- अलगाव : अखिलेश को महंगी पड़ सकती है अपने घर की फूट
देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और इसे देखते हुए वहां राजनीतिक दांव-पेंच भी चरम पर हैं। नेताओं के पाला बदलने और एक पार्टी को छोड़ दूसरी पार्टी में जाने का सिलसिला भी खूब चल रहा है। अब तक इस खेल में आगे दिख रही समाजवादी पार्टी और इसके अध्यक्ष अखिलेश यादव को पहली बार करारा झटका लगा है, जब उनके परिवार में फूट पड़ गयी है और मुलायम सिंह यादव की छोटी बहू अपर्णा यादव भाजपा में शामिल हो गयी हैं। यूपी के नेहरू-गांधी परिवार की पहचान यदि पूरे देश में है, तो यूपी में मुलायम परिवार की पहचान भी कम नहीं है। खुद मुलायम सिंह यादव और उनके बड़े पुत्र अखिलेश यादव राज्य के मुख्यमंत्री का पद संभाल चुके हैं। ऐसे में इस परिवार में पड़ी फूट का राजनीतिक असर पड़ना स्वाभाविक है। भाजपा ने ‘सौ सुनार की एक लोहार की’ के अंदाज में अखिलेश को झटका दिया है और अब इसका सियासी असर क्या होता है, यह देखना बाकी है। लेकिन अपर्णा यादव के भाजपा में शामिल होने के बाद से पहली बार सपा और अखिलेश यादव रक्षात्मक मुद्रा में दिखने लगे हैं। यही यदि यूपी चुनाव का टर्निंग प्वाइंट बन जाये, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। आखिर क्यों अपर्णा ने भाजपा का दामन थामने का फैसला किया और इसका सियासी असर क्या होगा, इन सवालों पर आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह की खास रिपोर्ट।
भारत में कोई भी चुनाव बेहद दिलचस्प और रोमांचक होता है। चाहे वह संसदीय चुनाव हो या विधानसभा का चुनाव, हर बार भारतीय लोकतंत्र निखर कर दुनिया के सामने आता है और हर चुनाव कई नयी कहानियों, नये रिश्तों और नये समीकरणों को जन्म देता है। हर चुनाव के बाद सब कुछ भुला दिया जाता है, लेकिन कुछ ऐसी कहानियां भी होती हैं, जो ताउम्र याद रखी जाती हैं। कुछ ऐसी ही कहानी है 19 जनवरी को यूपी के प्रमुख राजनीतिक परिवारों में से एक में फूट की। मुलायम सिंह यादव की छोटी बहू अपर्णा यादव भाजपा में शामिल हो गयी हैं और इसके साथ ही यूपी की सत्ता में लौटने के लिए हरसंभव कोशिश कर रहे अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी को करारा झटका लगा है। अपर्णा का भाजपा में शामिल होना इसलिए भी एक बड़ा सियासी घटनाक्रम है, क्योंकि यूपी में अब तक पाला बदलने के खेल में सपा आगे दिख रही थी, क्योंकि भाजपा के दर्जन भर कद्दावर नेताओं ने हाल ही में उसका दामन थामा है। लेकिन भाजपा ने अपर्णा को अपने पाले में कर ऐसा सियासी दांव खेला है, जिसकी काट खोजने में अखिलेश को खासी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। इसलिए वह अभी रक्षात्मक मुद्रा में दिख रहे हैं।
दरअसल अपर्णा यादव के भाजपा में शामिल होने के पीछे की कहानी भी बेहद रोचक है। पिछले सप्ताह लखनऊ में आइपीएस अधिकारी असीम अरुण के साथ ही उनकी भाजपा में शामिल होने की खबरें आने लगी थीं, लेकिन तब अपर्णा यादव के नजदीकी लोगों ने इससे इनकार कर दिया था। लेकिन भाजपा से उनकी करीबी में किसी को शक नहीं था। अपर्णा यादव की भाजपा और योगी आदित्यनाथ से नजदीकी की चर्चा पहले भी होती रही है। पांच साल पहले अपर्णा ने भाजपा में शामिल होने के बारे में कहा था, हमारे बड़े बुजुर्ग लगातार कहते रहे हैं कि वर्तमान में हम जो भी करें, अच्छे से करें, और भविष्य की बातों को भविष्य के गर्भ में छोड़ दें। भविष्य में जो भी होना है, जो भी हो, जैसा भी हो, वह तो भविष्य में ही होगा। और आज पांच साल बाद ही सही, अपर्णा अपने अच्छे के लिए भाजपा में पहुंच गयी हैं। उनके भाजपा में शामिल होने की एक अहम वजह लखनऊ कैंट विधानसभा की सीट भी है, जहां से समाजवादी पार्टी की टिकट पर अपर्णा यादव 2017 का चुनाव भाजपा की उम्मीदवार रीता बहुगुणा जोशी से हार गयी थीं। इस बार रीता बहुगुणा जोशी अपने बेटे को इसी सीट से उम्मीदवार बनाने की मांग कर रही हैं, इसके लिए खुद के इस्तीफे की पेशकश कर चुकी हैं। दूसरी ओर अपर्णा यादव भी इस सीट को लेकर अपनी दावेदारी मजबूती से रखती रही हैं। इस सीट से अपर्णा यादव के लगाव का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब 2017 में अखिलेश यादव ने मुलायम सिंह यादव और शिवपाल सिंह यादव से अलग रास्ता लिया, तो भी उन्होंने लखनऊ कैंट से अपर्णा यादव को उम्मीदवार बनाये रखा था। तब कहा जा रहा था कि मुलायम सिंह यादव ने उन्हें उम्मीदवार बनाने का फैसला लिया था और पिता के प्रति नरमी दिखाते हुए अखिलेश ने उनका टिकट बनाये रखा था।
इस बार भी अपर्णा इस सीट की दावेदार थीं, लेकिन अखिलेश के करीबी और इलाके के पार्षद राजू गांधी का दावा अधिक मजबूत बताया जा रहा है। अखिलेश खुद भी चाहते हैं कि राजू गांधी ही यहां से लड़ें। ऐसे में अपर्णा के लिए सपा में कोई जगह नहीं रह गयी थी। अपर्णा के भाजपा में जाने का बड़ा सियासी असर इसलिए चुनाव में पड़ेगा, क्योंकि अखिलेश यादव की छवि इससे बुरी तरह प्रभावित हुई है। कारण है, घर का भेदिया लंका ढाहे। अपर्णा यादव मुलायम सिंह यादव की दूसरी पत्नी साधना के पुत्र प्रतीक यादव की पत्नी हैं। अखिलेश यादव यह नहीं चाहते कि साधना का वारिश राजनीति में आयें। जबकि अपर्णा यादव में शुरू से ही राजनीतिक महत्वाकांक्षा रही है। 2017 में भी अखिलेश यादव उन्हें टिकट नहीं देना चाहते थे, लेकिन मुलायम सिंह य ादव अड़ गये और उन्हें टिकट देना पड़ा। वैसे अपर्णा यादव को शुरू से अखिलेश के चाचा शिवपाल सिंह यादव का संरक्षण मिलता रहा है। कहते हैं, अखिलेश यादव कभी भी प्रतीक यादव को भाव नहीं देते थे। उन्होंने उस समय भी बगावत कर दी थी, जब मुलायम सिंह यादव ने दूसरी शादी साधना से की। कहते हैं, तब अमर सिंह ने मुलायम सिंह यादव और अखिलेश के बीच समझौता करवाया था। अब उसी प्रतीक यादव की पत्नी भाजपा में शामिल हो गयी हैं। इसका राजनीतिक असर कितना अखिलेश यादव पर पड़ेगा, यह तो अभी नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना जरूर है कि बात-बात में भाजपा की चिद्दी उघाड़ने को आतुर अखिलेश यादव घर की इस फूट के बाद थोड़ी झेंपेंगे जरूर। हालांकि यह बात भी सही है कि अपर्णा यादव के भाजपा में जाने से समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता भी नाराज नहीं होंगे और भाजपा के कार्यकर्ता भी उतने खुश नहीं होंगे। दिलचस्प यह भी है कि समाजवादी पार्टी के टिकट पर यहां से अपर्णा यादव के लिए चुनाव जीतना शायद मुश्किल होता, लेकिन भाजपा के टिकट पर वह विधानसभा पहुंचने का सपना शायद साकार कर सकती हैं।
लेकिन यहां एक सवाल यह भी है कि आखिर अपर्णा को अपने पाले में करने से भाजपा को लाभ क्या मिला, तो इसका जवाब यही है कि भाजपा के अंदर इस बात को महसूस किया गया कि शिवपाल यादव के साथ समझौता नहीं करने की जो गलती हुई है, उसकी भरपाई होनी चाहिए और इसी वजह से अपर्णा को शामिल किया गया है। वोटों की राजनीति पर इसका भले असर नहीं हो, लेकिन परसेप्शन में यह बात तो जायेगी कि अखिलेश यादव से उनका अपना परिवार नहीं संभल रहा है। अपर्णा यादव अब तक अखिलेश यादव को लेकर सार्वजनिक तौर पर सम्मान से पेश आती रही हैं, ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि वह राजनीतिक घमासान में अखिलेश यादव पर किस तरह के हमले करती हैं। वैसे अपर्णा यादव खुद भी राजनीतिक तौर पर अपनी महत्वाकांक्षा समय-समय पर जाहिर करती रही हैं। वह सार्वजनिक मंचों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ कर चुकी हैं। योगी आदित्यनाथ जब मुख्यमंत्री बने थे, तो वह अपर्णा यादव के गौशाला में भी गये थे। राजनाथ सिंह से भी उनके अपने परिवार की नजदीकी रही हैं। इसके अलावा उन्होंने आरक्षण विरोधी बयान देख कर भी राजनीतिक सुर्खियां बटोरी थीं।
अब देखना है कि अखिलेश अपने परिवार में हुई इस फूट से पड़नेवाले सियासी असर को कैसे मैनेज करते हैं, लेकिन फिलहाल तो वह रक्षात्मक मुद्रा में आ ही गये हैं, जबकि पिछले कुछ दिनों से वह भाजपा पर हमलावर नहीं, तो कम से अति आत्मविश्वास से भरे जरूर थे।