विशेष
-यही हाल रहा, तो 2024 की राह हो जायेगी और भी कठिन
देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी और करीब साढ़े छह दशक तक देश की सत्ता पर एकछत्र शासन करनेवाली कांग्रेस वाकई अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। पार्टी ने पिछले साल बड़े तामझाम के साथ नये अध्यक्ष का चुनाव कर आंतरिक लोकतंत्र का स्वर मजबूत किया, लेकिन राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा और फिर पिछले महीने रायपुर में पार्टी के महाधिवेशन में लिये गये फैसलों से साफ पता चलता है कि पार्टी अब भी ‘परिवार’ की छाया से पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकी है। कांग्रेस का हर फैसला अब भी उस ‘परिवार’ की मर्जी से लिया जाता है या यों कहा जाये कि पार्टी के हर फैसले के पीछे ‘परिवार’ की इच्छा होती है। अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रही किसी पार्टी के लिए इससे बुरा कुछ भी नहीं हो सकता है। मल्लिकार्जुन खड़गे के अध्यक्ष बनने, भारत जोड़ो यात्रा और रायपुर अधिवेशन के बाद लगा था कि कांग्रेस अब खुद को बदल रही है, लेकिन यात्रा और महाधिवेशन को एक साथ देखा जाये, तो ऐसा कुछ भी नजर नहीं आता है। कांग्रेस को समझना होगा कि राजनीति के इस आक्रामक दौर में उसे भी रक्षात्मक रुख छोड़ कर सामने आना होगा। लेकिन खड़गे का अब तक का कामकाज साबित करता है कि वह अपनी मर्जी से कुछ भी नहीं कर सकते हैं। उन्हें अपने हर फैसले के लिए उस ‘परिवार’ पर निर्भर रहना पड़ रहा है। इससे और तो कुछ नहीं हो रहा, केवल कांग्रेस के लिए 2024 की राह कठिन होती जा रही है। कांग्रेस की इस हालत का विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा और कांग्रेस के नया रायपुर महाधिवेशन को जोड़ कर देखें, तो लगता है कि विचारधारा, संगठन और चुनावी रणनीति की दृष्टि से पार्टी कुछ नया नहीं गढ़ना चाहती। वह ‘राहुल गांधी सिद्धांत’ पर चल रही है, जो 2019 के चुनाव के पहले तय हुआ था। पार्टी के कार्यक्रमों पर नजर डालें, तो वे 2019 के घोषणापत्र के ‘न्याय’ कार्यक्रम की कार्बन कॉपी हैं। इसमें न्यूनतम आय और स्वास्थ्य के सार्वभौमिक अधिकार को भी शामिल किया गया है। तब और अब में फर्क केवल इतना है कि पार्टी अध्यक्ष अब मल्लिकार्जुन खड़गे हैं, जिनकी अपनी कोई लाइन नहीं है। संयोग से परिणाम वैसे नहीं आये, जिनका दावा किया जा रहा है, तो जिम्मेदारी खड़गे ले ही लेंगे।
कांग्रेस के कार्यक्रमों पर नजर डालें, तो दिखाई पड़ेगा कि पार्टी ने भाजपा के कार्यक्रमों की तर्ज पर ही अपने कार्यक्रम बनाये हैं। इसमें कोई नयापन नहीं है। इस महाधिवेशन से दो-तीन बातें और स्पष्ट हुई हैं। कांग्रेस अब सोनिया गांधी से बाद की राहुल-प्रियंका पीढ़ी के पूरे नियंत्रण में है। अधिवेशन में जो भी फैसले हुए, वे परिवार की मर्जी को व्यक्त करते हैं। पार्टी में पिछली पीढ़ी के ज्यादातर नेता या तो किनारे कर दिये गये हैं या राहुल के शरणागत हो गये हैं। जी-23 जैसे ग्रुप का दबाव खत्म है।
दूसरी तरफ राहुल-सिद्धांत की विसंगतियां कायम हैं। राहुल ने खुद को ‘सत्याग्रही’ और भाजपा को ‘सत्ताग्रही’ बताया। नौ साल सत्ता से बाहर रहना उनकी व्यथा है। दूसरी तरफ पार्टी का अहंकार बढ़ा है। वह विरोधी दलों से कह रही है कि हमारे साथ आना है, तो हमारे नेतृत्व को स्वीकार करो। बगैर किसी चुनावी सफलता के उसका ऐसा मान लेना आश्चर्यजनक है। सवाल है कि गुजरात में मिली जबरदस्त हार के बावजूद पार्टी के गौरव गान के पीछे कोई कारण है या सब कुछ हवा-हवाई है? पार्टी मान कर चल रही है कि राहुल गांधी का कद बढ़ा है। उनकी भारत जोड़ो यात्रा ने चमत्कार कर दिया है। छोटे से लेकर बड़े नेताओं तक ने ‘भारत जोड़ो’ का जैसा यशोगान किया, वह रोचक है।
यात्रा की राजनीति
हालांकि यात्रा को पार्टी के कार्यक्रम के रूप में शुरू नहीं किया गया था और उसे राजनीतिक कार्यक्रम बताया भी नहीं गया था, पर पार्टी यह भी मानती है कि इस यात्रा ने उसमें ‘प्राण फूंक दिये हैं’ और अब ऐसे ही कार्यक्रम और चलाये जायेंगे, ताकि राहुल गांधी के ही शब्दों में उनकी ‘तपस्या’ के कारण पैदा हुआ उत्साह भंग न होने पाये। तपस्या बंद नहीं होनी चाहिए।
बहरहाल ‘यात्रा की राजनीति’ ही अब कांग्रेस की रणनीति है। उनकी समझ से भाजपा के राष्ट्रवाद का जवाब भी यही है। भाजपा पर हमला करने के लिए कांग्रेस ने वर्तमान चीनी घुसपैठ के राजनीतिकरण और 1962 में चीनी आक्रमण के दौरान तैयार हुई राष्ट्रीय चेतना का श्रेय लेने की रणनीति तैयार की है। नरेंद्र मोदी के मेक इन इंडिया और आत्मनिर्भर भारत जैसे कार्यक्रमों की देखा-देखी अधिवेशन में पारित एक प्रस्ताव में कहा गया है कि देश के उत्पादों को बढ़ावा देने का समय आ गया है। इसके लिए मझोले और छोटे उद्योगों, छोटे कारोबारियों को संरक्षण देने तथा जीएसटी को सरल बनाने की जरूरत है।
राहुल का चेहरा
लगता है, राहुल गांधी अपनी वामपंथी छवि बनाना चाहते हैं। विरोधी दलों की एकता से जुड़े प्रस्ताव में सेकुलर और सोशलिस्ट पार्टियों की एकता शब्द का इस्तेमाल किया गया है। खड़गे ने दावा किया है कि कांग्रेस 2024 के लिए एक विजन दस्तावेज तैयार करेगी। चुनाव राहुल गांधी के नेतृत्व में लड़ा जायेगा। उन्हें प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने या नहीं करने का अब कोई मतलब नहीं है। अध्यक्ष कोई भी हो, कमान परिवार के हाथ में होगी। एक तस्वीर सामने आयी है, जिसमें मंच पर खड़गे और कुछ अन्य नेता खड़े हैं। धूप से बचाने के लिए छतरी केवल सोनिया गांधी के ऊपर तनी है। छत्र के इस प्रतीक को आप इस रूप में देख सकते हैं। अधिवेशन में जो बातें उभर कर आयी हैं, उनमें पार्टी के लोकसभा चुनाव में पूरी ताकत से लड़ने, भाजपा को परास्त करने की हरसंभव कोशिश करने, सामाजिक न्याय को महत्व देने, युवाओं को आगे लाने और समान विचारों वाले विरोधी दलों को एकजुट करने जैसी बातें शामिल हैं। बार-बार दोहरायी जाने वाली इन बातों के मुकाबले तत्व की बातें दो हैं। नरेंद्र मोदी पर सीधे हमले जारी रहेंगे। इसके अलावा सीबीआइ तथा इडी के दुरुपयोग के आरोपों को धार दी जायेगी।
चुनाव नहीं, मनोनयन
पिछले साल से पार्टी की दो प्रवृत्तियां साफ दिखाई पड़ रही हैं। जी-23 का दबाव कहें या वक्त की जरूरत, पार्टी ने लोकतांत्रिक- कर्मकांड का सहारा लेना शुरू कर दिया है। उदयपुर के चिंतन शिविर से कुछ सिद्धांत निकल कर आये और पार्टी के अध्यक्ष का चुनाव हुआ। उस चुनाव में स्पष्ट था कि खड़गे परिवार के प्रत्याशी हैं। कार्यसमिति के गठन की प्रक्रिया को लेकर चली चर्चा पर रायपुर में विराम लग गया और स्पष्ट है कि चुनाव नहीं होगा, मनोनयन होगा। सदस्यों की संख्या भी बढ़ा दी गयी है। विडंबना है कि देश में लोकतंत्र की मांग करनेवाली पार्टी आंतरिक लोकतंत्र से भाग रही है। महाधिवेशन में कांग्रेस ने अपने संविधान के जिन 16 नियमों और 32 प्रावधानों में संशोधन के प्रस्ताव तकरीबन मंजूर किये हैं, वे सभी राहुल गांधी के विचारों से निकले हैं। सबसे बड़ा फैसला यह लिया गया कि कार्यसमिति के सदस्यों की संख्या बढ़ायी जायेगी और इसमें एससी, एसटी, ओबीसी, महिला और युवा वर्ग की हिस्सेदारी सुनिश्चित की जायेगी। उदयपुर में 50 प्रतिशत पदों पर 50 से कम उम्र के लोगों को रखने का सिद्धांत बना था। उसका क्या हुआ, पता नहीं। बहरहाल कार्यसमिति में वंचितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं को कितना स्थान मिलेगा और किस तरह मिलेगा, यह कुछ समय बाद ही पता चलेगा। उसका व्यावहारिक रूप कुछ समय बाद ही स्पष्ट होगा। वस्तुत: यह आंतरिक लोकतंत्र से ज्यादा चुनावी रणनीति का हिस्सा है। पार्टी आरक्षित वर्गों को आकर्षित करना चाहती है। उसने जातिगत जनगणना कराने की मांग भी की है। लोकतंत्र की दृष्टि से देखें, तो यह देखना होगा कि विभिन्न प्रदेशों की कांग्रेस समितियों के सदस्य किस प्रकार चुन कर आये थे।
इस पूरे परिप्रेक्ष्य में साफ नजर आता है कि कांग्रेस का अध्यक्ष भले ही उस ‘परिवार’ का हिस्सा नहीं है, लेकिन पार्टी का आंतरिक लोकतंत्र अब पूरी तरह दम तोड़ चुका है। उसके नेताओं को जरा भी आभास नहीं है कि 2024 में यही ‘परिवार’ पार्टी की राह में कांटे बोयेगा।