-16 वर्ष की उम्र में पहना भगवा, बोलतीं तो मानो युद्धभूमि में तलवारों की टंकार गूंज रही हो
-तंबू भी तनेगा तो तनेगा धूमधाम से, बंबू भी लगेगा तो लगेगा धूमधाम से : साध्वी ऋतंभरा
-यूं ही नहीं मिला प्राण प्रतिष्ठा समारोह का पहला निमंत्रण पत्र

सूरज अपनी गरिमा छोड़ सकता है। चंद्रमा अपनी शीतलता का परित्याग कर सकता है। सागर अपनी सीमाओं का उल्लंघन कर सकता है, पर राम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण को विश्व की कोई ताकत रोक नहीं सकती। यह एक साध्वी का संकल्प है, एक रामभक्त का ओज और मां भारती की आराधना में लीन एक तपस्विनी की हुंकार। अयोध्या में कारसेवकों पर उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की सरकार ने गोलियां चलवायी थीं। पुलिस की बंदूकों ने जिन कारसेवकों का असमय प्राण हर लिये, उनके संकल्प एक-एक हिंदू के रग-रग में संचारित होते रहें, इसके लिए वह साध्वी आज दहाड़ रही थीं। एक-एक शब्द मानो युद्ध का निनाद था, हरेक भाव-भंगिमा मानो युग परिवर्तन का आह्वान और सामने रामभक्तों का जनसैलाब। वह स्थान देश की राजधानी दिल्ली का इंडिया गेट था, जहां श्रीराम कारसेवा समिति, विश्व हिंदू परिषद और राम जन्मभूमि न्यास के बुलावे पर दुनिया के कोने-कोने से रामभक्तों का जनसैलाब उमड़ पड़ा था। जिधर दृष्टि पड़े, रामभक्तों का तांता। मंच पर लगे माइक से जो आवाज रामभक्तों में जोश का संचार कर रही थी, वह आवाज थी- साध्वी ऋतंभरा की। कैसे साध्वी ऋतंभरा ने राम मंदिर आंदोलन में जान फूंका और कैसे बनीं इस आंदोलन की बुलंद आवाज, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

16 वर्ष की उम्र में भगवा चोला पहन लिया, बोलतीं तो मानो युद्धभूमि में तलवारों की टंकार
पंजाब के लुधियाना स्थित दोराहा में जन्मीं निशा ने महज 16 वर्ष की उम्र में भगवा चोला पहन लिया था। हरिद्वार के गुरु परमानंद गिरी ने उन्हें साध्वी जीवन का नया नाम दिया- ऋतंभरा। आज भी साध्वी ऋतंभरा की वाणी में ऐसा ओज है कि वह सुनने वालों में एक गजब सी कशिश पैदा कर देती है। तब ऋतंभरा युवावस्था में थीं। वह बोलतीं तो ऐसा लगता मानो युद्धभूमि में तलवारों की टंकार गूंज रही हो। उनके एक-एक शब्द संकल्पों की सिद्धि को प्रेरित करता और रामभक्तों में नये जज्बे का संचार कर देता। वह बेबाक थीं, कोई डर नहीं, कोई संशय नहीं। इसलिए दिल की बात बेझिझक उनकी जुबां पर आ जाती। दिल्ली की ही उस रैली में साध्वी ऋतंभरा ने मुलायम सिंह यादव को कातिल और हिजड़ा जैसे शब्दों से नवाजा, तो राम मंदिर का विरोध करने वालों को कुत्ता तक कहा।
ये राम द्रोही नेताओं के प्राण इनकी कुर्सी में रहते हैं, इनकी कुर्सी छीन लो, ये अपने आप कुत्ते की मौत मर जायेंगे
साध्वी ऋतंभरा एक रामभक्त से अपनी बातचीत का जिक्र करते हुए कहती हैं, मैंने उससे कहा, तुम एक हिजड़े को मारने के लिए गोली बर्बाद करोगे? दरअसल, कारसेवकों की हत्या से दुखी उस रामभक्त ने पास में बंदूक रखने की इच्छा साध्वी ऋतंभरा के सामने जतायी थी, जिस पर साध्वी ने उसे समझाते हुए कहा कि राम के विरोधी नेताओं पर गोलियां चलाने की जरूरत नहीं है, उन्हें कुर्सी से हटा दो। वह मंच से कहती हैं, ये राम द्रोही नेताओं के प्राण इनकी कुर्सी में रहते हैं, इनकी कुर्सी छीन लो, ये अपने आप कुत्ते की मौत मर जायेंगे। इनको मारने के लिए किसी बम-बारूद, गोली की जरूरत नहीं है। इसी बेबाकी से साध्वी ऋतंभरा मंच से आवाज देतीं, तो रामभक्तों का संकल्प और गहरा हो जाता। उनकी कविताएं देशप्रेमियों के दिलों को बखूबी सिंचित करतीं। साध्वी ऋतंभरा कहा करतीं हैं, हिंदू हो या मुसलमान, जिसको इस देश से प्यार नहीं, तो फिर उसको इस देश में रहने का कोई अधिकार नहीं।

तंबू भी तनेगा तो तनेगा धूमधाम से, बंबू भी लगेगा तो लगेगा धूमधाम से: साध्वी ऋतंभरा
तंबू भी तनेगा तो तनेगा धूमधाम से, बंबू भी लगेगा तो लगेगा धूमधाम से, युद्ध भी ठनेगा तो ठनेगा धूमधाम से, हर्ष भी मनेगा तो मनेगा धूमधाम से, हिंदू जो करेगा, वो करेगा धूमधाम से, रामजी का मंदिर बनेगा धूमधाम से, मिर्ची लग रही है वोट वालों को, मत वाले मतवालों से टकराके देख लीजिए, जोर है तो जोर आजमाके देख लीजिए, जीतता है राम या हराम जीतता है, अब एक बार निर्वाचन करवा के देख लीजिए हैसियत का पता चल जायेगा अंजाम से, रामजी का मंदिर बनेगा धूमधाम से।
आरएसएस से जुड़ीं, फिर अयोध्या आंदोलन की ताकत बनीं
दरअसल, 1980 के दशक में विश्व हिंदू परिषद ने अयोध्या में राम जन्मभूमि पर राम मंदिर के निर्माण का आंदोलन छेड़ा तो इससे देशभर के साधु-संत जुड़ने लगे। एक ओजस्वी वक्ता के रूप में साध्वी ऋतंभरा राम मंदिर आंदोलन का प्रमुख चेहरा बन गयीं। इससे पहले साध्वी ऋतंभरा ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की महिला संगठन राष्ट्रीय सेविका समिति से भी जुड़ी थीं। लेकिन वीएचपी के कार्यक्रमों के जरिये उन्होंने हिंदू जागृति अभियान की कमान संभाल ली। 1990 में जब अयोध्या आंदोलन ने जोर पकड़ लिया तो साध्वी ऋतंभरा घर-घर जाने लगीं। 06 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद का ढांचा गिराया गया, तो वह अयोध्या में ही थीं। इसलिए लिब्राहन आयोग ने बाबरी विध्वंस के लिए जिन 68 आरोपियों की सूची बनायी, उसमें साध्वी ऋतंभरा का भी नाम था। आयोग ने अपनी जांच रिपोर्ट में लिखा कि साध्वी ऋतंभरा ने तीखे भाषणों के जरिये मस्जिद विध्वंस का माहौल बनाया था।

एमपी की दिग्विजय सरकार ने साध्वी ऋतंभरा को भेजा था जेल
अयोध्या में राम जन्मभूमि से बाबरी मस्जिद का ढांचा गिराये जाने के तीन साल ही हुए थे कि मध्य प्रदेश में साध्वी ऋतंभरा को गिरफ्तार कर लिया गया। तब एमपी में कांग्रेस की सरकार थी और मुख्यमंत्री थे दिग्विजय सिंह। साध्वी ऋतंभरा ने इंदौर की एक जनसभा में इसाइ मिशनरियों की तरफ से हिंदुओं का धर्म परिवर्तन करवाये जाने पर अपनी चिंता जाहिर की। तब सीएम दिग्विजय सिंह के आदेश पर मध्य प्रदेश की पुलिस ने साध्वी ऋतंभरा को भड़काऊ भाषण देने के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। हाइकोर्ट से जमानत मिलने के बाद साध्वी ऋतंभरा 11 दिन बाद जेल से निकल पायीं। उसके बाद वह धीरे-धीरे थोड़ा गुप्त रहने लगीं।

नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ की सरकार में मंदिर नहीं बनेगा तो फिर कब बनेगा?
बाद में साध्वी ऋतंभरा ने वृंदावन में वात्सल्य ग्राम की स्थापना की। उन्होंने मध्य प्रदेश के ओंकारेश्वर और हिमाचल प्रदेश के सोलन में भी वात्सल्य ग्राम बनवाये। बाद में इसकी शाखाओं का विस्तार होता रहा। वात्सल्य ग्राम के बच्चे उन्हें दीदी मां कहकर पुकारते हैं। दीदी मां को पुस्तकें पढ़ने का शौका है। उन्हीं दीदी मां के वृंदावन स्थित वात्सल्य ग्राम में देश का पहला बालिका सैनिक स्कूल भी खुला है। साध्वी ऋतंभरा के प्रवचन आज भी लोगों को आह्लादित करते हैं। उनके प्रवचनों को पसंद करने वालों की संख्या करोड़ों में हैं। साध्वी ऋतंभरा रामकथा करती हैं और श्रीमद्भागवत कथा भी। वह आज भी बेधड़क, बेहिचक अपने मन की बात कहती हैं। 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी तो मीडिया ने साध्वी ऋतंभरा का विचार जानना चाहा। एक टीवी इंटरव्यू में साध्वी ऋतंभरा ने बिना लाग-लपेट कह डाला, राम रहेंगे टाट में, भक्त रहेंगे ठाठ से? ऐसा नहीं होना चाहिए। नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ की सरकार में मंदिर नहीं बनेगा तो फिर कब बनेगा?

रामलला प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम का पहला निमंत्रण पात्र मिला
यह वही साध्वी ऋतंभरा थीं, जिन्होंने महज 15 वर्ष पहले यानी 2014 से पहले 14 अप्रैल, 2008 को नरेंद्र मोदी को राष्ट्रनायक बताया था। अहमदाबाद के टैगोर हॉल में साध्वी ऋतंभरा ने कहा था, मैं आज गुजरात के लोकनायक की पुस्तक के लोकार्पण कार्यक्रम में नहीं आयी हूं, मैं राष्ट्रनायक के रूप में नरेंद्र भाई मोदी को देखती हूं। वह अवसर था गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की लिखी पुस्तक ज्योतिपुंज के लोकार्पण का। 05 अगस्त, 2019 को राम मंदिर के भूमि पूजन के लिए अयोध्या पहुंचे उस राष्ट्रनायक नरेंद्र मोदी ने रामलला को दंडवत प्रणाम किया तो साध्वी ऋतंभरा गदगद हो रही थीं। आज वह हर इंटरव्यू में उस दृश्य का बखान करती हैं और कहती हैं, यह एकजुट हिंदुओं के दृढ़संकल्प का परिणाम है। रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के कार्यक्रम का पहला निमंत्रण पत्र साध्वी ऋतंभरा को ही मिला।

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रामलला के एकमात्र ‘रामसखा’ जस्टिस देवकी नंदन अग्रवाल
मां के कहने पर उठाया था मंदिर आंदोलन का बीड़ा
न्यायमूर्ति देवकी नंदन अग्रवाल राम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन के इतिहास के उन अमर नायकों में शामिल हैं, जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता। उनकी कोशिशों से ही अदालत में फैसला मंदिर के पक्ष में आया और राम मंदिर के लिए भूमि अधिग्रहण का भी मार्ग प्रशस्त हो सका था। मुकदमे की पैरवी के समय हमेशा न्यायमूर्ति देवकीनंदन के साथ जाने वाले उनके भांजे डॉ. सिद्धार्थ बताते हैं कि मंदिर को लेकर फैजाबाद के सिविल कोर्ट में चल रहे मुकदमे में सबसे बड़ी दिक्कत थी कि मंदिर का पक्ष रखने वाला कोई नहीं था। जो पक्षकार मुकदमा लड़ रहे थे, उनका सीधे मंदिर से कोई जुड़ाव नहीं बनता था। ऐसे में सखा के रूप में जस्टिस देवकीनंदन को इस मुकदमे का पक्षकार बनाया गया था और वह आजीवन इसके लिए लड़ते रहे।
मरते दम तक बने रहे ‘रामसखा’, निर्णायक साबित हुई भूमिका

राम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन को सफल बनाने में जिन नायकों को इतिहास कभी नहीं भुला नहीं पायेगा, उनमें एक नाम इलाहाबाद हाइकोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस देवकीनंदन अग्रवाल का भी हैं। मंदिर आंदोलन को निर्णायक विजय में बदलने में उनकी भूमिका अहम साबित हुई। यह जस्टिस देवकीनंदन की सूझबूझ का ही नतीजा है कि अदालत में फैसला न सिर्फ मंदिर के पक्ष में आया, बल्कि राम मंदिर के लिए भूमि अधिग्रहण का रास्ता भी साफ हो सका। मंदिर को लेकर फैजाबाद के सिविल कोर्ट में चल रहे मुकदमे में सबसे बड़ी अड़चन थी कि मंदिर का पक्ष रखने वाला कोई नहीं था। जो पक्षकार मुकदमा लड़ रहे थे, उनका सीधे मंदिर से कोई जुड़ाव नहीं बनता था। ऐसे में जस्टिस देवकीनंदन ने ही सुझाया कि हमें रामलला विराजमान को ही पक्षकार बनाना चाहिए। जब रामलला खुद पक्षकार बन जायेंगे, तो यह अड़चन दूर हो जायेगी। प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति को सिविल कानून में जीवित व्यक्ति के समान दर्जा प्राप्त है। चूंकि रामलला ईश्वर हैं, इसलिए उनकी मृत्यु नहीं हो सकती। इस बारे में अशोक सिंघल से भी वार्ता हुई। उनकी सहमति मिलने के बाद उन्होंने एक जुलाई 1989 को लखनऊ खंडपीठ ने रामलला विराजमान को पक्षकार बनाने के लिए याचिका दाखिल की। यह याचिका स्वीकार कर ली गयी। मगर चूंकि रामलला विराजमान बाल रूप में हैं, इसलिए उनका प्रतिनिधित्व करने के लिए ‘रामसखा’ की आवश्यकता थी। जस्टिस देवकीनंदन ने स्वयं को ‘रामसखा’ के रूप में प्रस्तुत करते हुए सिविल सूट नंबर पांच दाखिल किया। उनको पक्षकार संख्या एक के तौर पर दर्ज किया गया। जस्टिस देवकीनंदन के मम्फोर्डगंज स्थित आवास पर ही इस अर्जी का पूरा ड्राफ्ट तैयार किया गया। उन्होंने खुद इम्प्लीडमेंट अर्जी दाखिल की। यह कदम निर्णायक साबित हुआ। रामलला विराजमान को पक्षकार बनाने का नतीजा यह रहा कि विवादित स्थल का फैसला रामलला के पक्ष में आया और सरकार भी बिना किसी बाधा के मंदिर के लिए भूमि अधिग्रहण कर सकी। अन्यथा किसी अन्य संस्था अथवा व्यक्ति के लिए सरकार की ओर से अधिग्रहण करने में बाधा है। वह आठ अप्रैल 2002 को निधन होने तक ‘रामसखा’ बने रहे। जस्टिस देवकीनंदन का योगदान आंदोलन में मील का पत्थर साबित हुआ। इतना ही नहीं वह जब तक जीवित रहे, लोगों को निरंतर उनकी मदद मिलती रही। वह खुद सिविल कानून के माहिर वकील और जज थे। इसलिए कानूनी पेचीदगियों पर उनकी सलाह बहुत अहम और उपयोगी होती थी।
मां के कहने पर उठाया था मंदिर आंदोलन का बीड़ा
सेवानिवृत्त होने के बाद उन्होंने अपनी मां के कहने पर मंदिर आंदोलन में सहयोग करने का निर्णय लिया था। उन्होंने अयोध्या में सरयू के तट पर जाकर शपथ ली थी कि रामलला का मंदिर बनवाने का हरसंभव प्रयास करेंगे। अशोक सिंघल से उनकी काफी घनिष्ठता थी। वह अक्सर जस्टिस देवकीनंदन से मंदिर आंदोलन को लेकर सलाह लेने आते थे।
जस्टिस अग्रवाल की बेटी लंदन से आयेंगी अयोध्या
22 जनवरी को प्राण प्रतिष्ठा के मौके पर रामलला की मुक्ति के लिए जीवन पर्यंत संघर्ष करने वाले रामलला के इकलौते मित्र जस्टिस देवकीनंदन अग्रवाल की याद आयोजकों को आयी है। जन्मभूमि की मुक्ति के लिए रामलला विराजमान के सखा के रूप में मुकदमा दाखिल करने वाले न्यायमूर्ति देवकीनंदन अब इस दुनिया में नहीं रहे, लेकिन बर्मिंघम में रहने वाली उनकी पुत्री डॉ मीनू अग्रवाल अपनी पुत्री के साथ अयोध्या के समारोह में विशिष्ट मेहमान बनकर आयेंगी।
विहिप के महामंत्री चंपत राय ने डॉ मीनू अग्रवाल को न्योता भेजने के बाद फोन पर बात कर प्राण-प्रतिष्ठा महोत्सव में शामिल होने की खुशखबरी दी। इसके बाद मीनू के घर में उनके रिश्तेदारों और भारतीय मूल के परिचितों की ओर से बधाई देने का सिलसिला शुरू हो गया है। बर्मिंघम के सटरन कोर्ट फील्ड स्थित उनके घर में उत्सव का माहौल है। रामलला विराजमान की ओर से जन्मभूमि की मुक्ति के लिए उनके पिता ने आजीवन मुकदमा लड़ा था। अब जब गर्भगृह में रामलला के बालरूप की प्राण-प्रतिष्ठा का शुभ दिन तय हो गया है, तब उनकी खुशी का ठिकाना नहीं है।
78 वर्षीया मीनू ने बताया कि कोरोना काल के बाद से ही तबीयत ठीक नहीं रह रही है, लेकिन इस खुशी के मौके पर कई गुना ताकत बढ़ गयी है। कदम रुक नहीं रहे हैं। वह अपनी बेटी अनुराग के साथ अयोध्या आयेंगी। 20 जनवरी को उनकी फ्लाइट दिल्ली पहुंचेगी। वहां से वह सबसे पहले अपने भाई विभव अग्रवाल के घर जायेंगी। वहां से 21 को वह अयोध्या टैक्सी से जायेंगी। वहां मंदिर के पास ही अरविंदो आश्रम में उनके रहने का इंतजाम किया गया है। डॉ मीनू 1965 में शादी होने के बाद से ही बर्मिंघम में रह रही हैं।

कार सेवकों पर गोलियों की बौछार के बीच रामकृपा से बची थी राजाराम यादव की जान
प्राण-प्रतिष्ठा महोत्सव का उल्लास देखकर वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो राजाराम यादव भावुक हो उठते हैं। वह बताते हैं कि 1987 में असम के शिवसागर में वह ओएनजीसी में भूगर्भ वैज्ञानिक के पद पर तैनात थे। उसी समय आरएसएस के शिविर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सर संघ चालक बाला साहब देवरस ने श्रीराम जन्मभूमि मंदिर का ताला खुलने की जानकारी दी थी। इस समाचार से मन में अलौकिक स्पंदन हुआ और नेत्र सजल हो उठे थे। वह खुशी का ऐसा भाव था, जिसे व्यक्त कर पाना कठिन है।
वह कहते हैं, मन में उठा ज्वार श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन की तरफ धकेलने लगा, लेकिन ओएनजीसी के भू-वैज्ञानिक के रूप में कर्तव्य आड़े आ रहे थे। भगवान राम के प्रति उपजे समर्पण और सेवा भाव ने अंतत: भूवैज्ञानिक पद से त्यागपत्र दिलवा दिया। ओएनजीसी ने एक वर्ष बाद त्यागपत्र स्वीकार कर लिया। इसके बाद 1988 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रयाग महानगर प्रचारक का दायित्व मिला। मेरी स्मृति में 1990 का वह विशाल जनसमूह आज भी तैरता है, जब शिला पूजन के लिए लंबा कारवां अयोध्या की ओर चल पड़ा। प्रयाग में लाखों के जन ज्वार का नेतृत्व स्वामी वासुदेवानंद कर रहे थे।
संघ के प्रचारक के रूप में इस पुनीत कार्य की व्यवस्था का जिम्मा मुझ पर भी था। इस विशाल जनसमूह में फाफामऊ में ही अधिकांश को गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन कुछ लोग अयोध्या पहुंचने में सफल रहे। 29 अक्तूबर 1990 को कारसेवकों की विदाई के बाद 31 अक्तूबर 1990 को प्रयाग से सात कार्यकर्ता गावों के मार्ग से अयोध्या कारसेवा के लिए निकल पड़े। 90 किलोमीटर का यह मार्ग हम सबके लिए अपरिचित था, लेकिन राम कृपा से निर्बाध रूप से चलते गये। रास्ते के गांवों में भक्तों ने हमको भगवान राम के सेवक की तरह मानकर सेवा की।
कारसेवा की याद को किया साझा
31 अक्तूबर को रास्ते में अयोध्या पहुंचे कार सेवकों की ओर से बाबरी ढांचे के गुंबद के ऊपर विजय ध्वज फहराये जाने की सूचना मिली। इस सूचना ने मन में असीम साहस एवं ऊर्जा का संचार किया। नवंबर की पहली तारीख थी, जब हम भगवान राम की जन्मस्थली अयोध्या पहुंच गये। सायंकाल का समय था। मणिराम छावनी परिसर में अशोक सिंघल दो नवंबर 1990 को राम जन्मभूमि परिसर घेरने का आह्वान कर रहे थे। छावनी में एकत्र जनसमूह इतना विशाल था कि गेट से प्रवेश कर पाना संभव नहीं था। इसलिए हम लोग बाउंड्री के सहारे छत पर जाकर आंदोलन के नायक अशोक सिंघल का उद्बोधन सुनने लगे। दो नवंबर को योजनानुसार हनुमान गढ़ी वाले मुख्य मोर्चे में कारसेवा के लिए हम लोग आगे बढ़ गये। हम लोग मुख्य सड़क पर प्रवेश करने ही वाले थे कि छतों के ऊपर से गोलियों की बौछार होने लगी। प्रभु श्रीराम को मुझसे कुछ और भी कार्य करवाना था, ऐसे में दैवीय संयोगवश मैं बच गया। कारसेवकों के संकल्प एवं धैर्य में कोई कमी नहीं आयी। करीब घंटे भर बाद परमहंस महंत रामचंद्रदास महाराज की जीप आयी और शहीद कोठारी बंधुओं के शवों सहित घायल कार सेवकों को ले गयी। इसके बाद हम धीरे-धीरे पुलिस से बचते हुए छिपते हुए कारसेवकपुरम पहुंच गये। तीन नवंबर को सरकार से हुए समझौते के अनुसार हम लोगों को रोडवेज की बसों से प्रयागराज भेज दिया गया।
प्रो यादव बताते हैं, रामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान कारसेवा का यह अनुभव स्मृति पटल पर अब भी अंकित है। इस पर समय की धूल नहीं जम पायी है। कारसेवकों का त्याग बलिदान ताजा है। संपूर्ण देश से आये कारसेवक मित्रों की याद आती रहती हैं। मन बेहद प्रसन्न है कि गुलामी के प्रतीक बाबरी ढांचा विध्वंस के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कुशल नीति के परिणामस्वरूप रामलला भव्य मंदिर में विराजमान होने जा रहे हैं।

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