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आजादी के बाद भारत की राजनीति को जिन दो घटनाओं ने सबसे अधिक प्रभावित किया, उनमें ‘मंडल कमीशन’ एक है। यह मुद्दा उस समय राजनीति के केंद्र में आया, जब दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र एक तरफ राम मंदिर के मुद्दे पर आंदोलित था, तो दूसरी तरफ भ्रष्टाचार के दावानल में लगभग भस्म हो चुका था। उस दौर में ‘मांडा के फकीर’ विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में ‘मंडल सियासत’ का आगाज हुआ था और यह पूरी इमारत चार धुरंधर राजनीतिज्ञों के कंधों पर बुलंद हुई थी। प्रधानमंत्री वीपी सिंह के अलावा इसके तीन अन्य पिलर थे, डॉ राम मनोहर लोहिया के शिष्य मुलायम सिंह यादव और लोकनायक जयप्रकाश नारायण के शिष्य शरद यादव और लालू यादव। इस राजनीति ने इतना जोर पकड़ा कि यह देश की राजनीति की दिशा तय करने लगी। लेकिन इस राजनीति के इन चार पिलरों का क्षरण भी तेजी से शुरू हुआ। पहले वीपी सिंह और अब मुलायम सिंह यादव और शरद यादव के निधन के बाद यह सवाल उठने लगा है कि अब इस ‘मंडल सियासत’ की कमान कौन संभालेगा। इसके अंतिम पिलर लालू यादव स्वास्थ्य कारणों से सियासत में निष्क्रिय हैं, तो क्या अब देश में ‘मंडल सियासत’ खत्म हो जायेगी। यदि खत्म नहीं होगी, तो फिर कौन संभालेगा इस सियासत की कमान, क्योंकि इन राजनीतिज्ञों ने ‘मंडल सियासत’ से पिछड़ों को आवाज तो दी, लेकिन सभी के जीवन का अंतिम चरण लगभग एक जैसा बीता। इन नेताओं का इस्तेमाल तो खूब किया गया, लेकिन अपनों ने ही उन्हें हाशिये पर धकेल दिया। शरद यादव के निधन के बाद ‘मंडल सियासत’ के बारे में पैदा हुए सवालों का जवाब तलाशने की कोशिश कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

देश की सियासत में पिछड़ों की सबसे सशक्त आवाजों में से एक रहे शरद यादव का निधन वाकई एक राजनीतिक युग का अंत है। दिग्गज समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव के निधन के कुछ ही समय बाद शरद यादव के निधन से उस राजनीतिक अवधारणा में एक ‘शून्य’ पैदा हुआ है, जिसे ‘मंडल सियासत’ के नाम से जाना जाता है। आजादी के बाद पहले इमरजेंसी और बाद में मंडल सियासत ने इस देश की राजनीति को बहुत हद तक प्रभावित किया। श्रद यादव इस मंडल सियासत की इमारत के चार स्तंभों में से एक थे। उनके निधन से इस इमारत के तीन स्तंभ अब गायब हो चुके हैं, जबकि चौथे स्तंभ, यानी लालू यादव बीमार होकर निष्क्रिय हैं। ऐसे में यह सवाल तो बनता है कि क्या अब ‘मंडल सियासत’, जिसने पिछड़ों को आवाज दी, खत्म हो जायेगी।
यह सभी जानते हैं कि विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में मुलायम सिंह यादव, शरद यादव और लालू यादव की तिकड़ी देश की राजनीति में काफी मायने रखती थी। पिछड़ी जातियों और मध्यम किसान वर्ग के बढ़ते प्रभाव को ट्रिगर कर इस महत्वपूर्ण तिकड़ी ने उत्तर भारतीय राजनीति में अपना दबदबा बनाया था। यह भी एक संयोग था कि इन तीनों के पास अलग-अलग राजनीतिक गुण थे। मुलायम सिंह यादव जहां प्रभावी प्रशासक माने जाते थे, वहीं लालू यादव को जनता से जुड़ा नेता माना जाता था, जबकि शरद यादव के पास राजनीतिक समझ और जन कौशल था। इन तीनों ने अपने-अपने गुणों का इतना प्रभावी मिश्रण तैयार किया कि देश का पिछड़ा वर्ग इनके पीछे हो गया।
‘मंडल सियासत’ के इन चार स्तंभों में सबसे पहले वीपी सिंह का निधन हुआ। तब जो तिकड़ी बची थी, उसने इस सियासत को नये मुकाम तक जरूर पहुंचाया। इस क्रम में यह भी याद रखा जाना चाहिए कि मुलायम और लालू के मुकाबले शरद यादव के पास व्यापक राजनीतिक करिश्मे का अभाव था, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में उनका आगमन कहीं प्रभावी तरीके से हुआ था।
1979 में जब किसान नेता और तत्कालीन गृह मंत्री चरण सिंह ने जनता पार्टी से अलग होकर लोक दल बनाया और कांग्रेस के समर्थन से कुछ समय के लिए प्रधानमंत्री बने, तब शरद यादव उनकी नयी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बने थे। यह वह दौर था, जब पिछड़ों को किसानों और अल्पसंख्यकों के साथ जोड़ने का अनूठा राजनीतिक प्रयोग चल रहा था। मुलायम सिंह यादव जहां डॉ राम मनोहर लोहिया की समाजवादी परंपरा के अंतिम योद्धा के रूप में इस प्रयोग का एक पहिया बने, वहीं लोकनायक जयप्रकाश नारायण के शिष्य लालू यादव ने इस रथ का दूसरा पहिया बनना स्वीकार किया। इन दोनों ने शरद यादव को रथ का घोड़ा बना दिया और तब भारतीय राजनीति का वह रथ पूरी ताकत से दौड़ने लगा।
‘मंडल सियासत’ के इन चार नायकों में एक अद्भुत विरोधाभास था। सभी की सामाजिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि पूरी तरह अलग थी। वीपी सिंह जहां जमींदार घराने के थे और कांग्रेसी थे, वहीं मुलायम सिंह यादव किसान परिवार से थे और समाजवादी धारा से आये थे। लालू यादव बेहद गरीब परिवार से आते थे और बिना किसी राजनीतिक पृष्ठभूमि के अपने लिए उन्होंने खुद जगह बनायी थी, जबकि शरद यादव मध्यम वर्गीय परिवार से आये थे और मध्यप्रदेश की छात्र राजनीति में समाजवादी धारा का प्रतिनिधित्व करते थे। इन चारों ने अपनी अलग-अलग पृष्ठभूमि को जिस कुशलता से एकाकार किया और एक मुद्दे को लेकर जुटे, वह भी एक अनोखा राजनीतिक प्रयोग ही था।
संयोग का यह सिलसिला यहीं नहीं खत्म हुआ। इस चौकड़ी के जीवन का अंतिम चरण भी कम नाटकीय नहीं है। लालू यादव जहां बीमार होकर विस्तर पर पड़े हैं और राजनीतिक रूप से लगभग निष्क्रिय हैं, वहीं वीपी सिंह, मुलायम सिंह यादव और शरद यादव की विरासत को आगे ले जानेवाला अब कोई नजर नहीं आ रहा है। वीपी सिंह ने किसी को अपनी राजनीतिक विरासत नहीं सौंपी थी, इसलिए उनका दौर उनके साथ ही खत्म हो गया, लेकिन मुलायम ने जिस अखिलेश को अपनी विरासत सौंपी, वही अखिलेश किसी दूसरे दांव में उलझ कर रह गये हैं। बसपा की सोशल इंजीनियरिंग और भाजपा की आक्रामक राजनीति के चक्रव्यूह में वह ऐसे फंस गये हैं कि उन्हें मुलायम की विरासत को भूल जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। जहां तक शरद यादव का सवाल है, तो उन्हें भी उपेक्षा का वह दंश झेलना पड़ा, जिसकी उम्मीद नहीं की जा सकती। चाहे नीतीश कुमार हों या वशिष्ठ नारायण सिंह या फिर पप्पू यादव सरीखे दूसरे नेता, हर किसी ने शरद यादव का इस्तेमाल किया और काम निकल जाने के बाद उन्हें अलग-थलग कर दिया। इस चौकड़ी में अब केवल लालू यादव ही बचे हैं और अब यह देखना दिलचस्प होगा कि तेजस्वी उनकी ‘मंडल सियासत’ की विरासत को कैसे आगे ले जाते हैं।

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