रांची। लोकसभा चुनाव में आजसू भाजपा के साथ बंधन तोड़ एकला चलो की राह पर नजर आ रही है। पार्टी की तीन सीटों पर मजबूत दावेदारी के चलते उम्मीदवार देने पर मंथन हो रहा है। रांची, गिरिडीह और हजारीबाग में आजसू उम्मीदवार देने का मन बना चुकी है। अगर ऐसा होता है तो भाजपा को महागठबंधन के अलावा सहयोगी पार्टी आजसू से भी दो-दो हाथ करने होंगे। तीनों सीटों पर कुर्मी प्रत्याशी को ही उम्मीदवार बनाये जाने की चर्चा है। ऐसे में आजसू एक बार फिर कुर्मी मतदाताओं को साधने की जुगत में है। हजारीबाग से चंद्रप्रकाश चौधरी और गिरिडीह से लंबोदर के उम्मीदवार बनाये जाने की चर्चा है।
वहीं रांची से भी कुर्मी प्रत्याशी को ही टिकट देने की बात चल रही है। तीनों सीटों आजसू के प्रत्याशी देने की स्थिति में भाजपा को ही नुकसान उठाना पड़ सकता है। खासकर रांची में रामटहल चौधरी को भारी नुकसान हो सकता है। कारण कुर्मी वोट रामटहल चौधरी को मिलता रहा है। आजसू के प्रत्याशी देने पर इस वोट बैंक में सेंधमारी तय है। कारण सिल्ली में आजसू की पकड़ मजबूत है। भले ही वहां से झामुमो के अमित महतो और सीमा देवी ने सुदेश को हराया, लेकिन आजसू की सिल्ली में मजबूत पकड़ मानी जाती है। गोमिया का हश्र पिछले चुनाव में जनता देख चुकी है कि कैसे एक अधिकारी वीआरएस लेकर चुनाव मैदान में उतरा और जीत से कुछ कदम ही पीछे रह गया। वह भी उस वक्त जब भाजपा ने पूरा दमखम लगा दिया था।
सीएम ने खुद मोर्चा संभाल रखी थी। ऐसे में लंबोदर महतो ने सबको चौंकाया जरूर था। यह भी चर्चा रही कि अगर प्रशासनिक अत्याचार नहीं हुआ होता, तो गोमिया की स्थिति कुछ और ही होती। रांची से प्रत्याशी देकर आजसू आजसू सिल्ली उपचुनाव का बदला भी लेने की कोशिश में लगी है। साथ ही भाजपा को यह बताने की कोशिश में आजसू लगी है कि उसे हल्के में न लिया जाये।
आजसू को पता है कि सरकार में रहकर पार्टी को कितना नुकसान हुआ है। इसकी भरपाई भाजपा से अलग होकर ही हो सकती है। यहां तक कि सरकार बड़े निर्णयों में भी आजसू से सलाह-मशविरा नहीं करती है। चाहे बात सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन का हो या फिर पिछडाÞ वर्ग आयोग के गठन, भूमि अधिग्रहण बिल, स्थानीय नीति की, किसी मसले पर आजसू को भरोसे में नहीं लिया गया।
इसी का नतीजा है कि आजसू सड़क पर सरकार के खिलाफ आग उगलती रही है। आजसू का पता है कि अगर सत्ता से समझौता नहीं किया होता तो गोमिया और खासकर सिल्ली में हार का सामना नहीं करना पड़ता। इन सीटों पर सत्ता विरोधी वोट के कारण आजसू का नुकसान उठाना पड़ा है। यही हाल लोहरदगा का रहा। यह सीट भी आजसू के हाथ से निकल गयी। यहां साहू-वैश्य का वोट आजसू को नहीं मिला। इस कारण हार का सामना करना पड़ा। ऐसे भी अभी तक भाजपा की तरफ से सहयोगी दल को साथ लेकर चलने की कोई सुगबुगाहट नहीं दिख रही है। इसी का नतीजा है कि दोनों के बीच की दूरी दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है।
इस बार लोकसभा चुनाव में पिछले बार की तरह मोदी लहर नहीं है। इस कारण हार-जीत का अंतर 25-30 हजार से ज्यादा नहीं रहनेवाला है। ऐसे में इन तीन सीटों पर आजसू के प्रत्याशी देने से भाजपा को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। कारण आजसू में अंदर ही अंदर सारी तैयारी चल रही है। कार्यकर्ता रण में उतर चुके हैं। इधर, आजसू पार्टी के प्रवक्ता देवशरण भगत कहते हैं कि पार्टी स्तर पर तीन सीटों को लेकर मंथन चल रहा है। भाजपा के साथ गठबंधन के सवाल पर कहते हैं कि ऐसा संभव नहीं है।
इधर, 17 फरवरी को विधानसभा मैदान में पिछड़ा वर्ग का राष्ट्रीय सम्मेलन हो रहा है। वैसे तो यह राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है, लेकिन पिछड़ा वर्ग के प्रति सुदेश के लगाव और इनका राजनीतिक लड़ाई लड़ने के कारण इन्हें मुख्य अतिथि बनाया गया है।
इस समारोह में शिरकत करने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन भी आ रहे हैं। इसमें देशभर के पिछड़ा वर्ग आयोग के प्रतिनिधि हिस्सा लेंगे। उम्मीद है कि इस सम्मलेन के बहाने भी सुदेश महतो एक बार फिर पिछड़ा वर्ग को साधने की कोशिश करेंगे। हालांकि सुदेश महतो और आजसू पार्टी पहले से भी पिछड़ों के लिए 73 फीसदी आरक्षण की भी मांग करती रही है, जिसमें पिछड़ा वर्ग को 27 फीसदी, अनुसूचित जनजाति को 32 फीसदी और अनुसूचित जाति को 14 फीसदी आरक्षण देने की मांग आजसू की रही है।

त्ता से चिपके रहने का दाग धोना चाहती है आजसू
पार्टी सूत्रों की मानें, तो आजसू सत्ता से चिपके रहने का दाग भी धोना चाहती है। दूसरी तरफ पूरे राज्य में आजसू अपनी पहचान भी स्थापित करना चाह रही है। आदिवासी वोट बैंक पर भी आजसू की पैनी नजर है। फिलहाल पार्टी का जनाधार बढ़ाने पर जोर है। पिछले दिनों स्वाभिमान यात्रा के जरिये गांव-गांव तक पहुंचने काी कोशिश की गयी। इस यात्रा के तहत बूथ स्तर से लेकर प्रखंड स्तर तक पार्टी को मजबूत करने की कवायद की गयी। हालांकि आजसू के लिए भी रांची, हजारीबाग और गिरिडीह सीट निकालना आसान नहीं है। लेकिन इतना तो तय माना जा रहा है कि इन सीटों पर आजसू दलों का खेल जरूर बिगाड़ सकती है। खासकर रांची लोकसभा सीट काफी चुनौतीपूर्ण है। आजसू सुप्रीमो रांची लोकसभा के अंतर्गत सिल्ली विधानसभा सीट से दो बार हार चुके हैं। वहीं हटिया विधानसभा सीट पर पकड़ ढीली हो गयी है। आजसू के पूर्व विधायक नवीन जयसवाल फिलहाल भाजपा से विधायक है। इस हिसाब से आजसू को काफी चुनौती मिल सकती है। वहीं पिछले चुनाव में हजारीबाग सीट पर आजसू उम्मीदवार तीसरे नंबर पर और गिरिडीह से आजसू उम्मीदवार यूसी मेहता चौथे नंबर पर रहे थे। रांची में आजसू उम्मीदवार सुदेश महतो को 1.42 लाख वोट मिले थे।

संघर्ष की बुनियाद पर ही आजसू की नींव
आजसू पार्टी संघर्ष के लिए जानी जाती है। संघर्ष की बुनियाद पर आजसू की नींव पड़ी है। इसका जन्म ही आंदोलन से हुआ और जो अपनी आक्रामकता और अपने अलग अंदाज के कारण जानी जाती थी। अपनी एकला चलो की रणनीति के कारण जिसका पूरे झारखंड में फैलाव हो गया। भले ही विधानसभा की छह से ज्यादा सीटें आजसू कभी नहीं जीत पायी, लेकिन एक समय ऐसा भी आया, जब वह सभी 81 विधानसभा सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करने का सपना देखने लगी। उसकी इतनी ताकत बन गयी थी कि सुदूर ग्रामीण में भी किसी सीट पर अपना उम्मीदवार खड़ा करके दस हजार वोट प्राप्त कर सकती थी। आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो ने उसी रफ्तार में तैयारी भी की थी। लेकिन समय का चक्र देखिये। जैसे ही आजसू ने 2014 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी से गठबंधन किया, उसके दुर्दिन शुरू हो गये। भाजपा गठबंधन से आजसू को क्या मिला, यह तो वही बता सकती है, लेकिन समझौते में भाजपा ने आजसू को राजनीतिक रूप से नुकसान ही पहुंचाया। समझौते का दुष्परिणाम यह रहा कि भाजपा ने आजसू को शहरों से बेदखल तो किया ही, आजसू की रीढ़ रहे कई नेता अलग हो गये। भाजपा के साथ समझौते में आजसू के हाथों से हटिया और गोमिया जैसी विनिंग सीट भी चली गयी। इसमें कोई दो राय नहीं कि समझौते से पूर्व आजसू लगभग दर्जन भर सीटों पर मजबूत स्थिति में थी। अकेले चुनाव लड़ती तो शायद वह झारखंड की राजनीति में किंग मेकर की भूमिका में होती। वहीं दूसरी ओर सिल्ली में सुदेश महतो की दो बार की हार में सांसद रामटहल चौधरी की बहुत बड़ी भूमिका मानी जाती है। अब उसी की कीमत आजसू वसूल करना चाहती है। खैर, स्थिति चाहे जो भी रहे, लेकिन इतना तय है कि ऐसा हुआ तो कुल मिलाकर भाजपा को ही नुकसान उठाना पड़ेगा। उसे महागठबंधन के धोबियापाट और सहयोगी रही आजसू पार्टी की लंगी का दांव अखाड़े में खोजना ही होगा।

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