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    Home»Jharkhand Top News»कैरियर की सबसे बड़ी चुनौती है बाबूलाल के सामने
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    कैरियर की सबसे बड़ी चुनौती है बाबूलाल के सामने

    azad sipahi deskBy azad sipahi deskJanuary 2, 2021No Comments6 Mins Read
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    झारखंड के सबसे शालीन और स्पष्टवादी छवि के राजनेता माने जानेवाले बाबूलाल मरांडी इस समय अपने तीन दशक लंबे राजनीतिक कैरियर के उस दोराहे पर खड़े हैं, जहां एक तरफ खाई है, तो दूसरी तरफ कुआं। 21वीं शताब्दी के तीसरे दशक का पहला साल उनके इस कैरियर को किस तरफ ले जाता है, यह तो भविष्य में तय होगा, लेकिन फिलहाल झारखंड के पहले मुख्यमंत्री रहे मरांडी के सामने अपने व्यक्तित्व को बचाये रखने के लिए विकल्प चुनने की बड़ी चुनौती है। दरअसल बाबूलाल मरांडी ‘पर्सनैलिटी’ के उस संघर्ष में फंसे दिखाई दे रहे हैं, जहां से वह न तो पीछे हट सकते हैं और न ही आगे बढ़ सकते हैं। अपनी पार्टी झाविमो का भाजपा में विलय करने के बाद बाबूलाल दुविधा के उस भंवर में फंसे हुए दिख रहे हैं, जिसमें उन्हें अपनी जुझारू छवि को बरकरार रखते हुए भाजपा को भी पार लगाना है। करीब 16 साल तक भाजपा के खिलाफ लगातार आग उगलने के बाद पिछले साल फरवरी में जब उनकी भाजपा में वापसी हुई, तब से लेकर आज तक वह न तो अपनी भूमिका तय कर सके हैं और न ही कोई राजनीतिक चमत्कार ही दिखा सके हैं। दूसरी तरफ भाजपा ने उन्हें विधायक दल का नेता तो बना दिया, लेकिन पार्टी में उनके समकक्ष कम से कम दो नेताओं, रघुवर दास और अर्जुन मुंडा के साथ उनका रिश्ता कम से कम सार्वजनिक तौर पर अब तक ‘कोल्ड वॉर’ सरीखा ही है। ऐसे में स्वाभाविक है कि बाबूलाल मरांडी की भाजपा के भीतर नेताओं के बीच सहज स्वीकार्यता पर भी सवालिया निशान लगा हुआ है। पिछले एक साल के दौरान बाबूलाल मरांडी की भाजपा नेता के रूप में भूमिका पर कई बार सवाल खड़े हुए हैं। नये साल में बाबूलाल मरांडी के सामने पेश होनेवाली चुनौतियों का विश्लेषण करती आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

    ंझारखंड के सियासी फलक पर बाबूलाल मरांडी एक ऐसा नाम है, जिसके विरोधियों की संख्या बेहद कम है। अपनी शालीनता और स्पष्ट विचारधारा के कारण झारखंड के पहले मुख्यमंत्री रहे बाबूलाल मरांडी का राजनीतिक सफर भले ही कैसा भी रहा हो, लेकिन उन्हें नजरअंदाज करने का खतरा किसी भी दल ने अब तक नहीं उठाया है। लेकिन पिछले साल फरवरी में अपनी पार्टी झाविमो के भाजपा में विलय करने के बाद बाबूलाल मरांडी की यह छवि जरूर प्रभावित हुई है।
    राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रहे बाबूलाल मरांडी ने अपने राजनीतिक कैरियर में कई उतार-चढ़ाव देखे और कई चुनौतियों का सामना किया, लेकिन 16 साल के बाद भाजपा में वापसी के करीब एक साल बाद उनके सामने अब जो चुनौतियां हैं, उनका मुकाबला करने में उन्हें कई मोर्चों पर एक साथ जूझना होगा। 17वीं लोकसभा के लिए 2019 के मई में हुए चुनाव में शून्य पर क्लीन बोल्ड हुए झाविमो सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी विधानसभा चुनाव में तीन सीट जीतने में कामयाब हुए और बाद में वह अपने दो विधायकों को पार्टी से निकालने के बाद खुद भाजपा में शामिल हो गये। विधानसभा चुनाव में पराजित होने के बाद भाजपा को एक मजबूत आदिवासी नेता की जरूरत थी, ताकि वह झारखंड में अपना खोया जनाधार वापस हासिल कर सके। बाबूलाल मरांडी के रूप में उसके सामने अच्छा विकल्प था और खुद बाबूलाल को भी इसकी जरूरत थी। इसलिए लगातार 16 साल तक भाजपा के खिलाफ आग उगलने के बावजूद वह वापस आये और यहीं से उनकी दुविधा का दौर शुरू हुआ।
    पिछले साल फरवरी में बाबूलाल मरांडी के भाजपा में शामिल होने के बाद से वह न तो पार्टी के लिए कोई चमत्कार कर पाये हैं और न ही झारखंड के लिए ही कोई बड़ा काम उनके खाते में दर्ज हुआ है। बाबूलाल मरांडी अपनी जिस जुझारू और स्पष्टवादी छवि के लिए जाने जाते हैं, पिछले 10 महीने में वह प्रभावित हुई है। भाजपा विधायक दल का नेता चुने जाने के बावजूद नेता प्रतिपक्ष का दर्जा नहीं मिल सकना इसका एक कारण हो सकता है, लेकिन मरांडी को बिना किसी पद के भी झारखंड के हितों के लिए जूझते लोग देख चुके हैं। इसलिए कोई पद उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण हो सकता है, यह बात गले नहीं उतर रही है। इतना ही नहीं, मुख्य विपक्षी दल का नेता होने के बावजूद बाबूलाल मरांडी ने अब तक ऐसा कोई स्टैंड नहीं लिया है, जिससे झारखंड का हित सधता हो। भाजपा में वापसी के बाद वह महज विपक्षी दल के नेता की भूमिका में रह गये हैं, और उनका मुख्य काम सत्ता पक्ष को कोसना रह गया है, जो उनके व्यक्तित्व को धुंधला बनाता है।
    दूसरी तरफ काफी मान-मनौवल के बाद बाबूलाल मरांडी को अपने खेमे में शामिल करनेवाली भाजपा के अंदरखाने में भी उन्हें लेकर मतैक्य नहीं है। बाबूलाल के समकक्ष कम से दो नेताओं, अर्जुन मुंडा और रघुवर दास उन्हें किसी भी कीमत पर वह स्पेस देने के लिए तैयार नहीं हैं। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि लगातार 16 साल तक इन दोनों नेताओं ने बाबूलाल का प्रहार झेला है। इन दोनों नेताओं के साथ बाबूलाल का रिश्ता अब तक सामान्य नहीं हो सका है। इसलिए कई बार भाजपा में उनकी स्वीकार्यता को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं। बेरमो और दुमका में हुए उप चुनाव में भी भाजपा नेता के रूप में बाबूलाल मरांडी कोई चमत्कार नहीं कर पाये। दुमका का मसलिया इलाका, जिसे बाबूलाल का गढ़ माना जाता था, इस उप चुनाव में ध्वस्त हो गया।
    इसके अलावा विभिन्न मुद्दों पर बाबूलाल मरांडी के स्टैंड से भी उनकी छवि को धक्का लगा है। उदाहरण के लिए जब प्रदीप यादव के खिलाफ यौन उत्पीड़न का आरोप लगा, तो बाबूलाल मरांडी ने उन्हें तत्काल पार्टी के प्रधान महासचिव के पद से हटा दिया, लेकिन जब भाजपा के विधायक ढुल्लू महतो के खिलाफ ऐसा ही आरोप लगा, तो मरांडी उनके समर्थन में उतर गये। वहीं अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके वह झारखंड के हित में केंद्र से कोई बड़ी योजना भी नहीं दिला पाये, कोई मदद भी नहीं करवा पाये, जिसके लिए झारखंड के लोग उन्हें याद करें।
    इस तरह बाबूलाल मरांडी का नया अवतार अब उनके लिए ही चुनौती बन रहा है। नये साल में उन्हें हमेशा के लिए इसे खत्म करने की बड़ी चुनौती है। झारखंड को उस पुराने बाबूलाल मरांडी की जरूरत है, जो हमेशा मुद्दों की राजनीति करते थे और अपनी साफगोई के कारण हमेशा राजनीति की लाइमलाइट में रहे। वह बाबूलाल जो कभी पार्टी कार्यालयों में कैद नहीं रहे, बल्कि विषम परिस्थिति में भी जो पदयात्रा के माध्यम से जनता के बीच रहते थे। लोग बाबूलाल की उस तसवीर को देखना चाहते हैं, जो अपने मुख्यमंत्रित्व काल में यह कहने का साहस रखते थे कि उनके राज में हो रहे भ्रष्टाचार से उन्हें नींद नहीं आती। बाबूलाल की वह तसवीर लोगों को याद आ रही है, जब वह पैनम कोल इंडिया के खिलाफ मजदूर हित में धरना पर बैठे थे। जिन्होंने संथाल हित में अडाणी जैसी कंपनी को नाकों चने चबवा दिये थे।

    Babulal's biggest challenge in his career
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