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    Home»विशेष»प्लेसेस ऑफ़ वरशिप एक्ट पर केंद्र सरकार को विचार करने की जरूरत
    विशेष

    प्लेसेस ऑफ़ वरशिप एक्ट पर केंद्र सरकार को विचार करने की जरूरत

    azad sipahiBy azad sipahiMay 21, 2022No Comments13 Mins Read
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    समय की मांग और पब्लिक डिमांड पर जरूरी है इस कानून में संशोधन : हिंदुओं की धार्मिक आस्था को ठेस पहुंचाता है यह कानून

    भारत के इतिहास में यह पहली बार हो रहा है जब क्या बुजुर्ग, क्या व्यस्क, क्या युवा, क्या बच्चा आज एक धर्मस्थल के बारे में पल-पल की खबरें जानने को इच्छुक है। देखा तो यहां तक जा रहा है की बच्चे फेसबुक-इंस्टाग्राम पर काचा बादाम टाइप के रील्स कम ज्ञानवापी पर आधारित रील्स को सुन्ना अधिक पसंद कर रहे हैं। आज हर कोई काशी की बात कर रहा है। काशी में मिले शिवलिंग की चर्चा कर रहा है। एक तरफ जहां मुस्लिम पक्ष उस शिवलिंग को फव्वारा साबित करने में तुला है वहीं सनातनी हिंदू अपने नंदी के आंसू पोछने में लगे हैं। हिंदू दावा कर रहा है नंदी का इंतजार खत्म हुआ। बाबा मिल गये। विश्वेश्वर मिल गये। जब हिन्दुओं का पक्ष मजबूत होता है तब दूसरा पक्ष पल्सेस आॅफ वरशिप एक्ट की दुहाई देने लगता है। वह इस कानून को ढ़ाल समझता हैं। क्या किसी के घर पर कोई अवैध रूप से कब्जा कर लेगा और उसे अपनी संपत्ति समझने लगेगा तो क्या वह संपत्ति उसकी हो जायेगी। बिल्कुल नहीं। घर तो एक परिवार का होता है, लेकिन धर्मस्थल पुरे समाज का होता है। इसी लिए पूजास्थल कानून में संशोधन की जरूरत है। आज पूरे देश में ज्ञानवापी की चर्चा है, जो हिंदुओं का धर्मस्थल प्रमाणित हो चुका है, लेकिन दूसरा पक्ष एक कानून का हवाला देकर इस ऐतिहासिक तथ्य को गलत साबित करने पर तुला हुआ है। यह कानून है पूजा स्थल कानून, जिसे 1991 की पीवी नरसिंह राव सरकार ने आनन-फानन में केवल अयोध्या के राम मंदिर आंदोलन को कुचलने के लिए लागू किया था। यह कानून कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीतियों का जीता-जागता प्रमाण है, जिस पर आज कल खूब बहस हो रही है। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि आखिर क्या है इस कानून में, जिससे हिंदुओं की आस्था पर चोट पहुंचती है, जबकि विवादित ढांचों के लिए यह रक्षा कवच का काम करता है। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने पिछले आठ सालों में जिस तरह कई विवादास्पद और दकियानूसी कानूनों का अस्तित्व खत्म किया है या उनमें सुधार किया है, उसे देखते हुए अब यह मांग भी तेज होने लगी है कि पूजा स्थल कानून में भी परिवर्तन या संशोधन किया जाये, ताकि इसका दुरुपयोग नहीं किया जा सके। मोदी सरकार की जन भावनाओं के प्रति अप्रतिम सम्मान और नयी परिपाटी स्थापित करने की इच्छाशक्ति को देखते हुए यह काम भी बहुत मुश्किल नहीं रह गया है। इस विवादास्पद पूजा स्थल कानून के विभिन्न पहलुओं को समेटती आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह की विशेष रिपोर्ट।

    वाराणसी के ज्ञानवापी विवादित ढांचे के वीडियोग्राफी सर्वे में शिवलिंग और अन्य हिंदू प्रतीकों के सामने आने के बाद इसे हिंदू समुदाय को सौंपने की मांग तेज हो गयी है। एक तरफ विरोधी मुस्लिम पक्ष शिवलिंग को फव्वारा बताकर तथ्यों को नकार रहा है, तो दूसरी ओर उनके वकील पूजास्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 को आधार बनाकर ढांचे के स्वरूप और मालिकाना हक को लेकर किसी भी तरह के बदलाव की गुंजाइश को खारिज कर रहे हैं।

    इन तथ्यों का इतिहास साक्षी है कि मुस्लिम आक्रमणकारियों ने देश में आक्रमण करने के दौरान और उसके बाद भी सिर्फ धन-संपत्ति की ही लूटपाट नहीं की थी, बल्कि अपने धार्मिक उन्माद के कारण हजारों-हजार की संख्या में मंदिरों का विध्वंस किया था और कई मंदिरों को मस्जिदों में रूपांतरित कर दिया था। इस बात के साक्ष्य आज भी देश की कई मस्जिदों में स्पष्ट नजर आते हैं और इन्हीं साक्ष्यों को आधार बनाकर हिंदू समुदाय अपनी धरोहर पर फिर से दावा ठोक रहा है। लेकिन मुस्लिम समुदाय इस कानून को आधार बनाकर अड़ंगा डालने की कोशिश कर रहा है।

    उमा भारती ने किया था विरोध
    साल 1991 में जब पूजास्थल अधिनियम लोकसभा में पेश किया गया था, तब मध्य प्रदेश के खजुराहो से भाजपा की तत्कालीन सांसद उमा भारती ने इसका जमकर विरोध किया था। इस कानून से अयोध्या के तत्कालीन बाबरी ढांचे और श्रीराम जन्मभूमि विवाद को अलग रखा गया था, लेकिन उमा भारती और भाजपा नेताओं ने वाराणसी के ज्ञानवापी ढांचा-काशी विश्वनाथ मंदिर और मथुरा के ईदगाह ढांचा-श्रीकृष्म जन्मभूमि जैसे विवादित स्थलों को भी अपवाद की श्रेणी में रखने की मांग की थी।

    पूजास्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम को नौ सितंबर 1991 को लोकसभा में पेश किया गया था। बहस के दौरान उमा भारती ने इस विधेयक का विरोध करते हुए कहा था कि इसमें जिस तरह से अयोध्या को छूट दी गयी है, उसी तरह काशी के विश्वनाथ मंदिर और मथुरा के श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर को भी छूट मिलनी चाहिए। उन्होंने इस बिल को महाभारत के ह्यद्रौपदी का चीरहरणह्ण बताते हुए सदन के सभी सदस्यों से इसका विरोध करने का आग्रह किया था। उमा भारती ने तर्क दिया था कि गांवों में बैलगाड़ियों के मालिक बैलों की पीठ पर घाव बना देते हैं और जब वे चाहते हैं कि उनकी बैलगाड़ी तेज चले, तो वे घाव पर वार करते हैं। इसी तरह यह विवाद ह्यभारत माताह्ण पर घाव और गुलामी के निशान हैं। जब तक बनारस में ह्यज्ञानवापीह्ण अपनी वर्तमान स्थिति में बनी रहेगी, तब तक यह हिंदुओं को औरंगजेब द्वारा किये गये अत्याचारों की याद दिलाती रहेगी।

    भाजपा ने किया था वॉकआउट
    लोकसभा में इस बिल के पेश होने पर बहस में सिर्फ 21 सांसदों ने हिस्सा लिया था, जिनमें पांच सांसदों ने विरोध किया था। विरोध करने वालों में भाजपा के चार और शिवसेना के एक सांसद शामिल थे। भाजपा की ओर तत्कालीन सांसद लालकृष्ण आडवाणी, उमा भारती, राम नाईक और मदन लाल खुराना और शिवसेना की ओर से अशोक आनंदराव देशमुख शामिल थे। लोकसभा में बिल के पेश होने के बाद भाजपा नेता संसद से वॉकआउट कर गये थे।

    उनका नेतृत्व लालकृष्ण आडवाणी ने किया था, जबकि राज्यसभा में भाजपा नेता सिकंदर बख्त ने भाजपा की ओर विरोध की कमानी संभाली थी। हालांकि, 10 सितंबर को यह बिल लोकसभा में और 12 सितंबर को राज्यसभा से पास हो गया। तब भाजपा के दिग्गज नेता लालकृष्ण आवाणी ने कहा था, मुझे नहीं पता कि यह विधेयक कितना मददगार बनेगा, लेकिन मैं इतना जरूर जानता हूं कि हम उन समस्याओं को हल नहीं कर रहे हैं, जो सभी तनावों के पीछे हैं। हम इस विधेयक को उन जगहों पर तनाव पैदा करने के लिए पारित कर रहे हैं, जहां यह समस्या नहीं है।

    क्यों लाया गया था यह बिल
    साल 1986 में अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि का ताला खोले जाने के बाद भाजपा ने अपने राम मंदिर आंदोलन को गति देना शुरू कर दिया था। भाजपा के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में अयोध्या में श्रीराम मंदिर के निर्माण के लिए देश भर के लोगों का समर्थन जुटाने के लिए रथयात्रा का एलान किया गया। इस रथयात्रा के संयोजक वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी थे। लालकृष्ण आडवाणी ने 25 सितंबर 1990 को गुजरात के सोमनाथ मंदिर में पूजा कर अपनी रथयात्रा की शुरूआत की। यह रथयात्रा दिल्ली सहित आठ राज्यों से होते हुए 30 अक्टूबर को अयोध्या में खत्म होनी थी। देश भर में राम नाम का गुणगान हो रहा था और बच्चे-बच्चे की जुबान पर राम का नाम था। गांव के आखिरी व्यक्ति तक राम मंदिर को लेकर उत्साह था। गांवों-शहरों में लोगों ने अपने घर की दीवारों पर ह्यमंदिर वहीं बनायेंगेह्ण, ह्यएक ईंट राम के नामह्ण जैसे नारे लिखे थे। लोगों के उत्साह के कारण भाजपा को अपार जनसमर्थन मिल रहा था। इसको देखकर कांग्रेस और वामपंथियों में खलबली मच गयी। इसी बीच तत्कालीन प्रधानममंत्री राजीव गांधी की हत्या हो गयी और सहानुभूति की लहर पर सवार कांग्रेस को 1991 के लोकसभा चुनावों में 232 सीटें मिलीं। पहली बार गांधी-नेहरू परिवार अलग हटकर दक्षिण भारत के कांग्रेसी नेता पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व में कांग्रेस ने केंद्र में सरकार बनायी। सरकार बनने के बाद कांग्रेस ने इस बिल को सदन में लाने का निर्णय लिया। बिल का समर्थन करते हुए तत्कालीन गृह मंत्री और कांंग्रेस नेता एसबी चव्हाण ने कहा था, पूजा स्थलों के रूपांतरण के संबंध में समय-समय पर होने वाले विवादों को देखते हुए इसके लिए उपाय करना आवश्यक है, ताकि भविष्य में सांप्रदायिक माहौल ना खराब हो। तब भाजपा नेता उमा भारती ने तर्क दिया था कि यह कानून बिल्ली-कबूतर की स्थिति जैसी है। उन्होंने कहा था कि बिल्ली को आता देख कबूतर अपनी आंखें बंद कर लेता है और सोचता है कि वह सुरक्षित हो गया, लेकिन ऐसा नहीं होता। उन्होंने कहा कि 1947 की तरह धार्मिक स्थलों पर यथास्थिति बनाये रखना, बिल्लियों के आगे बढ़ने के खिलाफ कबूतरों की तरह आंखें बंद करने जैसा है। यह आने वाली पीढ़ियों के बीच तनाव को बनाये रखेगा।
    इस बिल का कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर और गुलाम नबी आजाद ने खुलकर समर्थन किया था। मणिशंकर अय्यर ने कहा था कि इस बिल का पेश होना धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एक साथ आने और सांप्रदायिक ताकतों से लड़कर सांप्रदायिकता की राजनीति से छुटकारा पाने का अवसर है।

    क्या है पूजास्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991
    पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार द्वारा लाये गये पूजास्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम में कहा गया है कि 15 अगस्त 1947 तक अगर किसी धर्म का कोई पूजास्थल है, तो उसे दूसरे धर्म के पूजास्थल में नहीं बदला जा सकता। कानून में इसके लिए एक से तीन साल तक की जेल और जुमार्ना का प्रावधान किया गया है। इस कानून में अयोध्या को अलग रखा गया है, क्योंकि उस समय यह मामला कोर्ट में था। इस कानून की धारा-2 में कहा गया है कि अगर 15 अगस्त 1947 को मौजूद किसी धार्मिक स्थल में बदलाव को लेकर अगर किसी अदालत, न्यायाधिकरण या अन्य प्राधिकरण में कोई याचिका लंबित है, तो उसे रद्द किया जायेगा। कानून की धारा-3 में कहा गया है कि किसी पूजास्थल को पूरी तरह या आंशिक रूप से दूसरे धर्म के पूजास्थल में नहीं बदला जा सकता है। वहीं, इस कानून के धारा-4(1) में कहा गया है कि किसी भी पूजास्थल का चरित्र देश की स्वतंत्रता के दिन का वाला ही रखना होगा। इस कानून का धारा-4(2) उन मुकदमों, अपीलों और कानूनी कार्यवाहियों पर रोक लगाता है, जो पूजास्थल कानून के लागू होने की तिथि पर लंबित थे।
    अधिनियम को कोर्ट में चुनौती

    भाजपा और दक्षिणपंथी संगठनों के लिए यह कानून शुरू से ही विवाद का विषय रहा है। भाजपा ने कानून के पहले दिन से ही इसका विरोध किया है। भाजपा नेता और सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने इस कानून को निरस्त करने को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दायर की है। इसके अलावा, इस कानून के खिलाफ याचिका लखनऊ के विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ ने भी दायर की है। इन याचिकाओं में कहा गया है कि पूजास्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 न्यायिक समीक्षा पर रोक लगाता है, जो कि संविधान की बुनियादी विशेषता है। इसके साथ ही यह कानून जो तिथि निश्चित करता है, वह हिंदू, जैन, बुद्ध और सिख धर्मावलंबियों के अधिकारों को सीमित करता है।

    अश्विनी उपाध्याय द्वारा मार्च 2021 में दायर की गयी याचिका में कहा गया है कि इस कानून के प्रावधान मनमाने और असंवैधानिक हैं। यह कानून हिंदू, जैन, सिख और बौद्ध लोगों को उनके पूजास्थलों पर हुए अवैध अतिक्रमण के खिलाफ कोर्ट जाने से रोकता है। उन्होंने कहा है कि यह कानून संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21, 25, 26, 29 और 49 का उल्लंघन करता है। अश्विनी उपाध्याय कहते हैं कि इस कानून को बनाने का अधिकार केंद्र सरकार के पास नहीं है। यह कानून पब्लिक आॅर्डर (कानून व्यवस्था) बनाये रखने की आड़ में बनाया गया, जबकि कानून-व्यवस्था राज्य का विषय है, केंद्र का नहीं। उन्होंने कहा, यह कानून धार्मिक स्थान की यथास्थिति के नाम पर बनाया गया है। भारत से बाहर के धार्मिक स्थल केंद्र सरकार का विषय है, भारत के अंदर के नहीं। जैसे पाकिस्तान स्थिति नानकाना साहिब, चीन स्थित कैलाश मानसरोवर, कंबोडिया स्थित मंदिर, हज आदि से संबंधित कानून बनाने का अधिकार भारत सरकार के पास है। भारत के अंदर तीर्थ स्थानों को लेकर कानून बनाने का अधिकार राज्य के पास है।

    इस कानून में संशोधन बेहद जरूरी
    पूजा स्थल कानून में संशोधन अब बेहद जरूरी हो गया है, क्योंकि कानून बनाकर किसी अवैध काम को वैध नहीं बनाया जा सकता। कानून बनाकर ऐतिहासिक गलतियों को सही नहीं ठहराया जा सकता। ऐतिहासिक गलतियों को सुधारना सरकार का काम है, उस पर ठप्पा लगाना सरकार का काम नहीं है। अगर धार्मिक स्थलों की स्थिति के लिए इस कानून में कटआॅफ तय करना ही था, तो वह 15 अगस्त 1947 नहीं हो सकता। कायदे से कटआॅफ तारीख 1192 ईस्वी होनी चाहिए।

    हिंदू-बौद्ध-जैन-सिखों के धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन
    इसके अलावा किसी भी मुद्दे की न्यायिक समीक्षा भारतीय संविधान की मूल संरचना है। पूजास्थल कानून कहता है कि धार्मिक स्थलों को लेकर जो मुकदमा चल रहा है, वह खत्म हो जायेगा और आगे से कोई मुकदमा दर्ज नहीं होगा। यह कानून न्यायिक समीक्षा को ही खत्म कर रहा है। संविधान का एक स्तंभ न्यायपालिका है, यह उसी पर चोट कर रहा है। लोकतांत्रिक देशों में विवाद का समाधान कोर्ट के जरिये नहीं होगा, तो लोकतंत्र खत्म हो जायेगा और भीड़तंत्र हावी हो जायेगा। यहां ध्यान देने लायक बात यह है कि न्यायिक समीक्षा संविधान के अनुच्छेद 14 का हिस्सा है। हमारे देवी-देवता न्यायिक व्यक्तित्व हैं। इनको भी वैधानिक अधिकार है, संपत्ति का अधिकार है। इस कानून के जरिये राम और कृष्ण के बीच भेद करना अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है, क्योंकि यह कानून (पूजास्थल कानून, 1991) कहता है कि अयोध्या का मामला इस कानून के दायरे में नहीं आयेगा, लेकिन मथुरा पर लागू होगा। इस तरह राम और कृष्ण के बीच में भेदभाव लागू कर दिया गया।

    इसके अलावा अनुच्छेद 15 कहता है कि हमारे यहां (हिंदू धर्म) में जो मंदिर या मठ की जमीन होती है, वह उस देवता के नाम पर होती है। जो जमीन मंदिर के देवता के नाम पर एक बार चली गयी, वह हमेशा मंदिर के देवता के नाम पर रहती है। उसे छीन नहीं सकते। उस संपत्ति को मैनेजमेंट कमिटी मैनेज तो करती है, लेकिन उसका मालिकाना हक मैनेजमेंट कमिटी के पास नहीं होता। जैसे कि अयोध्या मंदिर की जमीन को कोई पुजारी या महात्मा नहीं बेच सकता। वह भगवान राम के नाम पर जमीन है। फिर संविधान के अनुच्छेद 21 में न्याय का अधिकार है। कोर्ट जाना, वहां दलील देना और वहां से न्याय लेना इसमें आता है। लेकिन यह कानून कोर्ट का दरवाजा ही बंद कर दे रहा है। इसलिए इसमें संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन हो रहा है।

    ऐसे खत्म हो सकता है यह कानून
    पूजास्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 को संसद में बिल द्वारा खत्म किया जा सकता है या सुप्रीम कोर्ट इस कानून को खत्म कर सकता है। इस विवादित कानून पर सुनवाई किये बिना ज्ञानवापी या मथुरा की ईदगाह मस्जिद को लेकर सुनवाई पूरी नहीं हो सकती। भारत को उम्मीद है कि मोदी सरकार की उपलब्धियों की फेहरिस्त में इस कानून के खात्मे की उपलब्धि भी जल्दी ही जुड़ जायेगी।

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