रांची। दो दिन पहले जिस समय देश की राजनीतिक राजधानी में दिल्ली में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह झारखंड में तालमेल के लिए आजसू प्रमुख सुदेश महतो के साथ बैठक कर रहे थे, विपक्षी महागठबंधन के नेता एक-दूसरे पर गठबंधन को कमजोर करने और सीट शेयरिंग को अंतिम रूप नहीं देने का दोषारोपण कर रहे थे। भाजपा और आजसू में तालमेल का संकेत सियासी गलियारों में किसी को नहीं था। यहां तक कि प्रदेश भाजपा और आजसू के प्रदेश स्तरीय नेताओं को भी नहीं। दूसरी तरफ विपक्षी महागठबंधन की बात तो सभी कर रहे थे। लेकिन भाजपा ने अचानक सबको चौंका दिया, जबकि इस मोर्चे पर विपक्षी दल पिछड़ गये।
यह भाजपा की बेहतरीन चुनाव प्रबंधन और इसके शीर्ष नेतृत्व की चौंकानेवाली कार्यशैली का उदाहरण है।
विपक्षी खेमे में तालमेल की तैयारी छह महीने पहले ही शुरू हुई थी। 19 जनवरी को कोलकाता में ममता बनर्जी की रैली में विपक्षी नेताओं के जुटान ने इस पर मुहर भी लगायी थी, लेकिन करीब दो महीने बाद भी सीट शेयरिंग को अंतिम रूप नहीं दे पाना इस गठबंधन की हालत को दर्शाता है।
दरअसल, झारखंड-बिहार में विपक्षी महागठबंधन में आज भी तालमेल को लेकर मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना वाली स्थिति है। इस महागठबंधन में पहले ही तय हो चुका है कि झारखंड में संसदीय चुनाव का नेतृत्व कांग्रेस करेगी, जबकि विधानसभा चुनाव में कमान झामुमो के हाथों में रहेगी। बिहार में दोनों चुनावों में राजद ही महागठबंधन का नेतृत्व करेगा। यह तो गठबंधन का प्रारंभिक स्वरूप है। लेकिन गठबंधन का सबसे महत्वपूर्ण कारक, सीट शेयरिंग आज तक घोषित नहीं हुआ है।
झारखंड की 14 और बिहार की 40 सीटों में कितनी सीटों पर कौन लड़ेगा, इसका फैसला भले ही अंदरखाने में कर लिया गया हो, सार्वजनिक रूप से अब तक इसकी जानकारी नहीं दी गयी है। झामुमो जहां लोकसभा के साथ ही विधानसभा सीटों का बंटवारा करने पर जोर दे रहा है, वहीं झाविमो और राजद अपने कोटे की सीट बढ़ाने के लिए अड़े हुए हैं। कांग्रेस तो सन्निपात की स्थिति में है। उसका एक विधायक अपने राष्टय अध्यक्ष की राज्य में हुई पहली रैली से ही गायब रहता है, तो दूसरा विधायक खुलेआम कह रहा है कि यदि गोड्डा सीट उसके पिता को नहीं दी गयी, तो राज्य की बाकी 13 सीटों पर भी विपक्ष का जीतना मुश्किल हो जायेगा।
अपने ही घर में विवादों में घिरी कांग्रेस के लिए इस पेंच को सुलझाना बेहद मुश्किल होता जा रहा है। उधर बिहार में राजद ने जहां सीट शेयरिंग को अंतिम रूप देने के लिए अल्टीमेटम देने के साथ ही कांग्रेस को अपने उम्मीदवारों का नाम भी घोषित करने के लिए कहा है, वहीं हिंदुस्तान अवाम मोर्चा ने साफ कर दिया है कि यदि उसे एक से अधिक सीटें नहीं मिलीं, तो वह चुनाव मैदान में नहीं उतरेगा। उधर यूपी में अखिलेश यादव और मायावती ने तालमेल की घोषणा कर कांग्रेस को दूध की मक्खी की तरह बाहर फेंक दिया है।
जहां तक झारखंड का सवाल है, तो यहां कांग्रेस के लिए कई और मुश्किलें सामने आ रही हैं। एक समय था, जब कांग्रेस में टिकट लेनेवालों की मारामारी होती थी, आज स्थिति यह है कि कुछ सीटों पर कांग्रेस नेताओं ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया है। यह भी राजनीतिक हलकों में चर्चा का विषय बन गया है कि जहां टिकट मांगनेवालों की कतार लगनी चाहिए, वहां कोई नेता टिकट लेने से इनकार कर रहा हो, तो उस राजनीतिक दल की हैसियत-जनाधार का पता आसानी से लगाया जा सकता है। गोड्डा और हजारीबाग की माथापच्ची में उलझी कांग्रेस के लिए रांची, पलामू और धनबाद सीट भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं है। कांग्रेस के लिए यह स्थिति पुलवामा हमले के बाद पैदा हुई है। 14 फरवरी की उस घटना के बाद कांग्रेस के रुख से उसके नेता ही परेशान हैं।
बाद में भारत के हवाई हमलों ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। पुलवामा के बाद नवजोत सिंह सिद्धू के बयानों से पार्टी की खूब किरकिरी हुई, तो हवाई हमलों के बाद पार्टी का हरेक नेता उसी लाइन पर जाता दिखा। यहां तक कि वायुसेना अध्यक्ष के सार्वजनिक ऐलान के बावजूद पार्टी नेतृत्व द्वारा हवाई हमलों के सबूत मांगना लोगों के गले नहीं उतरा। इससे पहले राफेल सौदे पर भी पार्टी की लाइन से संगठन के बहुत से लोग असहज महसूस कर रहे थे। आज हालत यह हो गयी है कि राफेल और पाकिस्तान मामलों पर कांग्रेस की बातों से किसी को इत्तेफाक नहीं रह गया है। पार्टी के लोग भी निजी तौर पर यह स्वीकार करते हैं कि केवल मोदी विरोध का हथियार पूरी तरह असरदार नहीं होगा। इसका उदाहरण भी मिल रहा है। गुजरात में पार्टी के दो विधायक पाला बदल चुके हैं, बिहार के प्रदेश प्रवक्ता ने इस्तीफा देते हुए कह दिया कि लोग अब कांग्रेस को पाकिस्तान का एजेंट समझने लगे हैं।
ऐसी हालत में झारखंड में विपक्षी महागठबंधन चुनावी मैदान में कैसे मुकाबला करता है, यह देखना दिलचस्प होगा। हालांकि कांग्रेस के नेता कह रहे हैं कि यह खरगोश और कछुए की दौड़ वाली स्थिति है। भाजपा जहां एक झटके में आगे हो गयी है, विपक्षी दल नाप-तौल कर कदम बढ़ा रहे हैं। लेकिन कांग्रेस नेताओं को शायद इस बात का आभास नहीं है कि लोकतंत्र का महायज्ञ खरगोश-कछुए की दौड़ नहीं, बल्कि एक सौ मीटर की फर्राटा दौड़ है, जिसमें उसेन बोल्ट जैसा धावक ही बाजी मारता है।