन के दुरुपयोग और इसके राजनीतिकरण का आरोप भी चस्पां हो रहा है। इसलिए सीबीआइ के बहाने ही सही, एक बार फिर केंद्र और राज्यों के बीच के संबंधों पर नये सिरे से विचार करने की जरूरत आ गयी है। यदि इस बारे में तत्काल पहल नहीं की गयी, तो सब कुछ खत्म हो जायेगा और तीन दशक पहले दुनिया की महाशक्ति के रूप में प्रख्यात सोवियत संघ के बिखराव का खतरा मंडराने लगेगा। आखिर इस रिश्ते की डोर में इतनी गांठें कहां और किस वजह से पड़ गयीं। यह एक ऐसा सवाल दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र के सामने पैदा हो गया है, जिसका जवाब खोजना अब अनिवार्य हो गया है। झारखंड सरकार द्वारा सीबीआइ पर लगाम लगाये जाने के फैसले की पृष्ठभूमि में केंद्र और राज्यों के बीच तल्ख होते रिश्तों और इसके संभावित परिणामों का विश्लेषण करती आजाद सिपाही ब्यूरो की रिपोर्ट।

    देश की सर्वश्रेष्ठ और सबसे विश्वसनीय जांच एजेंसी के रूप में स्थापित सीबीआइ के लिए झारखंड के दरवाजे बंद हो गये हैं। झारखंड सरकार ने कहा है कि बिना उसकी या अदालत की इजाजत के सीबीआइ अब राज्य में किसी मामले की जांच नहीं कर सकती है। यह फैसला जितना राजनीतिक है, उससे कहीं अधिक प्रशासनिक और केंद्र के साथ राज्यों के तल्ख होते रिश्तों का परिचायक है। सीबीआइ पर लगाम लगानेवाला झारखंड देश का सातवां राज्य है। इससे पहले आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, केरल, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ ने अपने राज्यों में सीबीआइ की इंट्री पर प्रतिबंध लगाया है। यहां सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि आखिर इन राज्य सरकारों ने इतना सख्त फैसला क्यों किया। इस सवाल का जवाब तलाशने से पहले नौ मई, 2013 को सुप्रीम कोर्ट की उस टिप्पणी पर ध्यान दिये जाने की जरूरत है, जिसमें उसने सीबीआइ को ‘पिंजरे में बंद तोता’ कहा था। सर्वोच्च अदालत ने कोल ब्लॉक आवंटन घोटाला मामले की सुनवाई करते हुए कहा था कि सीबीआइ पिंजरे में बंद ऐसा तोता बन गयी है, जो अपने मालिक की बोली बोलता है। यह ऐसी अनैतिक कहानी है, जिसमें एक तोते के कई मालिक हैं। अदालत ने सीबीआइ को बाहरी प्रभावों और दखल से मुक्त करने के लिए सरकार से कानून बनाने को भी कहा था। उसने कहा कि सीबीआइ को सभी दबावों से निपटना आना चाहिए। अदालत इतने पर ही नहीं रुकी। उसने सीबीआइ अधिकारियों से कहा था, ‘आप इतने संवेदनशील मामले में भी अपने दिमाग का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने आपको 15 साल पहले (विनीत नारायण मामले में) ताकतवर बनाया था। आपको खुद को चट्टान की तरह सख्त बनाना चाहिए, लेकिन आप रेत की तरह भुरभुरे हैं। हम बहुत प्रोफेशनल, बहुत उच्च कोटि की और बेहद सटीक जांच चाहते हैं।’
    सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी वर्तमान स्थिति के संदर्भ में एकदम सटीक प्रतीत होती है। आज सीबीआइ का इस्तेमाल कहां और कैसे होता है, यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में यह स्वाभाविक लगता है कि राज्यों में विरोधी दलों की सरकारें ऐसा ही कुछ फैसला लेंगी।
    लेकिन राजनीति से अलग हट कर देखा जाये, तो यह भारतीय संघ के लिए किसी गंभीर संकट का संकेत है। केंद्र और राज्यों के बीच जिस मजबूत रिश्ते की परिकल्पना हमारे संविधान निर्माताओं ने की थी, यह उसे तार-तार किये जाने का प्रमाण है। और इसकी पूरी जिम्मेवारी केंद्र के कंधे पर ही है, क्योंकि देश को चलाने की जिम्मेवारी उसकी होती है। यह स्थापित सत्य है कि परिवार का मुखिया अपना पेट सबसे अंत में भरता है। इसके साथ ही परिवार के अन्य सदस्यों से जिम्मेदारी पूर्ण व्यवहार उसका अधिकार होता है। परिवार का कोई सदस्य यदि अपनी जिम्मेवारी नहीं निभाता है, तो उसके प्रति कड़ा रुख अख्तियार करना भी मुखिया का अधिकार होता है। ऐसा लगता है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र इस स्थापित अवधारणा के विपरीत रास्ते पर चल पड़ा है, जिसके खतरनाक परिणामों के प्रति भी वह लापरवाह हो गया है। केंद्र और राज्य की हर समस्या को राजनीति के चश्मे से देखना कहीं से भी उचित नहीं हो सकता। इसलिए आज जो संकट खड़ा हुआ है, उसे दूर करने की पहल केंद्र को ही करनी होगी।
    जहां तक झारखंड का सवाल है, तो दिसंबर में नयी सरकार के सत्ता में आने के बाद से इसके रास्ते में जो रोड़े अटकाये गये, उससे इसका केंद्र के प्रति नजरिये का बदलना स्वाभाविक था। जो राज्य अपनी खनिज संपदा के बलबूते पूरे देश की अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने की ताकत रखता हो, उसे हर कदम पर घुटने टेकने पर मजबूर करना कहीं से उचित नहीं कहा जा सकता।
    इसके बाद सीबीआइ जैसी संस्था के भीतर का विवाद भी इसकी साख को संकट में डालता रहा। इसके अधिकारी जिस तरह खुद को विवादों में लाते रहे और सार्वजनिक रूप से एक-दूसरे की टांग खींचने में लगे रहे, उसने इस संस्था की विश्वसनीयता को गंभीर चोट पहुंचायी है। अब भी देर नहीं हुई है। केंद्र और राज्यों के बीच रिश्तों की डोर में जो गांठें पड़ गयी हैं, उन्हें खोलने की पहल तत्काल शुरू किये जाने की जरूरत है। रहीम ने हालांकि कहा है कि रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय, टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाये, लेकिन सभी को यह समझना चाहिए कि धागा अभी टूटा नहीं है, सिर्फ उलझा है और इसे सुलझाया जा सकता है। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो तीन दशक पहले केवल एक गलत नीति के कारण सोवियत संघ के बिखराव का उदाहरण हमारे सामने मौजूद है, जो महाशक्ति होते हुए भी एक झटके में छिन्न-भिन्न हो गया। भारत के लिए यह एक दु:स्वप्न ही होगा।

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