- झामुमो की खतियानी जोहार यात्रा, कांग्रेस की हाथ जोड़ो यात्रा, तो भाजपा की चाइबासा में अमित शाह के नेतृत्व में महारैली की मंजिल एक ही है: झारखंड फतह
15 नवंबर, 2000 को दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के 28वें राज्य के रूप में राजनीतिक मानचित्र पर उभरा झारखंड अपनी स्थापना के 23वें वर्ष में बेहद रोमांचक दौर में प्रवेश कर गया है। खनिज संपदाओं और प्राकृतिक खूबसूरती से भरे-पूरे इस प्रदेश के लिए वर्ष 2023 का आगाज बेहद नाटकीय अंदाज में हुआ है, लेकिन एक बात, जो सभी का ध्यान खींच रही है, वह यह है कि अचानक इस राज्य के राजनीतिक दल इतने सक्रिय क्यों हो गये हैं। सत्तारूढ़ झारखंड मुक्ति मोर्चा पिछले दो महीने से अपने कार्यकारी अध्यक्ष और सीएम हेमंत सोरेन से खतियानी जोहार यात्रा करा रहा है, तो सत्ता में उसकी सहयोगी कांग्रेस भी अपने नेता राहुल गांधी की तीन महीने पुरानी भारत जोड़ो यात्रा का मिनी संस्करण यहां शुरू करने के साथ 26 जनवरी से हाथ से हाथ जोड़ो यात्रा शुरू करनेवाली है। इन दोनों दलों के बाद अब भाजपा भी मैदान में उतर गयी है। पार्टी के दूसरे सबसे बड़े नेता और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह आगामी 7 जनवरी को चाईबासा के दौरे पर आ रहे हैं और उनकी यह यात्रा भी कमोबेश राजनीतिक ही रहनेवाली है। इन तीनों प्रमुख दलों की अचानक बढ़ी सक्रियता से यह साफ होने लगा है कि आनेवाला समय झारखंड के लिए बहुत रोमांचक और अहम होनेवाला है। गुजरे वर्ष की दूसरी छमाही के दौरान झारखंड में जिस तरह की घटनाएं हुईं और कभी राजनीतिक प्रयोगशाला के रूप में चर्चित इस राज्य के बारे में तरह-तरह की बातें होने लगीं, ऐसा लगने लगा था कि यह राज्य एक बार फिर 2014 के पहले वाली स्थिति में पहुंच रहा है, लेकिन संयोग से ऐसा नहीं हुआ और अब 2023 में झारखंड में क्या कुछ हो सकता है, इसकी संभावनाएं टटोल रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राहुल सिंह।
अपनी स्थापना के 23वें वर्ष में झारखंड एक अजीब से दोराहे पर खड़ा है। झारखंड में और यहां के सवा तीन करोड़ लोगों के साथ पिछले 22 वर्ष में क्या हुआ और क्या होना चाहिए था, इस पर कोई टिप्पणी किये बिना यह कहा जा सकता है कि झारखंड की स्थापना का 23वां वर्ष, यानी 2023 इसके लिए बेहद अहम होनेवाला है। उम्मीद की जानी चाहिए कि जिस दोराहे का जिक्र ऊपर किया गया है, उससे झारखंड निकल आयेगा।
दरअसल झारखंड की यह दुविधा 2022 के उत्तरार्द्ध में घटित घटनाओं के कारण पैदा हुई। यह समय जिस सियासी सनसनी में पगे-सने रहे, वह बता रहा है कि अभी बहुत कुछ होना बाकी है। गुजरा वर्ष जहां रांची और दिल्ली के बीच के तल्ख रिश्तों में डूबता-उतराता रहा, उसका असर और उसकी धमक इस साल भी सुनाई देनी स्वाभाविक ही है। दिल्ली और रांची के रिश्ते वैसे तो उसी दिन से खराब हो गये थे, जब तीन वर्ष पहले झारखंड की सत्ता पर झामुमो के नेतृत्व वाले महागठबंधन का कब्जा हो गया था।
राजनीतिक सक्रियता से हुआ 2023 का आगाज
ऐसे में यह जानना महत्वपूर्ण है कि झारखंड में अचानक राजनीतिक सक्रियता क्यों बढ़ गयी है, जबकि विधानसभा चुनाव में अभी डेढ़ साल से भी अधिक का समय है। सत्तारूढ़ झारखंड मुक्ति मोर्चा, उसकी सहयोगी कांग्रेस और विपक्षी दल भाजपा झारखंड में बेहद सक्रिय नजर आने लगे हैं। यात्राओं का आयोजन हो रहा है और इन यात्राओं से जनता को साधने की कवायद शुरू हो गयी है। 29 दिसंबर को हेमंत सरकार के तीन साल पूरे हुए हैं। उस दिन सरकार ने अपनी उपलब्धियां गिनायीं, वहीं भाजपा विफलताओं की सूची लेकर हमलावर है।
राजनीतिक नजरिये से देखने पर साफ लगने लगा है कि 2023 के साल में बहुत कुछ ऐसा होगा, जिसकी उम्मीद किसी ने नहीं की है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन अपनी खतियानी जोहार यात्रा के तीसरे चरण में निकल चुके हैं। अपनी सरकार के तीन साल पूरे होने के मौके पर मीडिया से बातचीत में उन्होंने जिस तरह की बातें कहीं, उनसे एक बात तो साफ हो गयी कि हेमंत सोरेन इतनी आसानी से हार माननेवालों में नहीं हैं। तमाम अवरोधों और विरोधों के बावजूद उन्होंने सरना धर्मकोड से लेकर 1932 के खतियान का मुद्दा और आरक्षण-नियोजन नीति पर फैसले किये हैं, उनसे उनके इरादों का पता चल गया है। अपनी खतियानी जोहार यात्रा के सहारे वह झामुमो की उस जमीन को मजबूत बनाने के साथ सुरक्षित भी बनाना चाहते हैं, जिसने उन्हें 2019 में सत्ता सौंपी थी। इसलिए झामुमो भी दिल्ली पर कोई भी हमला करने का अवसर हाथ से जाने नहीं दे रहा है। गठबंधन की सरकार चलाने के बावजूद हेमंत सोरेन अपनी पार्टी के चुनावी वायदों पर कोई समझौता नहीं कर रहे हैं। उनकी इस यात्रा का एक उद्देश्य यह भी हो सकता है कि वह अकेले दम पर अपनी ताकत को तौलना चाहते हैं, हालांकि इस बात के कोई पुख्ता संकेत अब तक नहीं मिले हैं।
इसी तरह सत्ता में उनकी सहयोगी कांग्रेस अपना राजनीतिक वजूद बचाने के लिए लगातार संघर्ष कर रही है। अपने नेता राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का मिनी संस्करण झारखंड में निकालने के बावजूद पार्टी अंदरूनी कलह से इस कदर परेशान है कि उसके लिए एक कदम भी आगे बढ़ाना मुश्किल हो रहा है। इसके बावजूद पार्टी ने 26 जनवरी से हाथ से हाथ जोड़ो अभियान शुरू करने का फैसला किया है, जो इसकी आखिरी राजनीतिक कोशिश हो सकती है। 2019 के विधानसभा चुनाव में अब तक का अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करनेवाली कांग्रेस के लिए 2024 करो या मरो जैसा होनेवाला है। आम चुनाव के साथ-साथ विधानसभा चुनाव उसके लिए बड़ी चुनौती साबित होंगे। ऐसे में इस तरह के अभियान से उसे कितनी मदद मिलेगी, यह देखनेवाली बात होगी।
अब एक नजर भाजपा की रणनीति पर। झारखंड अलग राज्य के लिए आंदोलन करने का क्रेडिट भले ही झामुमो के पास हो, अलग राज्य बनाने का श्रेय तो भाजपा के पास ही है। लेकिन 2000 से लेकर 2019 तक अधिकांश समय झारखंड की सत्ता में रहने के बावजूद पार्टी वह लक्ष्य हासिल नहीं कर सकी, जिसकी वह हकदार हो सकती थी। इसे पार्टी के स्थानीय नेताओं की कमजोरी कहें या रणनीतिक खामियां, 2019 में भाजपा झारखंड की सत्ता से बाहर हो गयी। अपनी पुरानी खोयी हुई जमीन को वापस पाने के लिए पार्टी एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है। इस लिहाज से 2023 का साल उसके लिए बेहद महत्वपूर्ण होेनेवाला है। पार्टी ने पिछले तीन वर्षों के दौरान सत्तारूढ़ दल को हमेशा कठघरे में रखा, लेकिन इसका प्रभाव जमीन पर नजर नहीं आया। अब इस प्रभाव का आकलन करने का समय आ गया है। इसलिए भाजपा के दूसरे सबसे बड़े नेता और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह आगामी 7 जनवरी को झारखंड दौरे पर आ रहे हैं। वह चाइबासा में कई कार्यक्रमों में भाग लेंगे और साथ ही एक रैली को भी संवोधित करेंगे। अमित शाह का यह दौरा राजनीतिक रूप से बेहद संवेदनशील है, क्योंकि पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा कोल्हान की एक भी सीट पर जीत हासिल नहीं कर सकी थी। चाइबासा, जमशेदपुर और सरायकेला-खरसावां जिलों को मिला कर बनाये गये कोल्हान प्रमंडल में कभी नक्सलियों की तूती बोलती थी, तो लौह अयस्क की तस्करी के लिए यह इलाका कुख्यात था। अब अमित शाह अपनी यात्रा के माध्यम से इस इलाके को कितना साध पाते हैं, यह देखना बेहद दिलचस्प होगा।
यहां एक और बात ध्यान देनेवाली है। झामुमो, कांग्रेस और उसके सहयोगी महंगाई और बेरोजगारी को लेकर केंद्र सरकार पर हमलावर हंै। अब भाजपा उसी को हथियार बना रही है। झारखंड में कानून-व्यवस्था से लेकर बेरोजगारी तक भाजपा के हथियार बन चुके हैं। राज्य सरकार की कवायद के बावजूद रोजगार के मोर्चे पर वह वादे से अभी बहुत दूर है। नौकरियों के सवाल पर भाजपा कहती है कि जनता बिचौलियों से परेशान है। इस झकझूमर में एक बात तय है कि इससे झारखंड में लोकतांत्रिक संस्थाएं मजबूत हो रही हैं, लेकिन इन गतिविधियों से सवा तीन करोड़ लोगों का कितना भला हो रहा है, यह अभी देखना बाकी है।