झारखंड की सियासत एक बार फिर गरमा गयी है। इस बार मुद्दा आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड बना है। राज्य में सत्तारूढ़ झामुमो ने इस मुद्दे पर अपना स्टैंड साफ करते हुए इस मांग का समर्थन किया है और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इसके लिए विधानसभा का विशेष सत्र भी बुलाया है। कांग्रेस का इसमें पूरा समर्थन है। लेकिन सबसे आश्चर्यजनक लगती है भाजपा की चुप्पी। कोर कमेटी की बैठक तो हुई, लेकिन उसमें भाजपा ने अपने स्टैंड के पत्ते नहीं खोले। हालांकि पूर्व में भाजपा सरना धर्म कोड की हिमायती थी। लेकिन फिलहाल घोषित तौर पर वह इस मुद्दे पर अपना स्टैंड साफ नहीं कर रही है। वहीं कुछ लोग इसे सरना और आदिवासी शब्द के बीच विवाद पैदा कर पेंचीदा बनाने की कोशिश में हैं। दरअसल ऐसा करने के पीछे उन लोगों का राजनीतिक उद्देश्य है हेमंत सोरेन की घेराबंदी। झारखंड में पूर्ण बहुमत हासिल कर सत्ता हासिल करनेवाले पहले गैर-भाजपाई मुख्यमंत्री बननेवाले हेमंत सोरेन का सरना धर्म कोड पर ठोस रुख उनके विरोधियों को पच नहीं रहा है, क्योंकि यदि यह मुद्दा सुलझ गया, तो हेमंत आदिवासियों के सबसे बड़े नेता के रूप में स्थापित हो जायेंगे, जो उनके विरोधियों को किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं होगा। इसलिए वे इस मुद्दे को उलझाये रखना चाहते हैं। झारखंड में सरना धर्म कोड को लेकर छिड़ी सियासत पर आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
झारखंड का सियासी माहौल इन दिनों सरना धर्म कोड के मुद्दे पर लगातार गरम हो रहा है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इस मुद्दे पर विचार करने और 2021 की जनगणना में सरना धर्मावलंबियों के लिए अलग कोड देने की सिफारिश का प्रस्ताव पास करने के लिए विधानसभा का विशेष सत्र भी आहूत किया है। 11 नवंबर को होनेवाले इस विशेष सत्र के दौरान इस प्रस्ताव पर भाजपा का क्या स्टैंड होगा, यह तो उसी दिन पता चलेगा, लेकिन अभी इस मुद्दे पर जो सियासत हो रही है, उससे साफ हो गया है कि हेमंत सोरेन की यह सार्थक पहल विरोधियों को पच नहीं रही है।
अलग सरना धर्म कोड की मांग बहुत पुरानी है। सरना धर्मावलंबी मांग कर रहे हैं कि अगले साल होनेवाली जनगणना में सरना धर्म का अलग कोड बनाया जाये, ताकि इस धर्म को माननेवाले लोगों की संख्या का सही पता चल सके। उनकी यह मांग अनुचित भी नहीं है। यह मांग दरअसल आदिवासियों की सांस्कृतिक पहचान स्थापित करने के लिए है, जिसे किसी साजिश के तहत खत्म करने की कोशिश 1961 में की गयी। ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि 1951 की जनगणना के समय सरना धर्म को लेकर अलग कोड था, लेकिन 1961 में इसे हटा दिया गया। दरअसल जनगणना के समय जो प्रपत्र भरा जाता है, उसमें एक कॉलम धर्म का होता है। 1951 तक इस प्रपत्र में अन्य धर्मों के साथ सरना का भी उल्लेख था। 1961 में इस कॉलम में केवल सात धर्म रखे गये। इनमें हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई, जैन, बौद्ध और पारसी शामिल हैं। सरना धर्मावलंबियों को हिंदू बताया गया और इस तरह प्रकृति पर आधारित इस धर्म के अस्तित्व को सरकारी दस्तावेज में खत्म कर दिया गया। सरना धर्म के लिए आंदोलन करनेवालों का दावा है कि 2011 में हुई जनगणना में देश भर के करीब 50 लाख लोगों ने खुद को सरना धर्मावलंबी बताया था। इसलिए अगले साल होनेवाली जनगणना में सरना को अलग धर्म का दर्जा दिया जाये और प्रपत्र में इसकी व्यवस्था की जाये।
सरना धर्म कोड की मांग का समर्थन पूर्व में सभी राजनीतिक दल प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से कर चुके हैं, लेकिन अब जब इस मुद्दे के सुलझने का समय आया है, एक-एक कर दलों की हकीकत सामने आ रही है। झारखंड में सत्ता पक्ष तो अपना स्टैंड साफ कर चुका है, लेकिन भाजपा की चुप्पी अजीब लगती है। कुछ महीने पहले ही भाजपा का दामन थामनेवाले और मांडर से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़नेवाले देवकुमार धान वकालत कर रहे हैं कि विधानसभा में जो प्रस्ताव लाया जा रहा है, उसे सरना धर्म कोड नहीं, बल्कि आदिवासी धर्मकोड लिखा जाये। यही स्टैंड गीताश्री उरांव का भी है, जबकि बंधु तिर्की, बंधन तिग्गा सहित तमाम आदिवासी नेता चाहते हैं कि प्रस्ताव सरना धर्म कोड पर पास हो। देवकुमार धान, गीताश्री उरांव का खेमा अपनी बात के समर्थन में तरह-तरह की दलीलें दे रहा है, जबकि इतिहास गवाह है कि कार्तिक उरांव और टी मुचिराय मुंडा जैसे उसके नेता सरना धर्म कोड का समर्थन कर चुके हैं। इतना ज्वलंत मुद्दे पर भाजपा का स्टैंड सामने नहीं आना, आदिवासियों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है। ऐसा तब है, जब एक साल पहले केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और फिर तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुवर दास ने सरना धर्म कोड को लागू करने की पुरजोर वकालत की थी।
ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि अब, जब हेमंत सोरेन ने इस मुद्दे को सुलझाने के लिए पहली बार ठोस कदम बढ़ाया है, तो उन्हें रोकने की कोशिश कतिपय नेताओं द्वारा क्यों हो रही है। दरअसल इसके पीछे की पूरी राजनीति केवल वोट बैंक को ध्यान में रख कर हो रही है। राजनीतिक दलों को पता है कि यह मुद्दा इतना संवेदनशील हो चुका है कि चुनाव में इसे भुनाना आसान हो गया है। दूसरा कारण यह है कि यदि सरना धर्म कोड को शामिल करने का प्रस्ताव पास हो गया, तो हेमंत सोरेन आदिवासियों के सबसे बड़े हितैषी के रूप में स्थापित हो जायेंगे, जो दूसरी पार्टियों के लिए खतरे की घंटी होगी। इसलिए उन्हें रोकने का सबसे आसान तरीका यह है कि इस मुद्दे को इसी तरह उलझा कर रखा जाये। ये राजनीतिक दल यह भी समझ चुके हैं कि तीर अब कमान से निकल चुका है और वह किसी भी तरह वापस नहीं आ सकता। इसलिए वे इसे रोकने की बजाय निशाने से भटकाने की कोशिश में लग गये हैं। इसीलिए कुछ लोग इसे आदिवासी और सरना धर्म कोड की की बात कह कर उलझाना चाहते हैं। यही कारण है कि धर्मांतरण जैसे मुद्दों को भी बीच में घसीटा जाने लगा है।
सरना धर्म कोड की मांग करनेवालों का तर्क है कि आदिवासी एक समुदाय है, जिसे सरकारी सुविधाएं केवल सामुदायिक आधार पर मिली हुई हैं। इसके विपरीत सरना एक जीवन शैली है, जिसे माननेवाले आदिवासी भी हैं और गैर-आदिवासी भी हो सकते हैं। कई आदिवासी सरना धर्मावलंबी नहीं भी हो सकते हैं। ऐसे में आदिवासी शब्द को सरना की जगह धर्म की श्रेणी में शामिल करना कहीं से भी उचित नहीं है।
कुल मिला झारखंड के लोगों की नजरें अब 11 नवंबर के विधानसभा के विशेष सत्र पर अटक गयी है। विधानसभा इस पर क्या फैसला लेती है, यह देखना दिलचस्प होगा। फिलहाल तो हेमंत सोरेन इस मुद्दे पर लीड ले चुके हैं और उन्हें घेरने की कोशिश विफल होती दिख रही है। अब इतना तय है कि यह मुद्दा झारखंड की राजनीति के तापमान को अभी उबाल पर ही रखेगा।