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कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और सांसद राहुल गांधी 147 दिन की पदयात्रा कर श्रीनगर पहुंच गये हैं। उन्होंने लाल चौक पर तिरंगा झंडा फहरा कर अपनी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ समाप्त की है। कांग्रेस की इस बहुचर्चित यात्रा का औपचारिक समापन वैसे तो 30 जनवरी को होगा, लेकिन अब इस बात का मूल्यांकन जरूरी है कि 3570 किलोमीटर की यात्रा से राहुल गांधी ने क्या खोया और क्या पाया। सबसे बड़ा सवाल तो यही उठ रहा है कि क्या राहुल गांधी 2024 में विपक्ष के सर्वमान्य नेता और पीएम नरेंद्र मोदी से मुकाबला करने वाले चेहरे के रूप में उभरे हैं। इस सवाल का जवाब इतना आसान नहीं है, हालांकि यह सही है कि इस यात्रा ने राहुल गांधी की छवि को जरूर सुधार दिया है। समाज के हर वर्ग से, यहां तक कि संघ की तरफ से भी उनकी तारीफ ही हुई। संघ के नेता चंपत राय ने जिस तरह से भारत जोड़ो यात्रा की तारीफ की, राहुल गांधी के लिए वह किसी उपलब्धि से कम नहीं है। इतना ही नहीं, एक और बड़ी बात यह है कि राहुल बिना थके, बगैर छुट्टी लिये, महज टी-शर्ट पहने मंजिल की तरह बढ़ते रहे। ऐसे में कहा जा सकता है कि जब हर तरफ से विरोध के स्वर फूट रहे हों, किसी कोने से निकले तारीफ बड़ा सहारा होते हैं। राहुल गांधी की यात्रा से भले ही विपक्षी एकता की कोशिशों को झटका लगा हो, लेकिन देश के सियासी हलके में उन्होंने एक हलचल जरूर मचा दी है। यह हलचल शायद प्याली में तूफान सरीखा हो और राजनीति की मुख्य धारा में कांग्रेस की वापसी के लिए कारगर न हो, पर राहुल गांधी को इस यात्रा ने परिपक्व जरूर बनाया है। इतना परिपक्व कि वह मीडिया को भी खरी-खोटी सुनाने की कांग्रेसी परंपरा को बरकरार रखने के लिए आतुर दिखे। राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के समापन पर इसका समग्र मूल्यांकन कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

कांग्रेस नेता राहुल गांधी 3570 किलोमीटर की पदयात्रा कर श्रीनगर पहुंच गये हैं। पिछले साल सात सितंबर को तमिलनाडु के कन्याकुमारी से शुरू हुई ‘भारत जोड़ो यात्रा’ 12 राज्यों और दो केंद्रशासित प्रदेशों को पार कर श्रीनगर पहुंच तो गयी है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि इस यात्रा से राहुल गांधी को हासिल क्या हुआ। यात्रा की शुरूआत में ही कहा गया था कि राहुल गांधी जिस सफर पर निकले हैं, उसमें तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन से लेकर बिहार के सीएम नीतीश कुमार और विपक्ष के दूसरे नेताओं से लेकर विभिन्न संगठनों तक सभी की प्रतिक्रियाएं बहुत मायने रखती हैं। लेकिन सबसे अधिक मायने तो उस एक सामान्य कांग्रेसी और उससे भी आगे बढ़ कर एक आम भारतीय की प्रतिक्रिया रखती है, जो भारत की राजनीति की मुख्य धारा में कांग्रेस की वापसी और राहुल गांधी की छवि को बदलने की उम्मीद बांधे हुए था।
दक्षिण से उत्तर तक सड़क पर उतर कर करीब पांच महीने की मशक्कत से राहुल गांधी ने यह तो साफ कर ही दिया है कि कोई उनसे प्यार करे या नफरत , उनको भले ही नजरअंदाज किया जाये, कांग्रेस भले ही राजनीति की मुख्य धारा में नहीं है, लेकिन वह खुद एक मजबूत राजनीतिक हस्ती हैं। पूरी यात्रा के दौरान क्षेत्रीय दलों की विचारधारा को लेकर राहुल गांधी की टिप्पणी के बावजूद राहुल गांधी ने एक राजनीतिक पहचान जरूर कायम कर ली है। यह भी कहा जा सकता है कि राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा के जरिये जो फसल बोयी है, उसका असर 2023 में दिख सकता है, हालांकि 2024 में उठनेवाले सवाल ‘मोदी बनाम कौन’ का जवाब इस यात्रा से भी नहीं मिल सका। इसलिए यह नहीं मान कर चला जा सकता है कि राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा के जरिये 2024 के आम चुनाव के लिए भी सारे बंदोबस्त कर दिये हैं या कोई पुख्ता इंतजाम कर चुके हैं।
भारत जोड़ो यात्रा के जरिये राहुल गांधी ने अब तक जो कुछ पाया है, ऐसे तो नहीं कहा जा सकता कि थोड़ा है, और थोड़े की जरूरत है। राहुल गांधी के केस में यह कहना ही बेहतर होगा कि थोड़ा तो मिल गया है, लेकिन ज्यादा मिलना बाकी है। और यह यूं ही नहीं मिलने वाला है। इसे पाने के लिए राहुल को अभी बहुत पापड़ बेलने पड़ेंगे।
‘भारत जोड़ो यात्रा’ से राहुल गांधी ने जो सबसे बड़ी बात सीखी, वह है, हेडलाइन मैनेजमेंट। राहुल गांधी अक्सर कह भी रहे हैं और यह कोशिश भी रही कि ऐसी कोई हेडलाइन न बन सके, जो पूरी तरह खिलाफ जाती हो। टी-शर्ट के मुद्दे को हैंडल किया जाना ऐसा ही एक उदाहरण है। इस दौरान उन्होंने बार-बार यह संदेश देने की कोशिश की कि मुख्य धारा की मीडिया और दूसरे संस्थानों की विश्वसनीयता पूरी तरह खत्म हो चुकी है। इसीलिए वह जनता से सीधे संवाद करने के लिए खुद उनके पास चलकर आये हैं। लेकिन मीडिया ने जिस तरह से राहुल गांधी की यात्रा को कवर किया, उससे एक बात तो साफ हो गयी कि मीडिया मैनेजमेंट में राहुल गांधी के हाथ जरा तंग हैं। वह अपने पूर्वजों की तरह मीडिया को अपना गुलाम बनाने में विश्वास रखते हैं। लेकिन एक महत्वपूर्ण बात यह है कि राहुल गांधी मीडिया को मसाला देना भी काफी हद तक सीख चुके लगते हैं, क्योंकि भारत जोड़ो यात्रा में अगर वह किसी से गले मिले, तो पलट कर किसी और से मुखातिब होते हुए आंख नहीं मारी।
राहुल गांधी की इस यात्रा के दौरान समाज के अलग-अलग हिस्सों के लोग शामिल हुए। इसकी चर्चा भी खूब हुई, लेकिन कांग्रेस को इस चर्चा की नहीं, चुनावी जीत की जरूरत है। यात्रा के दौरान गुजरात और हिमाचल में विधानसभा चुनाव के अलावा दिल्ली में एमसीडी चुनाव, लोकसभा की एक और पांच राज्यों में विधानसभा की छह सीटों के लिए उपचुनाव भी हुए। गुजरात में भाजपा ने जहां अब तक की सबसे बड़ी जीत दर्ज की, वहीं कांग्रेस को राज्य में अब तक की सबसे बुरी हार का सामना करना पड़ा। हिमाचल में कांग्रेस सरकार बनाने में जरूर कामयाब हो गयी, लेकिन दिल्ली के एमसीडी चुनाव में भी उसका अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन रहा। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हुए उपचुनाव में कांग्रेस को जीत जरूर हासिल हुई। लेकिन इन चुनावी जीत का श्रेय किसी ने राहुल गांधी की यात्रा को नहीं दिया, क्योंकि वह खुद कह चुके थे कि उनकी इस यात्रा का मकसद राजनीतिक नहीं है। राहुल ने कहा था कि ‘भारत जोड़ो यात्रा’ ‘चुनाव जीतो’ या ‘चुनाव जिताओ यात्रा’ नहीं है। हालांकि यात्रा का एक उद्देश्य यह जरूर था कि कांग्रेस संगठन को मजबूत किया जाये, उसे संजीवनी दी जाये। इस मकसद में भी राहुल को कोई कामयाबी मिली, फिलहाल ऐसे संकेत तो नहीं हैं।
राजनीतिक प्रेक्षकों की मानें, तो इस यात्रा ने देश को थोड़ा कन्फ्यूज किया है कि इसका मकसद क्या था। राहुल गांधी ना तो कोई दार्शनिक हैं, ना ही कोई धर्म गुरु हैं, राहुल गांधी पूरी तरह एक राजनेता हैं, तो फिर उन्हें राजनीति से अलग करके नहीं देखा जा सकते है। कुल मिला कर यात्रा के दौरान लोग राहुल गांधी से जुड़ते हुए जरूर दिखे, लेकिन राजनीतिक तौर पर इससे क्या हासिल हुआ, फिलहाल यह तय कर पाना मुश्किल है।

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