विशेष
-‘मिशन 2024’ के इस दूसरे फॉर्मूले पर पार्टी दे रही है खास तवज्जो
-छह राज्यों की 60 सीटों पर है कई छोटी-छोटी पार्टियों का दबदबा

2024 के पूर्वाद्ध में देश में होनेवाले आम चुनाव की तैयारियां शुरू हो गयी हैं। इन तैयारियों के तहत पार्टियां अपनी-अपनी चुनावी मशीनरी को ठीक करने के साथ राजनीतिक समीकरण तय करने का फॉर्मूला बनाने में व्यस्त हैं। पिछले दो आम चुनावों में एक के बाद एक ऐतिहासिक जीत हासिल करनेवाली भाजपा ने तीसरी बार सत्ता में वापसी का जो रोडमैप तैयार किया है, उस पर पार्टी लगातार आगे बढ़ रही है। पार्टी ने देश भर की 543 संसदीय सीटों को चार श्रेणियों में बांट कर सभी के लिए अलग-अलग रणनीति तैयार की है। पहली श्रेणी में वे सीटें हैं, जिन पर अल्पसंख्यकों की आबादी 30 प्रतिशत से अधिक है। इस श्रेणी में 60 सीटें हैं। दूसरी श्रेणी में छह राज्यों की 60 ऐसी सीटें हैं, जिन पर छोटी-छोटी पार्टियों का दबदबा है। हालांकि 2014 और 2019 में इनमें से अधिकांश सीटों पर भाजपा ने जीत हासिल की थी, लेकिन बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों में पार्टी इन सीटों पर खास तवज्जो दे रही है। तीसरी श्रेणी में एक सौ वैसी सीटें हैं, जहां विपक्ष की स्थिति मजबूत मानी जाती है और चौथी श्रेणी में वे सीटें हैं, जहां भाजपा खुद को आरामदायक स्थिति में मान रही है। आज हम बात करेंगे दूसरी श्रेणी की उन 60 सीटों की, जिन पर छोटी-छोटी पार्टियों का दबदबा है और भाजपा इन्हें जीतने के लिए उन छोटी-छोटी पार्टियों को अपने साथ आने के लिए तैयार कर रही है। भाजपा का मानना है कि इन पार्टियों के साथ आने से उसकी सफलता की संभावना कई गुना बढ़ जायेगी। भाजपा के इस गेम प्लान का विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अकेले 303 सीटों का आंकड़ा पार कर लिया था, लेकिन साल 2024 में होनेवाले लोकसभा चुनाव में यही पार्टी कई राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों को अपने पाले में लाना चाहती है। आनेवाले लोकसभा चुनाव से पहले जहां एक तरफ सभी विपक्षी पार्टियां एक-दूसरे के साथ गठबंधन कर भाजपा को चुनौती देने की तैयारी में हैं, वहीं दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी अपना दल से लेकर लोक जनशक्ति पार्टी तक, नेशनल पीपुल्स पार्टी से लेकर टिपरा मोथा तक, सभी क्षेत्रीय पार्टियों को अपने साथ मिलाना चाहती है। लेकिन सवाल उठता है कि आखिर क्यों? 2024 के चुनाव में क्षेत्रीय पार्टी का साथ होना भाजपा के लिए कितना और क्यों जरूरी है। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अकेले अपने दम पर जीत का 300 आंकड़ा पार कर लिया था। 303 सीटें जीत कर पार्टी ने साबित कर दिया था कि वह अकेले सरकार बनाने में सक्षम है। लेकिन पिछले चार सालों में जो हुआ, उसका अनुमान शायद ही भाजपा ने लगाया होगा। जहां एक तरफ भाजपा अलग-अलग राज्यों में, फिर चाहे वह गुजरात हो या मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश हो या हरियाणा, सरकार बना रही थी, वहीं कुछ राज्यों में भाजपा के दोस्त, यानी गठबंधन वाली पार्टियां उसका साथ छोड़ रही थीं। बिहार की लोक जनशक्ति पार्टी, लव हेट रिश्ता रखनेवाली जनता दल यूनाइटेड, गोवा में विजय सरदेसाई की गोवा फॉरवर्ड पार्टी, तमिलनाडु की अन्नाद्रमुक, पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड की मांग करने वाला गोरखा जनमुक्ति मोर्चा, राजस्थान की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी और पंजाब में शिरोमणि अकाली दल वो पार्टियां हैं, जिन्होंने भाजपा का साथ 2019 के बाद छोड़ दिया। इन पार्टियों की अपने-अपने क्षेत्र की राजनीति में अच्छी खासी पकड़ थी।

आपसी मतभेद के कारण बंटी ये पार्टियां
इनके अलावा कई पार्टियां ऐसी रहीं, जिन्होंने भाजपा का साथ तो नहीं छोड़ा, लेकिन उनके अंदर खुद मतभेद देखने को मिले। जैसे शिवसेना। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में शिवसेना और भाजपा ने मिल कर चुनाव लड़ा था और 48 में से 41 सीटों पर जीत हासिल की थी। लेकिन अभी एक साल पहले शिवसेना में क्या हुआ, यह सबने देखा। अब शिवसेना भी दो भागों में बंट गयी है। एक भाग भाजपा के साथ है, तो दूसरा कांग्रेस-एनसीपी के साथ। यहां दिलचस्प बात यह है कि इतनी राजनीतिक उठापटक के बाद भी इस राज्य में सरकार बनाने के लिए भाजपा को शिवसेना की जरूरत पड़ ही गयी और दोनों ने मिल कर वहां सरकार बनायी। लोकसभा चुनाव में भी यही उम्मीद है कि दोनों साथ चुनाव लड़ेंगे।
उसके बाद आती है लोक जनशक्ति पार्टी। लोजपा ने भी साल 2019 में भाजपा के साथ मिल कर चुनाव लड़ा था, लेकिन चार साल में गठबंधन का पूरा गणित ही बिगड़ गया। रामविलास पासवान के निधन के बाद चिराग पासवान ने 2020 में एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़ने का फैसला लिया था। फिर पार्टी में चाचा पशुपति पारस और चिराग पासवान के बीच मतभेद होने लगा। फिर पशुपति पारस ने सांसदों के साथ मिल कर पार्टी का अलग गुट बना लिया और उससे भाजपा को समर्थन दिया। तो उससे भी सीधे तौर भाजपा को कुछ खास नुकसान नहीं हुआ। हालांकि कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह भाजपा का ही प्लान था।

तीन पार्टियों का साथ छूटने पर हुआ बड़ा नुकसान
पिछले चार सालो में भाजपा को सबसे बड़ा नुकसान खासकर तीन पार्टियों से हुआ है। ये तीन पार्टियां हैं शिरोमणि अकाली दल, जनता दल यूनाइटेड और शिवसेना। अब सवाल उठता है कि क्या इन तीनों पार्टियों के अलग होने से वाकई भाजपा को आनेवाले लोकसभा चुनाव में सीटों का नुकसान होगा। यहां यह ध्यान देनेवाली बात है कि ये वो पार्टियां हैं, जिनका वर्तमान में उनके राज्य में दबदबा कम हो गया है। जदयू हालांकि बिहार में सत्ता में है, लेकिन नीतीश कुमार पूरी तरह राजद पर आश्रित हैं। शिरोमणि अकाली दल पंजाब में 2022 में हुए विधानसभा चुनाव में मात्र तीन सीटों पर सिमट कर रह गयी। भाजपा से मतभेद के बावजूद वह भाजपा को कोई खास नुकसान नहीं पहुंचा सकी। इसी तरह अगर शिवसेना की बात करें, तो 48 लोकसभा सीट काफी ज्यादा होती हैं, लेकिन यहां दिलचस्प बात यह है कि शिवसेना का बड़ा गुट अभी भी भाजपा के साथ है। भाजपा को उसका महत्व पता है, इसलिए पार्टी बिल्कुल नहीं चाहती है कि यह साथ छूटे।

इन राज्यों में छोटी पार्टियों को रिझा रही है भाजपा
2024 की तैयारी में भाजपा ने वैसी 60 सीटों की पहचान की है, जहां छोटी-छोटी पार्टियों का दबदबा है। पिछले दो चुनावों में इनमें से अधिकांश सीटों पर भाजपा ने जीत हासिल की थी, लेकिन बदले राजनीतिक हालात में इस बार भाजपा कोई रिस्क नहीं लेना चाहती है।

बिहार में कुशवाहा और चिराग पर नजर
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के एनडीए से अलग होने के बाद अकेली पड़ी भाजपा ने बिहार में अपना कुनबा बढ़ाने की दिशा में कवायद तेज कर दी है। इसलिए वह छोटी पार्टियों पर ज्यादा ध्यान दे रही है। पिछले लोकसभा चुनाव में जदयू को 16 सीटें मिली थीं, लेकिन इस बार जदयू के अलग होने के कारण भाजपा को इन 16 सीटों का नुकसान हो सकता है। यही कारण है कि पार्टी उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोक जनता दल और चिराग पासवान की लोजपा को अपने साथ ला सकती है। भाजपा का साथ छोड़ने के कारण जदयू के ओबीसी वोटर, जो भाजपा के पाले में जानेवाले थे, उनमें से कुछ इन पार्टियों पर जरूर भरोसा दिखायेंगे, ऐसा भाजपा की सोच है। उपेंद्र कुशवाहा का 13 से 14 जिलों में प्रभाव है और वोट के हिसाब से प्रदेश में कुशवाहा की करीब पांच से छह फीसदी आबादी है। पासवान समाज दलित में आता है और प्रदेश में उसकी करीब चार फीसदी हिस्सेदारी है। इस तरह मांझी समुदाय की आबादी भी करीब चार फीसदी है।

उत्तरप्रदेश की कई पार्टियों से हो रही है बातचीत
बिहार की तरह ही उत्तरप्रदेश में भी भाजपा कई क्षेत्रीय पार्टियों को अपने साथ लाना चाहती है। फिर चाहे वह निषाद समुदाय को साथ लानेवाली निषाद पार्टी हो या फिर कुर्मी वोट बैंक पर ध्यान देते हुए अपना दल का साथ देना। या फिर सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओम प्रकाश राजभर से बातचीत करना। अगर यहां इन छोटी पार्टियों का साथ मिल जाता है, तो भाजपा को लगभग 10 सीटों का फायदा हो सकता है। यही कारण है कि भाजपा लगातार छोटी पार्टियों को साथ लाने की कोशिश कर रही है।

पूर्वोत्तर की पार्टियों की तरफ दोस्ती का हाथ
पूर्वोत्तर की बात करें, तो त्रिपुरा में सबसे ज्यादा चर्चा में आयी पार्टी टिपरा मोथा के साथ भी भाजपा गठबंधन करना चाहती है, क्योंकि आदिवासी इलाकों में टिपरा मोथा की पकड़ काफी अच्छी बन गयी है। वहीं नागालैंड में नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) और मेघालय में नेशनल पीपुल्स पार्टी के साथ बीजेपी का गठबंधन पहले से है, जिससे उस क्षेत्र में भाजपा की पकड़ लोकसभा के लिहाज से काफी मजबूत हो गयी है।

दक्षिण भारत पर भाजपा की खास नजर
यहां ध्यान देनेवाली बात यह भी है कि दक्षिण भारत भाजपा के लिए काफी ज्यादा महत्वपूर्ण है। इस क्षेत्र में 133 लोकसभा सीटों पर चुनाव होने हैं, जिन पर जीत हासिल करना भाजपा के लिए बहुत जरूरी है। अगर कर्नाटक को छोड़ दें, तो दक्षिण के हर राज्य में भाजपा संघर्ष कर रही है। और इसी का समाधान निकालने के लिए पार्टी ने 18 साल बाद तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक की थी, जिसमें दक्षिण में पार्टी का विस्तार कैसे हो, इस पर खास ध्यान दिया गया था।
दक्षिण में अगर भाजपा को पैर पसारना है, तो बहुत जरूरी होगा कि भारतीय जनता पार्टी इन राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों से हाथ मिलाये। केसीआर की पार्टी के कई नेता भी कई बार केंद्र सरकार की तारीफ करते हुए नजर आ चुके हैं। भाजपा चाहेगी कि इन सब छोटी-छोटी पार्टियों का साथ उसे ही मिले।
अगर बात दक्षिण की करें, तो केरल में भाजपा भरत बीडीजेएस, जेआरएस, केरल कांग्रेस (राष्ट्रवादी), केकेसी, एसजेडी जैसी पार्टियों का साथ बरकरार रखना चाहती है।

तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक को साथ रखने की कोशिश
तमिलनाडु में भाजपा अन्नाद्रमुक को अपने साथ रखने की पूरी कोशिश कर रही है, हालांकि निकाय चुनाव में दोनों पार्टियों ने गठबंधन तोड़ लिया था, लेकिन 2024 को लेकर दोनों ही पार्टियों का कहना है कि साथ में ही लड़ेंगे।

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