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    Home»विशेष»हेमंत की धमकी को हल्के में न ले केंद्र
    विशेष

    हेमंत की धमकी को हल्के में न ले केंद्र

    shivam kumarBy shivam kumarFebruary 6, 2025No Comments8 Mins Read
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    विशेष
    बकाया झारखंड का हक, अधिकारों की हो रही उपेक्षा
    1.36 लाख करोड़ मिल जाने पर होगा झारखंड का कायाकल्प
    इस बार के आम बजट में भी झारखंड की पूरी तरह उपेक्षा की गयी

    नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
    मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने चेतावनी दे दी है कि यदि झारखंड को उसका बकाया 1.36 लाख करोड़ नहीं दिया गया, तो यहां की कोयला खदानों को बंद भी किया जा सकता है। इसके अलावा हेमंत सोरेन ने यह भी कहा है कि जिन खदानों से अब उत्पादन नहीं हो रहा है, वह जमीन भी झारखंड को वापस दी जाये, नहीं तो झारखंड के लोग इसे वापस लेने के लिए एक और आंदोलन के लिए तैयार हैं। हेमंत सोरेन की यह चेतावनी वास्तव में चेतावनी नहीं, झारखंड के हक की आवाज है, जिसे सुना ही नहीं, पूरा भी किया जाना चाहिए। पहले झारखंड द्वारा बकाया मांगने, फिर उसे केंद्र सरकार द्वारा नकारे जाने और अपना बकाया मांगने और अब हेमंत सोरेन की चेतावनी के बाद यह मुद्दा एक बार फिर गरम हो गया है। झारखंड सरकार का दावा है कि राज्य में कोयला खनन की रॉयल्टी और खदानों के लिए जमीन अधिग्रहण के एवज में केंद्र के पास यह रकम बकाया है, लेकिन केंद्र सरकार ने इसे नकार दिया। इतना ही नहीं, केंद्र ने झारखंड से अपना बकाया मांग लिया। ऐसे में झारखंड के सामने अब अपने अधिकार के लिए आवाज उठाने और नहीं सुने जाने पर आंदोलन का रुख अख्तियार करने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया है। केंद्र को झारखंड सरकार ने चार बार इस मुद्दे को लेकर पत्र लिखा, लेकिन केंद्र से कोई जवाब नहीं आया। अब हेमंत सोरेन आर-पार के मूड में दिखाई दे रहे हैं और जाहिर है कि इस मुद्दे को लेकर टकराव बढ़ेगा। इसलिए इस मुद्दे पर अब दोनों पक्षों के बीच बातचीत कर इसे सुलझाने की जरूरत है, ताकि रिश्तों में खटास पैदा नहीं हो। क्या है 1.36 लाख करोड़ के बकाये का विवाद और क्या हो सकता है इसका असर, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    झारखंड का सियासी माहौल अचानक एक बार फिर गरम हो गया है। इसका कारण मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन द्वारा दी गयी चेतावनी है, जिसमें उन्होंने कहा है कि यदि झारखंड का 1.36 लाख करोड़ का बकाया नहीं मिलता है, तो वह राज्य की कोयला खदानों को बंद करा देंगे। इतना ही नहीं, उन्होंने कहा है कि जिन खदानों से अब कोयला उत्पादन नहीं हो रहा है, उसकी जमीन को झारखंड सरकार को वापस दिया जाना चाहिए, वरना इसके लिए झारखंड के लोग आंदोलन करेंगे। मुख्यमंत्री का यह बयान उस झारखंड के वाजिब हक की आवाज है, जिसे इस बार के बजट में पूरी तरह उपेक्षित रखा गया है। देश की खनिज संपदा जरूरत का 40 प्रतिशत पूरा करनेवाले राज्य की ऐसी उपेक्षा कहीं से भी उचित नहीं कही जा सकती है।

    क्या है बकाये का मुद्दा
    कोयला और दूसरे खनिजों की रॉयल्टी का यह मुद्दा पिछले साल अगस्त में पैदा हुआ। पिछले साल 14 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को 1 अप्रैल 2005 के बाद से रॉयल्टी का पिछला बकाया वसूल करने का अधिकार दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने 1989 के एक फैसले को पलटते हुए कहा था कि राज्यों के पास खनिजों पर टैक्स लगाने का अधिकार है। पहले यह अधिकार केंद्र सरकार के पास होता था। कोर्ट ने कहा कि केंद्र सरकार द्वारा खनन कपंनियों द्वारा खनिज संपन्न राज्यों को बकाये का भुगतान अगले 12 वर्ष में क्रमबद्ध तरीके से किया जा सकता है। इसके साथ ही कोर्ट ने खनिज संपन्न राज्यों को रॉयल्टी के बकाये के भुगतान पर किसी तरह का जुर्माना नहीं लगाने का निर्देश दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश केंद्र की उस याचिका को खारिज करते हुए दिया था, जिसमें 25 जुलाई के फैसले के संभावित प्रभाव के बारे में पूछा गया था। इस फैसले में राज्यों को खनिज अधिकारों और खनिज युक्त भूमि पर कर लगाने के अधिकार को बरकरार रखा गया था और उन्हें 1 अप्रैल, 2005 से रॉयल्टी का बकाया मांगने की अनुमति दी गयी थी।

    फैसले के बाद झारखंड ने की थी मांग
    सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद झारखंड सरकार ने हिसाब लगाया कि केंद्र सरकार के पास उसके रॉयल्टी मद में 1.36 लाख करोड़ रुपये बकाया हैं। इस बकाये के भुगतान के लिए मुख्यमंत्री से लेकर मुख्य सचिव तक ने केंद्र को पत्र लिखा था। सीएम हेमंत सोरेन ने विधानसभा चुनाव के ठीक पहले 24 सितंबर को भी प्रधानमंत्री को पत्र लिखा था। चुनाव में इसे मुद्दा भी बनाया था। बड़े-बड़े होर्डिंग लगा कर कोयला रॉयल्टी के रूप में राज्य को कथित रूप से देय 1.36 लाख करोड़ रुपये के भुगतान की मांग की थी। पीएम को लिखे पत्र में सीएम ने कहा था कि कोयला कंपनियों पर हमारा 1.36 लाख करोड़ रुपये बकाया है। कानून में प्रावधानों और न्यायिक घोषणाओं के बावजूद कोयला कंपनियां भुगतान नहीं कर रही हैं। ये सवाल आपके कार्यालय, वित्त मंत्रालय और नीति आयोग सहित विभिन्न मंचों पर उठाये गये हैं, लेकिन अभी तक इसका भुगतान नहीं किया गया है। सीएम ने कहा था कि बकाया राशि का भुगतान न होने के कारण झारखंड का विकास और आवश्यक सामाजिक-आर्थिक परियोजनाएं बाधित हो रही हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला एवं बाल विकास, स्वच्छ पेयजल और अंतिम छोर तक कनेक्टिविटी जैसी सामाजिक क्षेत्र की विभिन्न योजनाएं धन की कमी के कारण जमीनी स्तर पर लागू नहीं हो पा रही हैं।

    क्या है बकाये का हिसाब
    यह सही है कि झारखंड का सामाजिक-आर्थिक विकास मुख्य रूप से खनन और खनिजों से होने वाले राजस्व पर निर्भर करता है, जिसमें से 80 प्रतिशत कोयला खनन से आता है। विभिन्न स्रोतों से जो जानकारी सामने आयी है, उससे साफ हो गया है कि झारखंड में काम करने वाली कोयला कंपनियों पर मार्च 2022 तक राज्य सरकार का लगभग 1.36 लाख करोड़ रुपये का बकाया है। इसमें धुले कोयले की रॉयल्टी के मद में 2900 करोड़, पर्यावरण मंजूरी की सीमा के उल्लंघन के एवज में 32 हजार करोड़, भूमि अधिग्रहण के मुआवजे के रूप में 41 हजार 142 करोड़ और इस पर सूद की रकम के तौर पर 60 हजार करोड़ रुपये बकाया हैं।

    2020 में ढाई सौ करोड़ दिया था कोयला मंत्रालय ने
    केंद्र द्वारा बकाये से इनकार किये जाने के बाद अब यह सवाल उठाया जा रहा है कि जब झारखंड का कोई बकाया नहीं है, तब 2020 में तत्कालीन कोयला मंत्री प्रह्लाद जोशी ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को ढाई सौ करोड़ रुपये की रकम क्यों दी थी। यह रकम कोयला कंपनियों द्वारा जमीन लिये जाने के एवज में बकाया रकम के रूप में दी गयी थी। उस समय कहा गया था कि कोयला कंपनियों के पास झारखंड का करीब आठ हजार करोड़ रुपये बकाया हैं। यह बकाया केवल जमीन की कीमत है।

    आर्थिक मुद्दे पर पहले भी होता रहा है टकराव
    आर्थिक मुद्दों पर झारखंड और केंद्र के बीच टकराव का यह पहला मौका नहीं है। इससे पहले 2019-20 में दामोदर घाटी निगम (डीवीसी) ने झारखंड को बिना बताये उसके खाते से अपने बकाये का चार सौ करोड़ रुपया निकाल लिया था। देश के इतिहास में यह पहली बार था, जब किसी खाताधारक की अनुमति के बिना उसके खाते से किसी तीसरी पार्टी ने रकम निकाल ली हो। वह भी तब, जब डीवीसी का पूरा कारोबार झारखंड की जमीन से चलता है और उसने झारखंड के हजारों करोड़ रुपये बाकी रखे हैं। इस मुद्दे ने जब तूल पकड़ा, तो रिजर्व बैंक को बीच-बचाव करना पड़ा।

    मिलजुल कर खोजना होगा रास्ता
    अर्थशास्त्री कहते हैं कि पिछले दो दशकों में केंद्र के स्तर पर सेस लगाने का चलन बढ़ा है। केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी वित्त आयोगों की सिफारिशों के आधार पर तय की जाती है, लेकिन सेस में राज्यों को कुछ नहीं मिलता। वहीं, राज्य जीएसटी के चलते अपने राजस्व स्रोत घटने की शिकायतें करते रहे हैं। कैश ट्रांसफर योजनाओं में भी संयम की जरूरत है। केंद्र और राज्यों को मिलजुल कर इसका रास्ता निकालना होगा।

    झारखंड के साथ टकराव से होगा नुकसान
    हेमंत सोरेन की चेतावनी को वास्तव में झारखंड के अधिकार की मांग के रूप में लिये जाने की जरूरत है। लगातार दूसरी बार सत्ता संभालने के बाद हेमंत सोरेन ने कहा था कि वह बकाया वसूली के लिए कानूनी विकल्प पर भी विचार कर सकते हैं। अब उन्होंने दो टूक कह दिया है कि झारखंड लड़ कर अपना अधिकार लेगा। केंद्र के साथ इस टकराव से देश का नुकसान होना तय है। इस मुद्दे को सुलझाने के लिए दोनों पक्षों को बैठना होगा। यह कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं है, बल्कि आंकड़ों का हिसाब है। झारखंड का पक्ष जानना भी जरूरी है। यदि तनाव बढ़ा, तो झारखंड में इसकी प्रतिक्रिया हो सकती है, जिसका नुकसान पहले भी दिख चुका है। खनिजों का परिवहन रोकने से लेकर आर्थिक नाकेबंदी तक का परिणाम देश भुगत चुका है। इसलिए इस बकाये के मुद्दे को जल्द से जल्द सुलझाना ही अच्छा होगा।

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