केंद्र सरकार के उपक्रम दामोदर घाटी निगम, यानी डीवीसी ने झारखंड सरकार से बकाया वसूलने के लिए आठ जिलों में हर रोज 18 घंटे की बिजली कटौती का फरमान लागू कर दिया है। इन आठ जिलों में पिछले तीन दिन से बिजली के लिए हाहाकार मचा हुआ है। झारखंड सरकार पर डीवीसी के करीब पांच हजार करोड़ रुपये बकाया है। इनमें से 4955 करोड़ का बकाया नवंबर 2019 तक का है। जाहिर है, उस वक्त राज्य में रघुवर दास के नेतृत्व वाली भाजपा की सरकार थी। हेमंत सोरेन सरकार को सत्ता संभाले अभी तीन महीने भी नहीं हुए हैं, ऐसे में अचानक बकाये की वसूली के लिए राज्य के एक तिहाई हिस्से की बिजली काट देने से सरकार पर भी एक अप्रत्याशितदबाव बन गया है। डीवीसी को पानी, कोयला, जमीन झारखंड से मिलता है, लेकिन उसने झारखंड की बड़ी आबादी को बिजली से वंचित कर दिया है। झारखंड के साथ इस नाइंसाफी के खिलाफ गुस्सा फूटने लगा है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने तो यहां तक कहा है कि दूसरे राज्यों या संस्थाओं पर डीवीसी का इससे कई गुना अधिक बकाया है, लेकिन उसने केवल झारखंड की बिजली काटी है। इस फैसले के पीछे राजनीति है। यह आरोप गलत भी नहीं है। झारखंड ने डीवीसी के इस फैसले के बाद उससे असहयोग करना शुरू किया तो उसके लिए कारोबार चलाना भी मुश्किल हो जायेगा। इस संकट के विभिन्न पहलुओं को समेटती आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
रंगों के त्योहार होली के दिन 10 मार्च को धनबाद के निरसा इलाके में बिजली नहीं थी। वहां लोगों को पानी भी नहीं मिला। इसलिए त्योहार का रंग फीका रहा। तीसरे पहर तक जब बिजली नहीं आयी, तब युवकों की एक टोली बिजली सब स्टेशन पर पहुंची। वहां उस टोली को पता चला कि कहीं कोई खराबी नहीं है, बल्कि डीवीसी ने बिजली काट दी है। इसके बाद वहां डीवीसी के खिलाफ माहौल बनने लगा। कमोबेश यही स्थिति रामगढ़, हजारीबाग, चतरा, कोडरमा, गिरिडीह, बोकारो और धनबाद के दूसरे इलाकों की है, जहां पिछले तीन दिन से बिजली और पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ है। दरअसल ये सात जिले डीवीसी के कमांड क्षेत्र में आते हैं और यहां डीवीसी ही बिजली आपूर्ति करता है। डीवीसी ने इन जिलों में रोजाना 18 घंटे बिजली कटौती का फरमान लागू कर दिया है, क्योंकि झारखंड सरकार पर उसके चार हजार नौ सौ 95 करोड़ रुपये बकाया हैं।
फैसले पर उठ रहे सवाल
स्वतंत्र भारत की पहली बहुद्देशीय जल विद्युत परियोजना के रूप में सात जुलाई 1948 को अस्तित्व में आये दामोदर घाटी निगम द्वारा झारखंड की बिजली आपूर्ति रोके जाने के फैसले पर कई सवाल उठ रहे हैं। इन सवालों से इतर इस पूरे घटनाक्रम में राजनीति की बू भी आ रही है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इसपर सवाल भी उठाया है।
अपने नोटिस में निगम ने कहा है कि झारखंड पर उसका चार हजार नौ सौ 95 करोड़ रुपये बकाया है और यह नवंबर, 2019 तक का है। इसका मतलब यह हुआ कि यह बकाया वर्तमान सरकार के कार्यकाल का नहीं है। वर्तमान सरकार को कार्यभार संभाले अभी ढाई महीने ही हुए हैं। सरकार बदलने के बाद स्वाभाविक तौर पर बिजली समेत दूसरे विभागों में प्रशासनिक पुनगर्ठन का दौर चल रहा है। नयी सरकार का पहला बजट भी अब तक लागू नहीं हुआ है। ऐसे में वह समय की हकदार है। दूसरा सवाल यह है कि झारखंड के कोयले और पानी के अलावा जमीन पर चलनेवाली कंपनी झारखंड के लोगों के साथ ऐसा व्यवहार कैसे कर सकती है। डीवीसी ने जिन जिलों की बिजली काटी है, वहां उसके अधिकारी और कर्मचारी भी रहते हैं। उनके सामने भी बिजली और पानी की किल्लत पैदा हुई है।
डीवीसी का तर्क है कि यदि बकाये का भुगतान नहीं हुआ, तो झारखंड में मौजूद डीवीसी की बिजली उत्पादक इकाइयां बंद हो सकती हैं। झारखंड में डीवीसी की बिजली उत्पादन इकाइयां बोकारो थर्मल, चंद्रपुरा और कोडरमा में हैं। डीवीसी का कहना है कि बकाया होने के कारण वह कोयला कंपनियों को भुगतान नहीं कर पा रहा है। इसके कारण उसे कोयले की आपूर्ति नहीं हो पा रही है।
लेकिन यहां एक बड़ा सवाल यह है कि यदि झारखंड की जमीन, पानी और कोयले का इस्तेमाल करने के बावजूद कोई कंपनी यहीं के लोगों का जीवन मुश्किल में डाल दे, तो फिर ऐसी कंपनी को यहां क्यों कारोबार करने दिया जाये। ऐसा नहीं है कि झारखंड ने डीवीसी का भुगतान नहीं किया है। और ऐसा भी नहीं है कि झारखंड किसी निजी उद्योगपति की तरह विदेश भाग जायेगा। उसने केवल थोड़ा अतिरिक्त समय मांगा है, ताकि नयी सरकार का कामकाज सामान्य हो जाये और व्यवस्था बहाल हो जाये। डीवीसी ने इसके लिए महज तीन दिन का समय दिया। ऐसे में राज्य भर में उसके खिलाफ एक माहौल खड़ा हो रहा है। लोग अब डीवीसी का विरोध करने का मन बना रहे हैं। यदि डीवीसी के कारण कानून-व्यवस्था की समस्या पैदा हुई, तो इसकी जिम्मेदारी निश्चित तौर पर उसकी ही होगी।
डीवीसी का फैसला इसलिए भी अनुचित है, क्योंकि उसकी नयी सरकार से बकाये के बारे में कोई बातचीत नहीं हुई है। बिना किसी बातचीत के सीधे एक्शन में आना खुद डीवीसी के लिए ही नुकसानदेह साबित हो सकता है, क्योंकि उसके कारोबार का बड़ा हिस्सा झारखंड पर ही निर्भर है। यदि झारखंड ने उसका कोयला और पानी रोक दिया, तो उसके सामने अस्तित्व का संकट पैदा हो जायेगा। डीवीसी का बकाया है, इससे किसी को इनकार नहीं है। लेकिन पूर्ववर्ती सरकार की वित्तीय कुप्रबंधन का खामियाजा वर्तमान सरकार और जनता क्यों भुगते? ऐसे में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का यह आरोप कि यह केंद्र सरकार द्वारा झारखंड को परेशान करने की साजिश है, पूरी तरह गलत भी नहीं है। यदि ऐसा है, तो यह देश के संघीय ढांचे के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है। झारखंड डीवीसी का पूरा बकाया चुका देगा, बस उसे थोड़े वक्त की जरूरत है। यदि डीवीसी इतना भी नहीं कर सकता है, तो फिर इस राज्य से उसे अपना बोरिया-बिस्तर समेट लेना चाहिए, क्योंकि जहां उसकी दुकान है, उस इलाके के प्रति उसकी भी कोई जिम्मेदारी बनती है।