रांची। प्रकृति पर्व सरहुल की तैयारी जोरों पर है। इसको लेकर झारखंड के विभिन्न इलाकों में सरना स्थल व अखड़ा की सफाई की जा रही है। रांची शहर सरना झंडों से पट गया है। लोगों में खासा उत्साह है। 23 मार्च को विधि-विधान से उपवास, जल रखायी, पारंपरिक पूजा के बाद भविष्यवाणी होगी। यह भविष्यवाणी सरना धर्मावलंबियों के नव वर्ष के लिए होगी। इसमें अच्छी वर्षा के साथ बेहतर फसल की कामना होगी। 24 मार्च को 300 से अधिक अखड़ा से शोभायात्रा निकलेगी, जो सिरमटोली सरना स्थल तक पहुंचेगी। पारंपरिक वेशभूषा, वाद्ययंत्र और सरहुल गाते हुए लोग शोभायात्रा में शामिल होंगे। वहीं, 25 मार्च को फूलखोंसी के साथ सरहुल पर्व का समापन होगा।

चैत द्वितीया यानी 23 मार्च से सरहुल के धार्मिक अनुष्ठान शुरू होंगे। सरना स्थल पर विशेष पूजा होगी। दिन युवक और पाहन मिलकर तलाब, खेत व नदी से केकड़ा और मछली पकड़ कर लाते हैं। इन्हें अरवा धागा से बांधकर सुरक्षित रख दिया जाता है। हतमा सरना स्थल के जगलाल पाहन ने बताया कि जब धान की बुआई की जाती है, तब इनका चूर्ण बनाकर गोबर में मिलाया जाता है और धान के साथ बोया जाता है। इसके पीछे की मान्यता है कि जिस तरह केकड़े के असंख्य बच्चे होते हैं, उसी तरह धान की बालियां भी असंख्य होंगी। इसी दिन शाम में नदी व तालाब से दो घड़े में पाहन और सेंघारा पानी भरकर सरना स्थल पर रखेंगे। पानी के घड़े में अरवा चावल और सखुआ के फूल भी डाले जायेंगे। पवित्र सरना स्थल पर पारंपरिक विधि-विधान के साथ पांच मुर्गा-मुर्गी को सिंदूर, घुवन, दिया दिखाकर और अरवा धागा से बांध कर रख दिया जायेगा।

जगलाल पाहन ने सरहुल के बारे में बताया कि प्राचीन काल में जब हमारे पूर्वज जंगल में विचरण करते थे तब दिनभर विचरण के बाद शाम को विश्राम का ठिकाना ढूंढ़ा जाता था। इस क्रम में जंगल में मिलने वाले कंद-मूल और जानवर का शिकार कर भोजन करते थे। ऐसे में जंगल में बहुतायत में पाये जाने वाले साल यानी सखुआ वृक्ष के नीचे आश्रय बनाते थे। साल के वृक्ष को आकार में बड़ा और सुरक्षित माना गया। पेड़ का तना यानी धर लोगों को विभिन्न मौसम से बचाव करता था।

साथ ही जंगली जानवरों से सुरक्षा देता था. इसके अलावा साल वृक्ष की डाली, फल और फूल को जीवनयापन में उपयोगी पाया। फल से बनने वाले सरये तैयार कर सखुआ के पत्ते में खाते थे। पतली डालियां जलावन में और मोटी डाली आश्रम तैयार करने में इस्तेमाल होने लगे। साल के वृक्ष हर परिस्थिति में उपयोगी होने के कारण पूर्वजों ने इसे पूजना शुरू कर दिया। यह कारण है कि सरहुल के दिन साल वृक्ष के साथ प्रकृति की पूजा की जाती है।

प्रकृति के इस पर्व के लिए रांची शहर के बाजार इन दिनों सरहुल झंडे से पटे हैं। बाजार में 30 इंच से लेकर 30 फीट के सरहुल झंडे मिल रहे हैं। सबसे ज्यादा मांग एक मीटर वाले सरहुल झंडे की है। इसकी कीमत 30 रुपये से शुरू है। वहीं, शहर के विभिन्न बड़े अखड़ा के लिए पांच फीट से लेकर 30 फीट तक के सरहुल झंडे तैयार किये गये हैं। इनकी कीमत 300 रुपये से 2000 रुपये तक है।

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