रांची। झारखंड में हरेक राजनीतिक दल अब चुनाव की तैयारी में जुट गया है। उम्मीदवारों के चयन के लिए बैठकों और विचार-विमर्श का दौर जारी है। चुनावी तैयारियों के मामले में हरेक दल की गतिविधियां अलग-अलग होने के साथ एक मोर्चे पर हर दल में एक बात को लेकर समानता दिख रही है।
यह समानता है उसके भीतर सुनाई पड़नेवाले विरोधी स्वर। झारखंड के हर दल को अपने ही घर के भीतर से उठनेवाली विरोधी आवाजों से रू-ब-रू होना पड़ रहा है। दलों के नेता इन बागियों को समझाने-बुझाने के साथ मतदाताओं के बीच सब कुछ ठीक होने का संदेश दे रहे हैं, लेकिन उनका प्रयास कितना सफल हो रहा है, यह तो जमीन पर ही दिखाई दे रहा है। ऐसा नहीं है कि केवल एक दल के भीतर से विरोध की आवाज सुनाई दे रही है। यह आवाज किसी दल में सीट छोड़ने को लेकर है, तो किसी अन्य में टिकट नहीं देने को लेकर, कहीं जातीय या धार्मिक आधार पर पार्टी नेतृत्व पर दबाव डालने की कोशिश की जा रही है, तो कहीं पिछले चुनाव के रिकॉर्ड के आधार पर चुनाव मैदान में उतरने की बात कही जा रही है।

भाजपा के निवर्तमान सांसद-विधायक की चेतावनी
ऐसा नहीं है कि विरोध के स्वर केवल विपक्षी दलों के भीतर ही उठ रहे हैं। भाजपा और उसकी सहयोगी आजसू के भीतर भी विरोध की आवाज बुलंद हो रही है। गिरिडीह के निवर्तमान सांसद रवींद्र कुमार पांडेय को जैसे ही पता चला कि इस बार उनका टिकट कटनेवाला है, उन्होंने चेतावनी दे डाली कि पार्टी नेतृत्व गिरिडीह सीट छोड़ने के फैसले पर पुनर्विचार करे, अन्यथा इसके बुरे परिणाम हो सकते हैं। उधर गिरिडीह के एक अन्य दावेदार और बाघमारा के विधायक ढुल्लू महतो ने सीधे तौर पर तो कुछ नहीं कहा, लेकिन अपने समर्थकों के जरिये पार्टी नेतृत्व से साफ कहा कि गिरिडीह के बदले उन्हें धनबाद से लड़ने दिया जाये। समर्थकों ने यह भी कहा कि भाजपा ने यदि ढुल्लू को प्रत्याशी नहीं बनाया, तो इसका असर चुनाव परिणाम पर पड़ेगा। बताते चलें कि भाजपा ने तालमेल के तहत गिरिडीह सीट आजसू के लिए छोड़ दी है।

आजसू के भीतर समझौते को लेकर सुगबुगाहट
लोकसभा चुनाव में पहली बार तालमेल के साथ मैदान में उतरनेवाली आजसू को भाजपा से गिरिडीह सीट का गिफ्ट तो मिल गया, लेकिन इससे उसकी परेशानी कम नहीं हुई है। पार्टी ने पहले तीन सीटों पर प्रत्याशी उतारने की घोषणा की थी और अब केवल एक सीट पर समझौता कर लेना उसके कुछ नेताओं-कार्यकर्ताओं को पच नहीं रहा है।

आजसू का कोई भी नेता सामने आकर विरोध तो नहीं कर रहा है, लेकिन निजी तौर पर उनका मानना है कि पार्टी नेतृत्व ने एक सीट पर समझौता कर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है। पार्टी को किसी भी कीमत पर अपने घोषित स्टैंड से पीछे नहीं हटना चाहिए था। इससे लोगों में गलत संदेश गया है। इतना ही नहीं, पार्टी के एक धड़े का कहना है कि सरकार की सहयोगी पार्टी होने के बावजूद साढ़े चार साल में एक बार भी भाजपा ने पार्टी से किसी भी मुद्दे पर सलाह-मशविरा नहीं किया और न ही विभिन्न मुद्दों पर पार्टी के नजरिये को तरजीह दी। फिर उसी पार्टी के साथ तालमेल करना सही नहीं है।

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