नयी दिल्ली। देश की राजधानी दिल्ली में रविवार-सोमवार को नये साल की पहली बारिश हुई। पिछले कुछ दिन से देश की राजनीति राफेल की बारूदी गंध और दूसरे मुद्दों से गरम थी, लेकिन सोमवार को बाहर की सर्द हवाओं के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक फैसले से राजनीतिक तापमान अचानक बढ़ गया। राफेल, सीबीआइ और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे एकाएक नेपथ्य में चले गये। नरेंद्र मोदी सरकार का यह फैसला था सामान्य वर्ग के गरीबों को अलग से 10 प्रतिशत आरक्षण देने का। यह आरक्षण सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय की गयी आरक्षण की अधिकतम 50 फीसदी की सीमा से अलग होगा, यानी जमीनी हकीकत में बदलने के लिए मोदी सरकार को संविधान में संशोधन करना होगा। इससे संबंधित प्रस्ताव मंगलवार को लोकसभा में पास कर दिया गया।
आरक्षण की मौजूदा सीमा से अधिक आरक्षण देने की कोशिश कई बार और कई सरकारों ने की है, लेकिन हर बार सुप्रीम कोर्ट ने उसे खारिज किया है। पिछली बार 2014 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने चुनावों से ठीक पहले जाटों को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में शामिल कर आरक्षण का लाभ देने की घोषणा की थी, लेकिन 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को खारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि पिछड़ेपन के लिए सिर्फ जाति को आधार नहीं बनाया जा सकता। पिछड़ापन का आधार सिर्फ सामाजिक होना चाहिए, न कि शैक्षणिक या आर्थिक रूप से कमजोरी।
नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले किया गया यह फैसला राजनीतिक मास्टर स्ट्रोक है। राजनीतिक दल इस कदम को लेकर मोदी सरकार की मंशा और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की दलील में उलझा सकते हैं, लेकिन कोई भी दल अब तक इसका विरोध करने की हिम्मत नहीं दिखा पाया है। उनमें ऐसा करने की हिम्मत भी नहीं है। यही कारण है कि कांग्रेस, बसपा, राजद, अन्नाद्रमुक, द्रमुक और वामदलों ने एक स्वर से सरकार के इस फैसले का समर्थन किया है। कांग्रेस का कहना है कि समाज के सभी वर्गों के गरीब लोगों को शिक्षा और रोजगार का मौका मिले, इस दिशा में उठाये जाने वाले हर कदम का वह समर्थन करेगी और उसकी पक्षधर भी रहेगी। लेकिन हकीकत यह है कि चार साल आठ महीने बीत जाने के बाद तब मोदी सरकार को गरीबों की याद आयी। यह अपने-आप में मोदी सरकार की नीयत पर सवाल खड़े करता है।
चुनावी साल में नरेंद्र मोदी सरकार के इस फैसले का देश की कम से कम 120 संसदीय सीटों पर सीधा असर पड़ेगा। झारखंड की बात करें, तो यहां कम से कम सात सीटें ऐसी हैं, जहां सवर्ण मतदाताओं की संख्या निर्णायक है। भाजपा को यह आभास हो गया है कि यदि उसने चार साल के दौरान उठे विभिन्न मुद्दों से जल्दी मुक्त नहीं हुई, तो चुनावी मैदान में ये मुद्दे उसका दूर तक पीछा करते रहेंगे।
अब सवाल यह उठता है कि आखिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनावी साल में यह फैसला क्यों किया। अपने कार्यकाल के बीच में नोटबंदी और जीएसटी जैसे फैसलों की कटु आलोचना झेल चुके नरेंद्र मोदी के लिए कोई ऐसा मुद्दा बेहद जरूरी था, जिस पर सवार होकर भाजपा चुनाव की वैतरणी पार कर सके। यह हकीकत है कि नरेंद्र मोदी सरकार नोटबंदी और जीएसटी जैसे मुद्दों के कारण अपने पुराने जनाधार, यानी मध्यम वर्ग का गुस्सा झेल रही है। 2014 के आम चुनावों के बाद हुए तमाम उपचुनाव इसके गवाह हो सकते हैं।
प्रचंड बहुमत से सत्ता में पहुंचनेवाली भाजपा कार्यकाल की समाप्ति तक आते-आते दर्जन भर सीटों से हाथ धो बैठी। इसके साथ हाल के दिनों में राफेल, महंगाई, भ्रष्टाचार और दूसरे मुद्दों को लेकर सरकार लगातार निशाने पर रही। पिछले महीने तीन राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी की करारी हार से भी मोदी सरकार के कान खड़े हुए। वह लगातार ऐसा कोई मुद्दा तलाश रही थी, जो चुनाव मैदान में उसके लिए ब्रह्मास्त्र बन सके। भाजपा का मध्य वर्ग का जनाधार यह मानने लगा था कि नरेंद्र मोदी सरकार उसके हितों की रक्षा की बजाय दूसरे मुद्दों को तरजीह दे रही है। न तो राम मंदिर पर उसका रवैया साफ है और न ही महंगाई और बेरोजगारी जैसे आर्थिक मुद्दे पर ही वह बहुसंख्यक समाज के हित में फैसले ले रही है।
यह वर्ग मान चुका था कि यह सरकार केवल अल्पसंख्यक समुदायों को अपनी ओर मोड़ने में दिलचस्पी रखती है। केंद्र सरकार के इस फैसले को तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों से जोड़ कर देखा जा रहा है। चुनाव परिणामों से स्पष्ट था कि आर्थिक मुद्दे लोगों के लिए अहम हैं। मध्यप्रदेश में तो सवर्ण बीजेपी को लेकर खासे नाराज थे।
कुछ सवर्णों ने तो वहां अपनी अलग पार्टी भी बना ली थी, हालांकि उसे सिर्फ आधा फीसदी वोट ही मिला, लेकिन वह संदेश देने में कामयाब रही थी। अब भाजपा अगड़ी जातियों को यह संदेश देने की कोशिश कर रही है कि वह उन्हें लेकर गंभीर है।
सवर्णों को आरक्षण देने के फैसले की वजह यह भी है कि कई पार्टियां पूर्व में गरीब सवर्णों को आरक्षण देने की मांग कर चुकी हैं। इनमें दलित नेता और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की प्रमुख मायावती भी शामिल हैं। 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले समाजवादी पार्टी यानी सपा ने सवर्ण आयोग या उच्च जाति आयोग का गठन करने का वादा किया था। सपा ने कहा था कि यह आयोग इस बात पर विचार करेगा कि इस वर्ग के गरीबों को कैसे और कितना आरक्षण दिया जाये। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और तेलुगू देशम पार्टी के प्रमुख एन चंद्रबाबू नायडू ने भी 2016 में संकेत दिया था कि उनकी सरकार भी अगड़ी जाति के गरीब लोगों को भी आरक्षण के दायरे में ला सकती है।
मोदी सरकार का यह फैसला भारत के स्वाधीनता आंदोलन के दौरान विकसित हुए मूल्यों, ऐतिहासिक पूना समझौते और फिर संविधान सभा में हुए आरक्षण संबंधी समूचे विमर्श से तैयार हुए संविधान के अनुच्छेद 15, 16, 340 आदि के प्रावधानों, यानी संविधान की मूल आत्मा और आरक्षण की बुनियादी अवधारणा के विपरीत है। इसलिए इसे लागू करने के रास्ते में बाधाएं तो आयेंगी, लेकिन कुल मिला कर यह फैसला मोदी सरकार और भाजपा के लिए संजीवनी का काम ही करेगा।
लाभ उठाने के लिए देने होंगे ये जरूरी कागजात
केंद्र सरकार ने सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षण संस्थानों में समाज के आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण देने का फैसला किया है। इसके अनुसार प्रतिवर्ष आठ लाख रुपये से कम आय वाले परिवार के सदस्यों को सरकारी नौकरियों में सीधी भर्ती में और उच्च शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश में 10 प्रतिशत आरक्षण दिया जायेगा।
अब यह जानना जरूरी है कि आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों को यह आरक्षण प्राप्त करने के लिए किन दस्तावेजों की जरूरत होगी।
1. जाति प्रमाण पत्र
2. बीपीएल कार्ड
3. पैन कार्ड
4. आधार कार्ड
5. बैंक पास बुक
6. इनकम टैक्स रिटर्न