विशेष
प्रदेश अध्यक्ष पद से अखिलेश सिंह को हटा कर पार्टी ने राजद को दे दी चुनौती
राजेश कुमार को कमान सौंप कर दलित-ओबीसी समीकरण की हुई है कोशिश

नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
बिहार की राजनीति में उलट-फेर कर कांग्रेस ने आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर एक संकेत दे दिया है कि अब कांग्रेस में निर्णय के लिए आखिरी व्यक्ति राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव नहीं होंगे। कांग्रेस से ज्यादा लालू प्रसाद यादव के करीबी माने जाने वाले अखिलेश प्रसाद सिंह को पार्टी ने प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटा कर यह जता भी दिया है। साथ ही प्रदेश कांग्रेस की तरफ से एक संकेत यह भी मिल गया कि कांग्रेस अब राजद की ‘बी’ टीम नहीं, बल्कि ‘ए’ टीम की तरह चुनावी मैदान में उतरेगी। प्रदेश अध्यक्ष पद से अखिलेश प्रसाद सिंह का जाना और दलित नेता राजेश कुमार के आने का मतलब साफ है कि राहुल गांधी के ध्यान पर बिहार प्रमुखता से चढ़ गया है। वह दलित नेता के जयंती समारोह में आये, तो मतलब साफ हो गया कि कांग्रेस की नजर विरासत के वोट पर है। विरासत यानी दलित मत। कांग्रेस की नजर दलितों के लगभग 17 प्रतिशत वोट पर है। कांग्रेस का निशाना रविदास, यानी चमार जाति पर है, जो पासवान की तरह बिहार में मजबूत दलित जाति है। उसके अलावा कई कारण हैं, जिसकी वजह से कांग्रेस दलितों पर ध्यान दे रही है। पासवान के नेता चिराग हैं, तो मांझी के नेता जीतन राम मांझी। इसलिए कांग्रेस ने दलित मत के लिए उस राजेश कुमार को आगे किया, जिनकी विरासत में राजनीति है। राजेश कुमार के पिता दिलकेश्वर राम कांग्रेस में जगजीवन राम के बाद दलित के जाने-माने नेता थे। दिलकेश्वर राम का पारिवारिक संबंध पूर्व मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा के परिवार से था। राजेश औरंगाबाद के कुटुंबा के विधायक हैं। चुनाव से ठीक पहले प्रदेश अध्यक्ष बदलने का कांग्रेस का यह प्लान कैसे और क्यों बना और इसके क्या परिणाम होंगे, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

बिहार में विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस ने प्रदेश अध्यक्ष को बदल कर बड़ा दांव खेला है। चुनावी साल में इस बदलाव से कांग्रेस ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह अब बिहार में फ्रंट फुट पर खेलने के लिए तैयार है। बिहार की कमान अखिलेश प्रसाद सिंह से लेकर राजेश कुमार को सौंप दी गयी है। वह बिहार प्रदेश कांग्रेस के 42वें और चौथे दलित अध्यक्ष हैं। उनसे पहले 1977 में मुंगेरी लाल, 1985 में डुमर लाल बैठा और 2013 में अशोक चौधरी दलित अध्यक्ष बने थे। राजेश कुमार ने मीडिया से बातचीत में कहा है कि राहुल गांधी ने उन्हें चुन कर बिहार में सामाजिक न्याय की विचारधारा शुरू कर दी है। उन्होंने कहा कि हम लोग बिहार में 23 फीसदी की राजनीति करने जा रहे हैं। हमारा लक्ष्य दलित, अल्पसंख्यक और सवर्ण को साधना है। लेकिन इसके लिए जुनून के साथ काम करने की जरूरत है, जो हम करेंगे।

तय था बिहार कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन
दरअसल इस साल की शुरूआत से ही सक्रिय दिख रही बिहार कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन तय माना जा रहा था। साथ ही यह भी लगभग तय था कि कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व किसी दलित नेता के हाथ में ही बिहार कांग्रेस की कमान सौंपेगा। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने पहले 18 जनवरी को पटना में आयोजित संविधान सुरक्षा सम्मेलन और फिर पांच फरवरी को दलित नेता जगलाल चौधरी की जयंती में शिरकत करके दलित वोटों की गोलबंदी का इरादा जाहिर कर दिया था। ऐसे में ये सवाल अहम है कि चुनावी वर्ष में बिहार कांग्रेस क्या ‘बैक टू रूट्स’ मोड में है। इस नेतृत्व परिवर्तन के मायने क्या हैं? साथ ही क्या अखिलेश प्रसाद सिंह की छुट्टी और महागठबंधन में कांग्रेस के ‘ए’ टीम बनने की तैयारी में कोई संबंध है।

कौन हैं राजेश कुमार
राजेश कुमार बिहार के औरंगाबाद जिÞले के कुटुंबा विधानसभा क्षेत्र से विधायक हैं। वह साल 2015 और 2020 में इस सीट से जीते। कुटुंबा सीट 2008 में परिसीमन के बाद बनी थी और यह अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित सीट है। मूल रूप से औरंगाबाद के ओबरा के रहने वाले राजेश कुमार के पिता दिलकेश्वर राम भी कांग्रेस से 1980 और 1985 में विधायक रहे। वह औरंगाबाद की देव सीट से विधायक थे। दिलकेश्वर राम कांग्रेस सरकार में पशुपालन-मत्स्य मंत्री और स्वास्थ्य मंत्री भी बने थे। 56 साल के राजेश कुमार ने साल 2015 में पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के बेटे और फिलहाल बिहार सरकार में मंत्री संतोष कुमार सुमन को हराया था। फिर साल 2020 में उन्होंने हम के ही श्रवण मांझी को हराया। राजेश कुमार साल 2010-16 के बीच प्रदेश कांग्रेस कमिटी के महासचिव रहे। वह पार्टी की अनुसूचित जाति-जनजाति प्रकोष्ठ के भी अध्यक्ष रहे। राजेश कुमार ने 1989 से संत कोलंबा कॉलेज हजारीबाग से स्नातक किया हुआ है।

बुरे दिनों के साथी हैं राजेश कुमार
राजेश कुमार कांग्रेस के बुरे दिनों के साथी है। इनका परिवार समर्पित कार्यकर्ता रहा है। वर्तमान में बिहार सरकार में मंत्री अशोक चौधरी जब कांग्रेस छोड़कर जा रहे थे, तो इन्होंने जदयू में ये कहकर जाने से इनकार कर दिया था कि सदाकत आश्रम (पार्टी दफ्तर) में झाडू लगा लूंगा, लेकिन कांग्रेस छोड़कर नहीं जाऊंगा। राजेश कुमार शांत और सहज स्वभाव के हैं। अपनी इसी छवि और पिता की विरासत का फायदा उन्हें मिला है।

जातीय समीकरण पर ध्यान
राजेश कुमार की नियुक्ति कर कांग्रेस ने उस जातीय समीकरण पर ध्यान दिया है, जिसकी बिहार की सियासत में निर्णायक भूमिका होती है। राजेश कुमार दलित हैं। बिहार में हुए जातीय सर्वे के मुताबिक रविदास जाति 5.25 फीसदी है। राजेश कुमार इसी जाति से ताल्लुक रखते हैं। बिहार में दलितों की आबादी 19 फीसदी है। अभी बिहार में तीन प्रमुख दलों, भाजपा, जदयू और राजद में से किसी का अध्यक्ष दलित नहीं है। इसलिए कहा जा रहा है कि एक दलित को अध्यक्ष नियुक्त करना बिहार कांग्रेस के लिए ‘बैक टू रूट्स’, यानी जड़ों की ओर लौटने जैसा है। दरअसल 90 तक बिहार में सत्तासीन रही कांग्रेस का वोट बैंक सवर्ण, मुस्लिम और दलित थे। पार्टी ने राजेश कुमार को कमान सौंप कर सामाजिक समीकरण को अपने पक्ष में करने की जोरदार कोशिश की है।

अखिलेश प्रसाद सिंह की छुट्टी क्यों हुई?
अखिलेश प्रसाद सिंह का कार्यकाल दिसंबर 2025 में खत्म होना था। दिसंबर 2022 में उन्हें कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था। उनसे पहले मदन मोहन झा कांग्रेस अध्यक्ष थे। कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष का कार्यकाल तीन साल का होता है। बिहार कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन की अटकलें बीते 18 जनवरी से ही लगने लगी थी। उस वक्त राहुल गांधी संविधान सुरक्षा सम्मेलन में हिस्सा लेने पटना आये, तो सदाकत आश्रम में कांग्रेस कार्यकर्ताओं की अच्छी संख्या जुटी थी, लेकिन राहुल गांधी यहां महज आठ मिनट बोले। इसके बाद चार फरवरी को राहुल गांधी फिर पटना आये। लेकिन राहुल गांधी के पटना आगमन के इन दोनों कार्यक्रम की जानकारी बिहार कांग्रेस को नहीं थी। पार्टी को यह जानकारी आयोजकों से मिली। ऐसे में अखिलेश प्रसाद सिंह से राहुल गांधी की नाखुशी की अटकलें लगने लगी थीं। इन अटकलों को मजबूती तब मिली, जब फरवरी में कृष्णा अल्लवारू कांग्रेस प्रभारी बनाये गये और उन्होंने मार्च में कन्हैया के साथ बिहार में पदयात्रा का कार्यक्रम तय कर लिया। 16 मार्च को शुरू हुई पदयात्रा से पहले 10 मार्च को पार्टी दफ्तर में हुई प्रेस कांफ्रेंस में अखिलेश प्रसाद सिंह मौजूद नहीं थे। इसके बाद 12 मार्च को दिल्ली में बिहार कांग्रेस के प्रमुख नेताओं के साथ राहुल गांधी की बैठक भी टाल दी गयी। तब कहा गया कि केंद्रीय नेतृत्व किसी तरह की कलह को सतह पर आने नहीं देना चाहता था।

दरअसल राज्यसभा सांसद अखिलेश प्रसाद सिंह की छवि राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के करीबी होने की है। कृष्णा अल्लवारू ने कांग्रेस प्रभारी बनने के बाद अन्य कांग्रेस प्रभारियों से अलग अब तक राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव या किसी अन्य नेता से मुलाकात नहीं की है। साथ ही वह ये दोहराते रहे हैं कि वह कांग्रेस को ‘बी’ टीम नहीं, बल्कि ‘ए’ टीम बनाना चाहते हैं। जानकारों की मानें तो कृष्णा अल्लवारू के साथ अखिलेश प्रसाद सिंह पहले ही सहज महसूस नहीं कर रहे थे और कन्हैया को ‘नौकरी दो पलायन रोको’ यात्रा का चेहरा बनाये जाने से इस असहजता को बढ़ा दिया था। अखिलेश और कन्हैया एक ही जाति भूमिहार से आते हैं, जो सवर्ण है।

क्या है कांग्रेस का प्लान
इस बदलाव से साफ है कि कांग्रेस अब लालू की जेब में नहीं रहना चाहती, बल्कि अपने संगठन को मजबूत करना चाहती है। इसलिए कांग्रेस तन कर खड़ी हो गयी है। पार्टी ने राजेश कुमार को अध्यक्ष बनाकर दलित कार्ड खेला है, साथ ही सवर्णों को साधने की कोशिश की है। लालू यादव के प्रभाव में कन्हैया को पीछे धकेल दिया गया था, लेकिन पार्टी उसे फ्रंट में ले आयी है। जाहिर तौर पर अखिलेश प्रसाद लालू यादव के करीबी रहे हैं और उनके रहते इस काम में मुश्किल आती।

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