जब पांच-सात टर्म तक एक व्यक्ति चुनाव लड़ेगा, तो नयी पौध का क्या होगा!
रांची। भारतीय कॉरपोरेट दुनिया में मार्च-अप्रैल का महीना सालाना अप्रेजल और प्रमोशन का होता है। इनमें काम करनेवाले लोग बेहतर अप्रेजल, प्रमोशन और वेतन वृद्धि की उम्मीद लगाये रहते हैं। इस बार भी ऐसा ही हो रहा है, लेकिन राजनीति में स्थिति इससे एकदम विपरीत है। देश के दूसरे राज्यों को छोड़ दिया जाये, तो झारखंड के दो प्रमुख राजनीतिक दलों ने अपने किसी भी विधायक को प्रमोशन के लायक नहीं माना है। यही कारण है कि इस बार भाजपा और झामुमो ने अपने किसी भी विधायक को संसदीय चुनाव में नहीं उतारा है।
झारखंड की 14 संसदीय सीटों पर चुनावी परिदृश्य अब तक पूरी तरह साफ नहीं हुआ है, क्योंकि विपक्षी महागठबंधन ने अपने प्रत्याशी घोषित नहीं किये हैं। भाजपा ने भी तीन सीटों पर उम्मीदवारों की घोषणा नहीं की है। केवल आजसू और झाविमो ने अपने-अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर दी है। आजसू राज्य की केवल एक सीट गिरिडीह से चुनाव लड़ रही है और उसने रामगढ़ के विधायक चंद्रप्रकाश चौधरी को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया है। झाविमो राज्य की दो सीटों, कोडरमा और गोड्डा से चुनाव लड़ेगा। इसके लिए उसके दो प्रत्याशी पहले से ही तय हैं। कोडरमा से पार्टी सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी और गोड्डा से पार्टी विधायक दल के नेता प्रदीप यादव चुनाव मैदान में उतरेंगे। कांग्रेस को सात सीटों पर प्रत्याशी उतारना है, लेकिन अब तक उसने किसी का नाम घोषित नहीं किया है। ऐसे कयास लगाये जा रहे हैं कि पश्चिमी सिंहभूम सीट से गीता कोड़ा पार्टी उम्मीदवार बन सकती हैं। वर्तमान में वह जगन्नाथपुर सीट से विधायक हैं। लेकिन उनके बारे में सच यही है कि उनका दूर-दूर तक कांग्रेस से वास्ता नहीं रहा है और इस बार वह चुनाव लड़ने की गरज से ही कांग्रेस में शामिल हुई हैं।
इन तीन के अलावा भाकपा माले ने राजधनवार के विधायक राजकुमार यादव को कोडरमा से अपना प्रत्याशी बनाने का ऐलान किया है। वैसे कयास यह भी लगाया जा रहा है कि झामुमो डुमरी से पार्टी विधायक जगन्नाथ महतो को गिरिडीह से चुनाव मैदान में उतार सकता है। खास बात यह है कि इसके पहले भी उन्हें लोकसभा का चुनाव लड़ाया गया था। ऐसे में कहा जा सकता है कि झामुमो ने भी अपने दल के किसी समर्पित नये विधायक को लोकसभा चुनाव में उतारने नहीं जा रहा है। ऐसा नहीं है कि झारखंड के विधायक प्रमोशन के आकांक्षी नहीं थे या उन्हें संसदीय चुनाव लड़ने की इच्छा नहीं है। भाजपा के कई विधायक इस बार उम्मीद लगाये बैठे थे कि उन्हें लोकसभा चुनाव लड़ने का मौका दिया जायेगा। इस कतार में पहला नाम बाघमारा के विधायक ढुल्लू महतो का है। उन्होंने गिरिडीह लोकसभा चुनाव लड़ने की दावेदारी काफी पहले ही कर दी थी। अपनी दावेदारी के प्रति पूरी तरह आश्वस्त ढुल्लू ने शायद यही सोच कर निवर्तमान सांसद रवींद्र पांडेय के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। लेकिन गिरिडीह सीट तालमेल के तहत आजसू के पास चली गयी और ढुल्लू की उम्मीदों पर पानी फिर गया।
इसके बावजूद उन्होंने आस नहीं छोड़ी और धनबाद सीट पर दावा ठोंक दिया, लेकिन आलाकमान ने उन्हें प्रमोशन के लायक नहीं समझा। ढुल्लू के अलावा भाजपा के कुछ और विधायक प्रमोशन पाने की उम्मीद में थे। इनमें कोडरमा की नीरा यादव, धनबाद के राज सिन्हा, मधुपुर के राज पालिवार, रांची के सीपी सिंह, हटिया के नवीन जयसवाल और बरकट्ठा के जानकी यादव प्रमुख हैं। इनमें से केवल नवीन जायसवाल की उम्मीदें अब तक बरकरार हैं, क्योंकि भाजपा ने रांची से अपना प्रत्याशी घोषित नहींं किया है। कांग्रेस के सुखदेव भगत भी लोहरदगा से टिकट पाने की जुगत में लगे हुए हैं।
राजनीतिक हलकों में इस बात को लेकर तरह-तरह की चर्चाएं हो रही हैं। एक चर्चा यह भी हो रही है कि आखिर बड़ी पार्टियां अपने ही विधायकों को सांसद बनने या लोकसभा का चुनाव लड़ने का अवसर क्यों नहीं देना चाहतीं। ऐसा नहीं है कि विधायकों में सांसद बनने के गुण नहीं होते या वे विधायकी छोड़ कर सांसद बनने का खतरा मोल नहीं लेना चाहते।
झारखंड वैसे भी राजनीतिक रूप से काफी परिपक्व है, क्योंकि कहा जाता है कि पिछले 18 साल में यहां राजनीतिक खेल खूब हुआ है।
दूसरी बात यह भी है कि यदि विधायकों को ही सांसद का चुनाव लड़ने नहीं दिया जायेगा, तो फिर नये लोग राजनीति में कैसे आ सकेंगे। वैसे भी इस चुनाव में भाजपा ने 75 वर्ष से अधिक उम्र वालों को चुनाव मैदान में नहीं उतारने का फैसला किया है। उनके स्थान पर नये लोगों को स्वाभाविक तौर पर उम्मीदवार बनाया गया है, लेकिन विधायकों को इस काबिल नहीं समझा गया, जबकि उनके पास कम से कम विधानसभा चुनाव लड़ने का अनुभव तो है ही। झामुमो के पास भी कई ऐसे विधायक हैं, जिन्हें लोकसभा चुनाव का उम्मीदवार बनाया जा सकता था, लेकिन उसने भी खतरा उठाना उचित नहीं समझा है। कांग्रेस के पास भी कई विधायक ऐसे हैं, जो लोकसभा चुनाव लड़ सकते हैं, लेकिन वह भी लोकसभा चुनाव में बुजुर्ग उम्मीदवारों पर ही दांव खेलना चाहती है।
इन तमाम बातों से यही स्पष्ट होता है कि झारखंड की राजनीतिक पार्टियों को अपने ही विधायकों की क्षमता पर पूरा भरोसा नहीं है। वे यह मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि विधानसभा चुनाव लड़ने का अनुभव ही लोकसभा चुनाव में मददगार हो सकता है। कई विधायक निजी तौर पर भी स्वीकार करते हैं कि उन्हें अपनी पार्टी के उम्मीदवार को चुनाव जिताने की जिम्मेदारी तो दी जाती है, लेकिन उन्हें खुद लड़ने से रोका जाता है। राजनीति में इसे अनुचित ही कहा जा सकता है। लोकसभा चुनाव लड़ने की इच्छा रखनेवाले विधायकों का कहना है कि यदि वे अपनी पार्टी के प्रत्याशी को सांसद बनाने की क्षमता रखते हैं, तो फिर वे खुद ही सांसद क्यों नहीं बन सकते हैं। आखिर पार्टी को उन पर भरोसा क्यों नहीं हो रहा है। विधायकों का यह सवाल उचित भी है और समीचीन भी। झारखंड के तमाम राजनीतिक दलों को इस सवाल का उत्तर तलाश करने के लिए आत्ममंथन भी करना होगा, क्योंकि अगर न्यू इंडिया बनाना है, तो युवा जोश और सोच को मौका देना ही पड़ेगा। आखिर कब तक ये दल खराब स्वास्थ्य से जूझ रहे बुजुर्गों पर न्यू इंडिया को चलाने का भार सौंपते रहेंगे।
प्रमोशन की लडाई में विधायक जी कहीं अड़ गये, कहीं पिछड़ गये
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