विशेष
विधायक दल के नेता का भी चुनाव नहीं कर पा रही है पार्टी
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद अब तक फंसा हुआ है पेंच
विधानसभा का बजट सत्र शुरू होने में अब 12 दिन ही बचे हैं
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
झारखंड में विधानसभा चुनाव के तीन महीने बीतने बाद भी भारतीय जनता पार्टी विधायक दल का नेता नहीं चुना गया है। पार्टी इस पद के लिए फैसला लेने में असमर्थ दिखायी दे रही है, जिससे भीतर असमंजस की स्थिति बनी हुई है। विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल होने की वजह से भाजपा विधायक दल के नेता को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा हासिल होगा। पार्टी इस पद के लिए चयन को लेकर अभी तक किसी नतीजे तक नहीं पहुंच पायी है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बावजूद पार्टी अब तक विधायक दल के नेता का नाम तय नहीं कर पायी है, जिससे सूचना आयुक्त जैसी महत्वपूर्ण नियुक्तियां प्रभावित हो रही हैं। पार्टी नेता कह रहे हैं कि आलाकमान को इस संदर्भ में फैसला लेना है और उसी की प्रतीक्षा की जा रही है। नेता का चयन नहीं होने की वजह से पार्टी के भीतर असमंजस की स्थिति है। अब तो कहा जाने लगा है कि विधानसभा चुनाव हारने के बाद पार्टी आलाकमान ने झारखंड भाजपा को अपने हाल पर छोड़ दिया है। वैसे भी झारखंड के नेताओं पर आलाकमान को कितना भरोसा है, यह विधानसभा चुनाव में दिख चुका है, क्योंकि पार्टी ने बाहर से दो नेताओं को यहां तैनात कर दिया था। ये नेता चुनाव हारने के बाद से ही झारखंड को छोड़ चुके हैं। अब पार्टी की झारखंड इकाई में केवल एक प्रदेश अध्यक्ष हैं, जिनके सहारे पार्टी की गाड़ी रेंग रही है। ऐसे में विधायक दल के नेता का चुनाव नहीं होने से आम लोगों में गलत संदेश जा रहा है। कहा जा रहा है कि झारखंड को लेकर भाजपा नेतृत्व गंभीर नहीं है, क्योंकि अब यहां से वह राज्यसभा की भी सीट नहीं जीत सकती है। झारखंड में आखिर क्यों विधायक दल का नेता नहीं चुन पा रही है भाजपा और क्या है इसका अंदरूनी समीकरण, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
झारखंड का सियासी माहौल अभी पूरी तरह शांत है। सत्ता पक्ष, यानी झामुमो-कांग्रेस-राजद सरकार चलाने के साथ-साथ छोटी-छोटी सियासी गतिविधियां चला रहा है, लेकिन विपक्षी भाजपा पूरी तरह से निष्क्रिय है। ऐसा लगता है कि विधानसभा चुनाव की हार ने उसकी पूरी ताकत छीन ली है और चुनाव के तीन महीने बाद भी वह निस्तेज पड़ी हुई है। झारखंड भाजपा की हालत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह झारखंड में विधायक दल का नेता तक नहीं चुन पायी है, जबकि सुप्रीम कोर्ट तक ने इसके लिए कह चुका है।
झारखंड की छठी विधानसभा का पहला सत्र नेता प्रतिपक्ष के बिना ही हो चुका है और अब बजट सत्र भी 24 फरवरी से शुरू होनेवाला है। ऐसे में कहा जा रहा है कि पार्टी आलाकमान ने झारखंड प्रदेश इकाई को अपने हाल पर छोड़ दिया है। पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को फिलहाल अपनी प्रदेश इकाई से कोई उम्मीद नहीं है, क्योंकि पार्टी अब राज्यसभा का भी चुनाव अपने बल पर जीतने की स्थिति में नहीं है।
क्या हैं झारखंड भाजपा की समस्याएं
झारखंड में भाजपा की समस्याएं गंभीर हैं। झारखंड में 2019 और 2024 के विधानसभा चुनावों में लगातार दो हार के बाद भाजपा का जनाधार तेजी से खिसका है। आदिवासी और कुर्मी समेत कुछ ओबीसी के वोट अब भाजपा के पास नहीं हैं। आदिवासी वोट बैंक को वापस लाने के प्रयास भी विफल रहे। बाबूलाल मरांडी के बाद सीता सोरेन, लोबिन हेंब्रम और फिर चंपाई सोरेन को पार्टी में लाकर भाजपा ने आदिवासियों को साधने की कोशिश की, लेकिन वह कामयाब नहीं हो सकी। पार्टी आरक्षित सीटों पर आदिवासी वोट वापस नहीं ला सकी और पिछड़ी जातियों और कुर्मी समुदाय का कुछ वोट भी उसके हाथ से खिसक गया।
भाजपा में यह रही है परंपरा
झारखंड में भाजपा ने प्रदेश अध्यक्ष और विधायक दल के नेता के पदों को आदिवासियों और गैर-आदिवासियों के बीच बांट कर रखा है। 2009 में ओबीसी नेता रघुवर दास प्रदेश अध्यक्ष थे और अर्जुन मुंडा विधायक दल के नेता थे। 2014 में दोनों पद गैर-आदिवासियों को सौंपे गये थे। 2019 के विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा ने इन दो पदों को फिर से दो समूहों में बांटा और लक्ष्मण गिलुआ को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया, जबकि रघुवर दास मुख्यमंत्री, यानी विधायक दल के नेता बने। 2019 के चुनाव में हार के बाद भाजपा नेतृत्व ने बाबूलाल मरांडी को अपने खेमे में शामिल किया और उन्हें विधायक दल का नेता बनाया, जबकि दीपक प्रकाश को गैर-आदिवासी समूह से प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया। इसमें एक कानूनी पचड़ा फंस गया। बाबूलाल मरांडी को विधायक दल का नेता तो चुना गया, लेकिन स्पीकर ने उन्हें नेता प्रतिपक्ष की मान्यता नहीं दी, क्योंकि उनके खिलाफ दलबदल का मामला शुरू हो गया। तब पांचवीं विधानसभा के कार्यकाल में अंतिम समय में ओबीसी नेता अमर कुमार बाउरी को विधायक दल का नेता और बाबूलाल मरांडी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया।
विधायक दल का नेता चुनने में क्या है पेंच
अब पार्टी को दो बार लगातार हार के बाद राज्य में जातीय संतुलन की रणनीति दोबारा तैयार करनी होगी। यदि नेता विपक्ष आदिवासी समुदाय से होगा, तो प्रदेश अध्यक्ष गैर-आदिवासी होना चाहिए। इस बार चूंकि कई वरिष्ठ नेता विधानसभा चुनाव हार गये, पार्टी के पास आदिवासी नेताओं की संख्या सीमित है। यदि पार्टी को आदिवासी समुदाय से जुड़ाव बनाये रखना है, तो उसे गिने-चुने विकल्पों में से चयन करना होगा। इनमें बाबूलाल मरांडी और चंपाई सोरेन ही हैं। पार्टी की समस्या यह है कि यदि वह बाबूलाल मरांडी को विधायक दल का नेता बनाती है, तो चंपाई सोरेन के नाराज होने की आशंका है और यदि चंपाई सोरेन को यह पद दिया जाता है, तो फिर बाबूलाल मरांडी को एडजस्ट कर पाने की चुनौती होगी।
भाजपा आलाकमान का रवैया
झारखंड विधानसभा का चुनाव हारने के बाद पार्टी आलाकमान भी सुस्त पड़ गया। झारखंड को लेकर उसकी चिंता कभी दिखायी ही नहीं पड़ी। झारखंड की नयी विधानसभा का पहला सत्र दिसंबर की शुरूआत में बुलाया गया था, लेकिन भाजपा ने विधायक दल का नेता चुनने में कोई जल्दबाजी नहीं दिखायी, क्योंकि केंद्रीय नेतृत्व संसद सत्र में व्यस्त था। इससे पहले, तीन दिसंबर को राज्य के नेताओं ने दिल्ली में केंद्रीय नेताओं से मुलाकात की थी, लेकिन पार्टी ने विधायक दल के नेता को लेकर कोई फैसला नहीं लिया और केंद्रीय नेतृत्व ने राज्य नेताओं को संगठनात्मक चुनावों पर ध्यान केंद्रित करने को कहा।
वैसे भी झारखंड के नेताओं को लेकर आलाकमान का रवैया विधानसभा चुनावों से पहले ही साफ हो चुका था, जब दो बाहरी नेताओं को झारखंड में तैनात कर दिया गया था। इन नेताओं के साथ आलाकमान ने पूरा चुनाव प्रबंधन बाहरी नेताओं के हाथों में सौंप दिया और स्थानीय नेता पूरी तरह उपेक्षित रहे। चुनाव परिणाम के बाद बाहरी नेता तो लौट गये, लेकिन स्थानीय नेताओं को स्थिति का सामना करने के लिए बेसहारा छोड़ दिया गया।
अब भाजपा को, जो खुद को दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी के अलावा अनुशासित पार्टी कहती है, झारखंड के लिए गंभीरता से विचार करना होगा। पार्टी को लंबी अवधि के बारे में सोचना होगा। उसने चुनाव में कुछ पिछड़ी जातियों का वोट भी खोया है और इसे वह जारी नहीं रख सकती है। इसलिए उसे कोई भी फैसला करने से पहले तमाम समीकरणों को ध्यान में रखना होगा।