विशेष
अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मांग पर रेल रोकने का एलान
राजनीतिक से ज्यादा सामाजिक ताने-बाने पर असर डालेगा आंदोलन
झारखंड ही नहीं, बंगाल और ओड़िशा में भी पड़ेगा आंदोलन का असर
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
झारखंड के सबसे बड़े और प्रभावी कुरमी समाज के लोग एक बार फिर आर-पार के मूड में हैं। इसके लिए वे 20 सितंबर से फिर रेल टेका, यानी रेल रोकों आंदोलन शुरू करेंगे। इसके तहत झारखंड, पश्चिम बंगाल और ओड़िशा में एक सौ स्टेशनों पर रेलवे का परिचालन ठप कराया जायेगा। दरअसल यह समाज लंबे समय से अपने को अनुसूचित जानजाति में शामिल करने की मांग कर रहा है। इसके पीछे की वजह इस समुदाय के लोग बताते हैं कि वे ब्रिटिश राज में 1931 की सूची में अनुसूचित जनजाति के रूप में शामिल थे। 1950 तक वे अनुसूचित जनजाति के रूप में ही जाने जाते थे। लेकिन इसके बाद उन्हें इस श्रेणी से हटाकर ओबीसी में शामिल कर दिया गया। इसके अलावा वे कुरमाली भाषा को भी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग को लेकर रेल टेका आंदोलन करेंगे। झारखंड में कुरमी समाज की घोषणा के साथ ही सियासी माहौल गरम हो गया है। झारखंड में कुरमी समाज सबसे बड़ा और ताकतवर जातीय समूह है और इसके आंदोलन का व्यापक असर पड़ने की संभावना है। वैसे भी पिछली बार का अनुभव बताता है कि इनका आंदोलन असरदार होता है। कुरमी सुमदाय की मांग का राजनीतिक असर है। चाहे भाजपा हो या आजसू या फिर चर्चित जेएलकेएम और इसके नेता जयराम महतो या फिर झामुमो, हर दल को कुरमी समाज का वोट चाहिए, इसलिए हर दल उसका समर्थन करता है। क्या है कुरमी समाज की मांग और इसका सियासी असर, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
झारखंड का सबसे बड़ा, ताकतवर और प्रभावशाली कुरमी समाज एक बार फिर आंदोलित हो उठा है। इस समाज ने 20 सितंबर से झारखंड के अलावा पश्चिम बंगाल और ओड़िशा के एक सौ स्टेशनों पर रेल रोको आंदोलन शुरू करने का एलान किया है। इस समाज की मांग इसे अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने और कुरमाली भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की है। कुरमी समाज के इस आंदोलन ने झारखंड में नयी सियासी हलचल पैदा कर दी है, क्योंकि झारखंड की राजनीति में कुरमी समाज का अपना महत्व है। यही कारण है कि नवंबर में हुए विधानसभा चुनाव में हेमंत सोरेन की सत्ता वापसी के कारणों में कुरमी आरक्षण प्रमुख रहा। कहा जा रहा है कि कुरमी आरक्षण की गूंज ने छोटानागपुर और कोल्हान इलाके में ऐसा खेल किया कि राज्य की तीन पार्टियां निपट गयीं।
और साफ हो गयीं तीन पार्टियां
बात पहले आजसू की करते हैं। 10 सीटों पर एनडीए गठबंधन के सहारे चुनावी मैदान में उतरने वाली आजसू सिर्फ एक पर जीत हासिल कर सकी। आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो खुद चुनाव हार गये। इसी तरह कुरमी बहुल गोमिया, ईचागढ़ और रामगढ़ में भी आजसू हार गयी। इस हार का कारण जयराम महतो की पार्टी रही, लेकिन नेपथ्य में कुरमी आरक्षण की मांग पर आजसू नेताओं की टालमटोल की नीति रही। इसी तरह कुरमी आरक्षण की मांग का असर भाजपा के प्रदर्शन पर भी पड़ा। बेरमो, बोकारो, कांके, गिरिडीह, टुंडी और तमाड़ सीट पर जयराम फैक्टर की वजह से भाजपा की हार हुई। वैसे जयराम महतो भले कुरमी आरक्षण के मुद्दे पर मुखर थे, लेकिन उनकी पार्टी का भी प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। जयराम खुद दो सीटों से चुनाव मैदान में उतरे थे, लेकिन एक ही जीत पाये। जयराम महतो की पार्टी ने कुल 71 उम्मीदवार उतार थे, लेकिन एक-दो को छोड़कर बाकी दूसरे नंबर पर भी नहीं रहे।
आदिवासी संगठनों की बढ़ सकती है नाराजगी
दूसरी तरफ आदिवासियों के संगठन कुरमी जाति की इस मांग पर विरोध जता रहे हैं। आदिवासी संगठनों का कहना है कि कुरमियों को एसटी का दर्जा देने की मांग आदिवासियों के अस्तित्व पर हमला है। ऐसी स्थिति में कुरमी आंदोलन से एक बार फिर आदिवासी संगठनों की भी नाराजगी बढ़ सकती है।
अप्रैल में झारखंड-बंगाल के कई स्टेशनों पर दिया गया था धरना
सितंबर और अप्रैल 2023 में भी कुरमी संगठनों के हजारों लोगों ने लगातार पांच दिनों तक झारखंड और बंगाल में कई स्टेशनों पर धरना दिया था। इस आंदोलन की वजह से दोनों बार रेलवे को करीब ढाई सौ ट्रेनें रद्द करनी पड़ी थीं। हावड़ा-मुंबई रूट सबसे ज्यादा ज्यादा प्रभावित हुआ था। एनएच-49 भी कई दिनों तक जाम रहा था और सैकड़ों गाड़ियां जहां की तहां फंस गयी थीं।
झारखंड के अलावा बंगाल और ओडिशा में भी आंदोलन
कुरमी संगठनों का दावा है कि इस बार 20 सितंबर से झारखंड के चार मनोहरपुर, नीमडीह, गोमो और मुरी, बंगाल के दो कुस्तौर और खेमाशुली और ओड़िशा के दो रायरंगपुर और बारीपदा स्टेशन पर हजारों लोग एक साथ रेल पटरियों पर डेरा डाल देंगे। इलाके से गुजरने वाले प्रमुख एनएच को भी रोक दिया जायेगा। इस बार आंदोलन अभूतपूर्व होगा। इस दौरान झारखंड की खनिज संपदा को बाहर जाने से रोका जायेगा।
गांव-गांव से चंदा जुटाने की मुहिम चलायी गयी
इस आंदोलन में तीनों राज्यों के गांव-गांव से कुरमी जाति के लोग जुटेंगे। आंदोलन को अनिश्चितकाल तक जारी रखने की तैयारी के तहत गांव-गांव में एक मुट्ठी चावल और यथासंभव चंदा जुटाने की मुहिम चलायी गयी है।
क्या है कुरमी आरक्षण की मांग?
बिहार, बंगाल और झारखंड में कुरमी समुदाय का सियासी वर्चस्व है। अकेले झारखंड में कुरमी जाति की आबादी 15 प्रतिशत के आसपास है। 1980 में कुरमी समुदाय के लोगों ने खुद को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने की मांग की। समुदाय का तर्क था कि पिछड़ेपन के आधार पर उन्हें यह हक मिलना चाहिए। झारखंड और बंगाल के कई हिस्सों में इसको लेकर आंदोलन हुए। उस वक्त झारखंड में विनोद बिहारी महतो कुरमी समुदाय का नेतृत्व करते थे। धीरे-धीरे कुरमी समुदाय के मुद्दों को आजसू ने उठाना शुरू किया। सुदेश महतो इसके कर्णधार बने। मुख्यमंत्री रहते अर्जुन मुंडा ने कुरमी जाति को एसटी में शामिल करने का प्रस्ताव भी पास किया, लेकिन केंद्र ने मांग उस वक्त खारिज कर दी। हाल के दिनों में जयराम महतो और उनकी पार्टी जेएलकेएम, यानी झारखंड लोकतांत्रिक क्रांति मोर्चा ने नये सिरे से इस मांग को हवा दी है। जयराम भाजपा से 1932 की खतियानी नीति और कुरमी आरक्षण को लागू करने की मांग लंबे समय से कर रहे थे। वह इसी मुद्दे के आधार पर चुनाव में भी उतरे थे।
1931 के पहले एसटी में शामिल होने का दावा
दरअसल झारखंड, बंगाल और ओडिशा में रहने वाले कुरमी जाति के लोगों का दावा है कि 1931 तक मुंडा, मुंडारी, संथाली आदि के साथ कुरमी भी आदिम जनजाति की सूची में शामिल था। देश आजाद होने के बाद छह सितंबर, 1950 को जब संसद में जनजातियों की सूची प्रस्तुत की गयी, तो उसमें कुरमी नहीं था। इसका लोकसभा में उपस्थित 15 सांसदों ने विरोध किया था। कुरमी समाज के नेताओं का कहना है कि एक साजिश के तहत इसे आदिवासी की सूची से हटाया गया।
झारखंड के कुरमी अन्य राज्यों से अलग
छोटानागपुर के पठार और इसके आसपास के क्षेत्रों में आदि काल से रहते आये कुरमी बिहार और दूसरे राज्यों की कुरमी जाति से अलग हैं। कुरमी आदिवासियों की पारंपरिक सामाजिक शासन व्यवस्था से संचालित-शासित होते रहे हैं। छोटानागपुर के कुरमी बिहार के कुरमियों से अलग द्रविड़ नस्ल के आदिवासी समुदाय हैं। सर ग्रियर्सन की किताब ‘लिंग्विस्टिक सर्वे आॅफ इंडिया’ में साफ लिखा है कि छोटानागपुर के कुरमी और बिहार के कुरमी, दोनों को अंग्रेजी में ‘कुरमी’ लिखा गया, लेकिन छोटानागपुर की कुरमी जाति जनजाति परंपराओं से संचालित होती है।
ऐतिहासिक पहचान और अस्मिता का सवाल
कुरमी समाज के लोग कहते हैं कि आदिवासियत उनकी ऐतिहासिक पहचान और अस्मिता का सवाल है। वे इस पहचान को वापस लेकर रहेंगे। उनका कहना है कि अर्जुन मुंडा जब 2004 में राज्य के मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने ही कुरमी जाति को आदिवासी बनाने की अनुशंसा केंद्र सरकार से की थी, लेकिन बाद में वह अपने वादे से मुकर गये।
लोकसभा में भी मुद्दा उठा
कुरमी को आदिवासी का दर्जा देने की मांग संसद के अलावा झारखंड और बंगाल की विधानसभाओं में भी उठायी जाती रही है। बंगाल के सांसद अधीर रंजन चौधरी कई बार लोकसभा में यह मुद्दा रख चुके हैं। जमशेदपुर से सांसद रहे सुनील महतो, जमशेदपुर की पूर्व सांसद आभा महतो और ओड़िशा के सांसद रवींद्र कुमार जेना भी संसद में इसे लेकर समय-समय पर सवाल उठाते रहे हैं।
आदिवासी संगठनों ने कुरमी समाज के दावे को किया खारिज
दूसरी तरफ, कुरमियों की इस मांग पर आदिवासी समाज को सख्त ऐतराज है। यूनाइटेड फोरम आॅफ आॅल आदिवासी आॅर्गेनाइजेशन (यूएफएएओ) का कहना है कि कुरमियों की यह मांग आदिवासियों की पहचान पर हमला है। कुरमी परंपरागत तौर पर हिंदू हैं और वे गलत आधार पर आदिवासी दर्जे के लिए सरकार पर दबाव बना रहे हैं। आदिवासी मानते हैं कि कुरमी समाज की नजर अब आदिवासियों की जमीन-जायदाद पर टिकी है। उनकी मंशा आदिवासियों के लिए सुरक्षित संवैधानिक पदों को हाइजैक करने की है।