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    Home»Jharkhand Top News»बंगाल के राजनीतिक अखाड़े में संघवाद की ऐसी-तैसी
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    बंगाल के राजनीतिक अखाड़े में संघवाद की ऐसी-तैसी

    azad sipahi deskBy azad sipahi deskDecember 13, 2020No Comments5 Mins Read
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    देश का संविधान बनाने में अहम भूमिका निभानेवाली पश्चिम बंगाल की धरती पर आज संवैधानिक प्रावधान और संघवाद की अवधारणा दम तोड़ती नजर आ रही है। राज्य सरकार की मुखिया दीदी ममता बनर्जी की दादागिरी ने माहौल को इतना विकट बना दिया है कि इस प्रदेश के भविष्य के बारे में कोई भी आकलन खतरे से खाली नहीं है। केंद्र-राज्य के बीच के रिश्तों में ममता सरकार ने जो तल्खी पैदा की है, उसकी जड़ में कहीं न कहीं सियासी तिकड़म ही है। अगले तीन-चार महीने में राज्य में होनेवाले विधानसभा चुनाव से पहले केंद्र के साथ यह टकराव इस बात की ओर स्पष्ट इशारा करता है कि इस बार मामला सीधा नहीं है। टकराव की यह राजनीति बंगाल के लिए नयी नहीं है, लेकिन इस बार तो संवैधानिक प्रावधानों की सारी सीमाएं टूट गयी लगती हैं। केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा बुलाये जाने के बावजूद मुख्य सचिव और डीजीपी को ममता सरकार ने दिल्ली जाने की अनुमति नहीं देकर ऐसा अप्रत्याशित फैसला किया है, जिसकी मिसाल आज तक नहीं मिलती। आखिर देश को सामाजिक-सांस्कृतिक पुनर्जागरण की राह दिखानेवाले पश्चिम बंगाल की राजनीति कड़वाहट और टकराव के इस चरम बिंदु तक क्यों और कैसे पहुंच गयी। क्या इसके लिए केवल ममता बनर्जी जिम्मेवार हैं या फिर भाजपा का अति-उत्साह और किसी भी कीमत पर बंगाल फतह करने का घोषित लक्ष्य भी इस टकराव की जमीन तैयार करने में उर्वरक बना है। पश्चिम बंगाल की मौजूदा खतरनाक स्थिति पर आजाद सिपाही ब्यूरो की विशेष रिपोर्ट।

    इन दिनों पश्चिम बंगाल का राजनीतिक माहौल बेहद गरम है। पिछले तीन दिन के घटनाक्रम ने राजनीति के मैदान से होते हुए अब केंद्र और राज्य के बीच गंभीर टकराव की स्थिति पैदा कर दी है। भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के काफिले पर पथराव को कानून-व्यवस्था का गंभीर मामला मानते हुए केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्य के मुख्य सचिव और डीजीपी को दिल्ली तलब किया। इसके जवाब में राज्य की ममता बनर्जी सरकार ने दोनों को भेजने से मना कर दिया और अब इन दोनों अधिकारियों ने साफ कर दिया है कि वे दिल्ली नहीं जायेंगे।
    इस प्रकरण ने देश के संविधान को कटघरे में खड़ा कर दिया है। संविधान में वर्णित संघीय शासन प्रणाली में राज्यों को इस किस्म की स्वायत्तता की कल्पना नहीं की गयी है। हालांकि यह बात भी सही है कि स्वायत्तता की सीमा को परिभाषित नहीं किया गया है, फिर भी राज्यों में तैनात अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारियों से इस तरह के व्यवहार की उम्मीद नहीं की जाती है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी सरकार और राज्यपाल जगदीप धनखड़ के बीच का टकराव इस प्रकरण के बाद चरम पर पहुंचता नजर आ रहा है। राज्यपाल ने तो राज्य सरकार को आग से नहीं खेलने की चेतावनी तक दे दी है।
    हालांकि यह पहली बार नहीं है, जब राज्य सरकार सीधे-सीधे केंद्र से टकरायी है। करीब दो साल पहले जब ममता सरकार की पुलिस ने सीबीआइ की टीम को कोलकाता के तत्कालीन पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार के घर जाने से रोक दिया था। उस समय स्थानीय पुलिस ने सीबीआइ अधिकारियों को जबरदस्ती पुलिस जीप में बैठा दिया और थाने ले गयी थी। इसी दौरान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पुलिस कमिश्नर के घर पहुंची थीं। इसके कुछ ही देर बाद वह (ममता बनर्जी) सीबीआइ की कार्रवाई के विरोध में मोदी सरकार के खिलाफ धरने पर बैठ गयी थीं। फिर एक साल बाद भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष अमित शाह के हेलीकॉप्टर को जाधवपुर में उतरने की अनुमति नहीं दी गयी थी।
    यह भी हकीकत है कि टकराव की यह जमीन एकाएक तैयार नहीं हुई है। पिछले साल गर्मियों में लोकसभा चुनाव के बाद जब वामपंथियों-तृणमूल कांग्रेस के गढ़ में भाजपा ने अपना पैर तेजी से फैलाया, तब से ही राज्य एक अजीब किस्म के तनाव से गुजर रहा है। इस तनाव में एक तरफ सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस है, तो दूसरी तरफ भाजपा। पिछले 10 साल से मुख्यमंत्री के रूप में ममता बनर्जी ने एक जुझारू, कर्मठ और हमेशा जनता के मध्य रहने वाली नेता के तौर पर अपनी छवि गढ़ी है, लेकिन इसमें भी दो मत नहीं है कि जिद्दी और हठी स्वभाव के चलते कई मौकों पर उन्हें तानाशाह होते हुए भी देखा गया है। पिछले पांच-छह वर्षों के राजनीति सफर में तृणमूल कांग्रेस और भाजपा को पश्चिम बंगाल में एक कट्टर प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखा जा सकता है और यही कारण है कि न तो तृणमूल भाजपा पर आरोप मढ़ने का कोई मौका गंवाना चाहती है और न ही भाजपा किसी मौके से चूकना चाहती है। आरोप-प्रत्यारोप का यह सिलसिला अब तो सीधे-सीधे हिंसा में बदलता नजर आ रहा है।
    इससे इस आशंका को बल मिलता है कि बंगाल में हिंसात्मक राजनीति का दौर और विकराल रूप अख्तियार कर सकता है। पिछले एक साल में बंगाल में भाजपा के 115 कार्यकर्ताओं की हत्या की गयी, जबकि सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के कम से कम 96 कार्यकर्ता इसके शिकार बने।
    आधुनिक बंगाल का इतिहास गवाह है कि राज्य में जब भी कोई चुनाव आता है, टकराव और हिंसा की राजनीति अचानक तेज हो जाती है।
    टकराव और शह-मात की इस राजनीति के तहत ममता अपने प्रशासनिक अधिकारों का भी इस्तेमाल करने से पीछे नहीं हटीं हैं। लेकिन इस क्रम में उन्होंने संविधान की मूल भावना को ठेस भी पहुंचाया है। कहा जाता है कि लोकतंत्र में हिंसा का कोई स्थान नहीं होता, लेकिन पश्चिम बंगाल का वर्तमान माहौल अब हिंसात्मक हो चला है। चुनाव आते-आते यह किस स्थिति में पहुंच जायेगा, इसकी कल्पना भी कठिन है। इस सब में एक बात साफ है कि इस टकराव से भारतीय संघवाद की परिकल्पना को जबरदस्त नुकसान पहुंच रहा है। इसके अलावा यह स्थिति दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को अराजक स्थिति की तरफ भी ले जा रही है, क्योंकि राज्य और केंद्र के बीच रिश्ते हाल के दिनों में पहले से ही खराब चल रहे हैं और इसमें गिरावट से देश को ही नुकसान पहुंचेगा। यहां अटल बिहारी वाजपेयी का वह कथन याद आता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि सरकारें आती-जाती रहेंगी, लोग आते-जाते रहेंगे, लेकिन हमारा संविधान और हमारा लोकतंत्र हमेशा बचा रहना चाहिए।

    This kind of federalism in Bengal's political arena
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