2014 के विधानसभा चुनाव में पांच सीटों पर जीती थी आजसू
23 दिसंबर को जब झारखंड विधानसभा चुनाव के नतीजे आये, तो भाजपा के साथ जिस पार्टी को सबसे अधिक निराशा हाथ लगी, वह आजसू थी। वर्ष 2014 में पांच सीटों पर जीत हासिल करनेवाली आजसू 2019 में दो सीटों पर सिमट गयी, जबकि पार्टी ने उम्मीदवार 53 सीटों पर उतारे थे। पार्टी की हालत कुछ-कुछ झाविमो जैसी थी, जिसने 81 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे और तीन सीटों पर जीत हासिल करने में सफल रही थी। नतीजे उम्मीदों के अनुरूप नहीं आये, तो आजसू को निराशा हाथ लगनी ही थी। हालांकि पार्टी के लिए अच्छी बात यह रही कि पार्टी सुप्रीमो सुदेश महतो सिल्ली से जीत हासिल करने में सफल रहे। पर ओवरआॅल देखें तो पार्टी को 2014 की तुलना में 2019 में तीन सीटें गंवाने का नुकसान उठाना पड़ा। वह आजसू पार्टी, जिसके नेता सुदेश की छवि बेदाग और लोकप्रियता जबर्दस्त है और जिसे सरयू राय झारखंड के भविष्य के तीन नेताओं में से एक बता चुके हैं, उसका यह प्रदर्शन जाहिर है पार्टी नेताओं के लिए चिंता की बात है।
जाहिर है, जैसा कि भाजपा की करारी हार के कई कारण थे, आजसू की हार के भी कई कारण रहे। आजसू के खराब प्रदर्शन का सबसे बड़ा कारण भाजपा के साथ उसका गठबंधन टूटना रहा, हालांकि भाजपा के साथ दोस्ती की कीमत भी आजसू को चुकानी पड़ी। विधानसभा चुनाव में आजसू की ज्यादा से ज्यादा 20 सीटों पर उम्मीदवार देने की तैयारी थी, पर उसने 53 सीटों पर उम्मीदवार उतारे, यह पार्टी के लिए नुकसानदायक साबित हुआ। पार्टी में ऐन चुनाव के समय ऐसे लोगों को शामिल कराया गया, जिनसे पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचा और इसका नतीजा यह हुआ कि रामगढ़ विधानसभा सीट, जो पार्टी का किला था, हाथ से निकल गया। मांडू में भी आजसू को जीत का स्वाद मिलते-मिलते रह गया, तो बड़कागांव में हार का मार्जिन इतना बढ़ गया कि अब कभी गठबंधन होने पर आजसू उस सीट पर दावा भी नहीं कर सकती। टुंडी सीट, जहां से राजकिशोर महतो पार्टी के विधायक थे, वहां भी पार्टी को हार मिली और चंदनकियारी में भाजपा के अमर बाउरी दुबारा जीत हासिल करने में सफल रहे। जुगसलाई में पार्टी उम्मीदवार रामचंद्र सहिस चुनाव हार गये, जबकि उन्होंने क्षेत्र में जबर्दस्त काम किया था। छतरपुर सीट, जहां से पार्टी ने राधाकृष्ण किशोर को उतारा था, वहां इतना कम वोट मिला कि आजसू उसे गिना भी नहीं सकती। लोहरदगा सीट पर आजसू पार्टी तीसरे स्थान पर रही और रामेश्वर उरांव, जिनका वह क्षेत्र नहीं था, भारी मतों से वहां से जीते। पार्टी ने एक नहीं कई गलतियां कीं, जिसका सामूहिक नुकसान पार्टी को उठाना पड़ा। कई सीटें, जो आजसू की थी ही नहीं, वहां भी आजसू ने उम्मीदवार उतारे, यह पार्टी के पक्ष में नहीं गया। कीचड़ में कमल खिलता है वहां आजसू ने जबरदस्ती केले का पेड़ लगाने की कोशिश की और नतीजा अच्छा नहीं आया।
भाजपा विरोधी लहर का भी नुकसान हुआ पार्टी को
झारखंड में वर्ष 2019 के चुनाव में भाजपा विरोध की लहर चल रही थी। इसका नुकसान भी आजसू को उठाना पड़ा। चूंकि आजसू लंबे समय तक भाजपा के साथ रही थी और ऐन वक्त पर इसने भाजपा के साथ गठबंधन तोड़ा, इसलिए जनता के बीच यह संदेश गया कि पार्टी राजनीतिक लाभ लेने के लिए ऐसा कर रही है। रामगढ़ सीट पर पार्टी ने चंद्रप्रकाश चौधरी की पत्नी सुनीता देवी को उम्मीदवार बनाया, जिनकी कोई राजनीतिक छवि थी ही नहीं और उनके मुकाबले में कांग्रेस की ममता देवी थीं, जिन्हें विस्थापितों के आंदोलन का नेतृत्व करने के कारण प्रसिद्धि पहले ही मिल चुकी थी। ऐसे में ममता के मुकाबले सुनीता कमजोर साबित हुईं। यहां से यदि पार्टी ने पार्टी के किसी समर्पित कार्यकर्ता को टिकट दिया होता, तो नतीजे अलग होते। वहीं जुगसलाई में मंगल कालिंदी के हाथों रामचंद्र सहिस की पराजय का कारण यह था कि उनके खिलाफ एंटी इन्कंबेंसी फैक्टर निर्मित हो गया था और इसने उन्हें हरा दिया। कहा जा सकता है कि चुनाव से चार महीना पहले रामचंद्र सहिस के मंत्रिमंडल में शामिल होने के कारण सरकार विरोधी हवा का रुख उन्हें झेलना पड़ा।
प्रत्याशी दो ही जीते पर पार्टी का विस्तार हुआ
पार्टी के केंद्रीय प्रवक्ता डॉ देवशरण भगत ने पार्टी को चुनाव में अपेक्षित सफलता नहीं मिलने की बाबत बताया कि यह ठीक है कि पार्टी के केवल दो ही प्रत्याशी विधायक बनने में सफल रहे, पर पार्टी का विस्तार हुआ है। वर्ष 2014 में पार्टी का वोट शेयर चार फीसदी था और पार्टी ने आठ सीटों पर उम्मीदवार दिया था, जिसमें पांच जीत हासिल करने में सफल रहे थे। इस दफा पार्टी का वोट शेयर बढ़कर नौ फीसदी हो गया। नौ सीटों पर पार्टी के प्रत्याशी दूसरे स्थान पर रहे और17 सीटों पर तीसरे स्थान पर। यह सफलता कोई छोटी बात नहीं है। डॉ भगत बताते हैं, पहली बार हमने गांव की सरकार का नारा दिया और इस नारे को 12 लाख लोगों ने स्वीकारा। यह भी कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं है। इसके अलावा पार्टी का खेत पार्टी के पास है और अगली बार जब चुनाव होगा, तो निश्चित तौर पर खेती अच्छी होगी। उन्होंने यह भी कहा कि भाजपा के खिलाफ पूरे झारखंड में विरोध की लहर थी और उसका नुकसान सहयोगी रहने के कारण आजसू को भी उठाना पड़ा।
चंद्रप्रकाश चौधरी का परिवारवाद भी महंगा पड़ा
झारखंड की राजनीति के जानकारों का कहना है कि भाजपा के साथ गठबंधन टूटना आजसू की हार का कारण तो रहा ही, पार्टी का खराब चुनाव प्रबंधन भी इसका अहम कारण रहा। पार्टी की चुनाव की तैयारी केवल 20 सीटों पर थी, पर पार्टी ने 53 सीटों पर उम्मीदवार उतारे। इससे पार्टी का इलेक्शन मैनेजमेंट गड़बड़ा गया। पार्टी सांसद चंद्रप्रकाश चौधरी ने खुद को अपने परिवार से चुनाव लड़ रहे लोगों तक सीमित रखा। उनका सारा समय पत्नी सुनीता चौधरी, भाई रोशन चौधरी और मांडू सीट पर गया, जहां से वह निकट भविष्य में अपने बेटे को चुनाव लड़ाना चाहते हैं। इसके अलावा वह केवल गोमिया गये, जहां से पार्टी प्रत्याशी डॉ लंबोदर महतो चुनाव लड़ रहे थे और वह चंद्रप्रकाश चौधरी के आप्त सचिव भी थे। पार्टी के कई नेता भी दबी जुबान यह कह रहे हैं कि चंद्रप्रकाश चौधरी के परिवारवाद के कारण पार्टी को काफी नुकसान हो रहा है। वे सिर्फ वही करते हैं, जो उन्हें पसंद होता है। वे सिर्फ उन्हीं लोगों को आगे बढ़ाना चाहते हैं, जो उनके अपने खास हंै। हर समय उनकी कोशिश यही रहती है कि पार्टी में वह खुद स्थापित हो जायें। पार्टी ने दूसरे दलों से आये नेताओं को आनन-फानन में दल में शामिल किया। इसका भी खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा, क्योंकि उनके पास आजसू का बैनर तो था, पर पार्टी की रीतियों और नीतियों से वह बहुत परिचित नहीं थे। इसके अलावा दूसरे दलों का होने के कारण आजसू कार्यकर्ता भी उतनी जल्दी घुल-मिल नहीं सके।