लापरवाही, लालच और मानवीय चूक का सबसे काला अध्याय
-भारतीय खनन इतिहास की सबसे घातक त्रासदी, जिसने 375 मजदूरों को लील लिया
-जब खदान में गया तो कोयला मजदूरों के प्रति सम्मान 100 गुणा बढ़ गया
-वे मुझे सैनिक से कम नहीं लग रहे थे, जो खुद को अंधेरे में झोंक, देश को रोशन करते हैं
-हर पल खतरे से घिरे रहने के बावजूद वह मुस्कुराता है, डर और दर्द को किसी कोने में छुपा लेता है
एक कोयला मजदूर को आप तभी समझ सकते हैं, जब आप उसके जीवन में झांकेंगे। जब कोई मजदूर खदान के भीतर जाता है, तो उसे पता नहीं होता कि वह उस शिफ्ट में खदान से सुरक्षित बाहर निकल पायेगा या नहीं। उसके आसपास हर वक्त खतरा मुंह बाये खड़ा रहता है। साधन और टेक्नोलॉजी उस खतरे को कम जरूर कर सकते हैं, या फिर चेता सकते हैं। लेकिन खतरा पूरी तरीके से खत्म नहीं कर सकते। कोयला खदान की एक विशेषता है। वह खतरे का संकेत जरूर देती है। जो पहचान लेता है, वह सुरक्षित बच जाता है और जो उसे नजरअंदाज कर देता है, तो फिर चासनाला जैसी त्रासदी होती है। चासनाला त्रासदी, एक ऐसी त्रासदी, जिसे टाला जा सकता था, लेकिन लापरवाही, लालच और मानवीय चूक ने इस घटना को और बल दे दिया। जी हां, 27 दिसंबर 1975 का वह काला शनिवार भारतीय खनन इतिहास का सबसे दुखद और भयानक घटनाओं में से एक है। उस त्रासदी में 375 मजदूरों की मौत हुई थी। लेकिन यह आधिकारिक आंकड़ा है। स्थानीय लोगों और यूनियनों का दावा था कि मरने वालों की संख्या इससे कहीं ज्यादा थी, क्योंकि कई ठेका मजदूर उस दिन हादसे के वक्त खदान में मौजूद थे, जिनका रिकॉर्ड रजिस्टर में नहीं था। जानकारों की माने तो यदि खदान की मैपिंग और सुरक्षा नियमों का पालन किया गया होता, तो उस घटना में 375 मजदूरों की जान नहीं गयी होती। कैसे हुई चासनाला त्रासदी, क्या कहते हैं चश्मदीद,परिजन और अधिकारी, ग्राउंड रिपोर्ट की पूरी जानकारी दे रहे हैं आजाद सिपाही के संपादक राकेश सिंह।
कैसे हुई चासनाला दुर्घटना
तारीख 27 दिसंबर, साल 1975, दिन शनिवार, समय दोपहर 1 बजकर 35 मिनट। अचानक चासनाला के डीप माइन के अंदर धमाका होता है। पूरी खदान जलमग्न हो जाती है। पानी का दबाव इतना कि खदान के बाहरी और ऊपरी हिस्से से करीब 10 फीट उंची पानी के फव्वारे देखे गये। खदान में पानी इतनी तेजी से भरा कि नीचे काम कर रहे मजदूरों को भागने और संभलने तक का मौका नहीं मिला और 375 मजदूरों की जलसमाधि हो गयी। जानकारों की माने तो खदान के जिस हिस्से में मजदूर काम कर रहे थे, उसके ठीक ऊपर एक पुरानी खदान थी, जो कई सालों से बंद थी। उस पुरानी खदान में करीब पांच करोड़ गैलन पानी भरा हुआ था। खदान प्रबंधन को इस ‘वॉटर पॉकेट’ की जानकारी थी, लेकिन उत्पादन बढ़ाने के चक्कर में सुरक्षा नियमों को ताक पर रख दिया गया था। धमाका इतना शक्तिशाली था कि उसने खदान की उस दीवार को तोड़ दिया, जहां मजदूर काम कर रहे थे। 70 लाख गैलन प्रति मिनट की रफ्तार से एक सुनामी की तरह सारा पानी उस खदान में घुस गया और मिनटों में मजदूरों की जल समाधि हो गयी। चश्मदीदों की माने तो खदान में पानी करीब 10 फीट ऊंचाई तक भरा था। घटना घटते ही सायरन बजना शुरू हुआ। चारों और अफरा-तफरी का माहौल। सब चिल्लाने लगे, शोर मचाने लगे, खदान की ओर भागे। कहने लगे पानी निकालो, पानी निकालो। बचाव कार्य शुरू हुआ, लेकिन स्थिति बहुत खराब थी। खदान इतनी गहरी थी और पानी इतना ज्यादा था कि सामान्य पंपों से उसे निकालना असंभव था। उस स्थिति से निकपटने के लिए न तो तैयारी थी, न ही संसाधन थे और न ही आधुनिक उपकरण। वहां पर मौजूद एक मैनेजर साहब को स्थिति का अंदाजा हो गया था। वह बदहवास हो गये, इधर-उधर भागने लगे। चिल्लाने लगे ऑल आर फिनिश, ऑल आर फिनिश, सब मर गये। सब मर गये। हादसे की खबर फैलते ही हड़कंप मच गया। जैसे ही इस घटना के बारे में मजदूरों के परिजनों को पता चला, हजारों की संख्या में परिजन, जो जिस अवस्था में था, रोते बिलखते भागे। खदान के मुहाने पर जमा हो गये। लेकिन स्थिति इतनी भयावह थी कि स्थानीय प्रशासन के पास इसे संभालने के साधन नहीं थे। खान की चारों तरफ भीड़ इकठ्ठा हो गयी। परिजन हाजिरी रजिस्टर की ओर भागे। सभी जानकारी लेना चाह रहे थे कि अंदर कौन-कौन है। लेकिन पूरी खदान तो जलमग्न थी। बचा कौन होगा, अपनों के लिए बस प्रार्थना चालू थी।
पानी निकालने के लिए रूस और पोलैंड से पंप मंगाये गये
इंदिरा गांधी की सरकार थी। आपातकाल का दौर था। एक्शन लिया गया। वहां के डीसी थे लक्ष्मण शुक्ला और तारकेश्वर प्रसाद सिन्हा एसपी थे। मुख्यमंत्री डॉ जगन्नाथ मिश्र और केंद्रीय कोयला मंत्री चंद्रदेव यादव अगले दिन घटनास्थल पर पहुंच गये। राहत और बचाव कार्य की जिम्मेवारी सेना को सौंप दी गयी। सेना ने खदान क्षेत्र को छावनी में तब्दील कर दिया था। हेलीकॉप्टर से लोगों के लिए राहत सामग्री और खाने का सामान गिराया जाने लगा। हादसे के दौरान भारत के पास इतने शक्तिशाली पंप नहीं थे, जो लाखों लीटर पानी बाहर निकाल सकें। तत्कालीन सोवियत संघ (रूस) और पोलैंड से भारी क्षमता वाले पंप मंगाये गये। करीब 26 दिनों के बाद जब पहली बार गोताखोर और बचाव दल नीचे पहुंचा, तो जो मंजर सामने आया, वह रूह कंपा देने वाला था। वहां सिर्फ क्षत-विक्षत शव और कंकाल मिले। किसी का भी बचना नामुमकिन था। पानी निकालने में हफ्तों लग गये। जैसे-जैसे पानी कम हुआ, अंदर से सड़ी-गली अवस्था में लाशें निकलनी शुरू हुईं। कई लाशें तो इतनी क्षत-विक्षत थीं कि उनकी पहचान केवल उनके पहने हुए सामानों से हुई।
आजाद सिपाही टीम का चासनाला दौरा
आजाद सिपाही की टीम 17-18 दिसंबर को चासनाला में थी। संपादक राकेश सिंह के नेतृत्व में टीम ने कई बस्तियों का दौरा किया। सबसे पहले तो सेल के अधिकारियों से मुलाकात हुई। चासनाला त्रासदी तो याद कर वे भी भावुक हो गये। उन्होंने बताया कि कैसे खदान में जाने से पहले सुरक्षा नियमों का पालन करना महत्वपूर्ण होता है। 27 दिसंबर 2025 को उस त्रासदी के 50 वर्ष होने वाले हैं। उसे लेकर उन्होंने कई तैयारी भी की है। उस दिन परिजनों के साथ-साथ सेल के अधिकारी और कर्मचारी भी श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे।
खदान के अंदर जाने का मौका, जब बाहर निकला तो मैं अलग व्यक्ति था
मुझे और आजाद सिपाही टीम के तीन सदस्यों को खदान में जाने का मौका मिला। सबसे पहले सुरक्षा को देखते हुए मोबाइल और अन्य गैजेट्स जमा करा लिया गया। चूंकि जिस खदान में हमें जाना था, वह बेहद संवेदनशील थी। यूं कहें खतरनाक थी। इसे टेक्निकल टर्म में डिग्री 3 गैसी माइंस कहा जाता है। मीथेन और अन्य प्रकार के गैस रिसाव का खतरा हर पल बना रहता है। हमने सभी सेफ्टी उपक्रम पहने और मैन राइडिंग (ट्राली नुमा ) के जरिये चले गये खदान के अंदर। खदान 45 डिग्री इंकलाइंड था। हम जैसे-जैसे खदान के अंदर जा रहे थे, अंधेरा छाने लगा। हमने कैप लैंप ऑन किया। इसके सहारे हम खदान के अंदर देख पा रहे थे। मैन राइडिंग ट्राली एक प्लेटफार्म तक गयी और हम वहां पर उतर गये। फिर पैदल ही खदान के अंदर दौरा किया। हमारे साथ सेल के दो और अधिकारी थे, जो हमें खदान की सेफ्टी से अवगत करा रहे था। आधुनिक उपकरणों के बारे में उन्होंने जानकरी दी। कैसे आज की खदान सुरक्षा मानकों पर खरा उतरती है, उसकी जानकारी दी गयी। करीब डेढ़ किलोमीटर हम खदान के अंदर गये। दृश्य ऐसा, मानों पाताल लोक में पहुंच चुके हों। मैं उस घटना को अपने अंदर महसूस कर रहा था। यह वह खदान नहीं थी, जिसमे त्रासदी हुई थी, लेकिन समझ सकता था कि उस दिन क्या हुआ होगा। किस परिस्थिति में मजदूर फंसे होंगे। रोमांच से भरा अनुभव था। जब मैं खदान से बाहर आया, तब मैं एक अलग इंसान था। खदान के बाहर दूसरी शिफ्ट के मजदूर अंदर जाने को तैयार थे। अब मेरा सम्मान उन मजदूरों के लिए कई गुणा बढ़ चूका था। मैं बस उन मजदूरों को देख रहा था, वे मुझे किसी सैनिक से कम नहीं लग रहे थे। एक मजदूर देश को रोशन करने के लिए कैसे अपना जीवन अंधकार को अर्पित कर देता है, उससे पहचान हुई।
बस्तियों का दौरा और चश्मदीदों से मुलाकात
अगले दिन मैं और टीम ने मजदूरों की कई बस्तियों का दौरा किया। ओझा बस्ती, महतो बस्ती, बनिया बस्ती, गोराईं बस्ती जैसी कई बस्तियां वहां पर हैं। इन बस्तियों में घटना के कई चश्मदीदों से बातचीत करने का मौका भी मिला। हालांकि चश्मदीद अब बहुत कम संख्या में ही बचे हैं। उम्र भी लगभग 80 के आस-पास हो चली है। लेकिन उनके कई परिजन आज भी वहां मौजूद हैं। उनकी आंखों में से आंसू आज भी उस त्रासदी को याद कर झर-झर बहने लगते हैं। उस घटना को कोई याद नहीं करना चाहता। एक व्यक्ति मिले, जो ओझा बस्ती में शिव मंदिर के पंडित थे। उन्होंने बताया कि उस वक्त उनकी उम्र 14 साल की थी। उनके पिता इस घटना के शिकार हुए थे। घटना के बारे में बताते वक्त उनकी आंखें भर जाती हैं। उनका कहना था कि वह उस दिन खदान के आसपास ही मौजूद थे। खदान से पानी ऊपर तक आ चुका था। चारों तरफ अफरा-तफरी का माहौल था। उनकी नजरें उनके पिता को ढूंढ रही थी। लेकिन उन्होंने मान लिया था कि उनके पिता शायद नहीं बच पाये होंगे। और भी परिजनों से बातचीत हुई। बातचीत के क्रम में कई अहम जानकारियां भी हाथ लगीं, जो शायद सामने लाने का प्रयास नहीं किया गया। कई लोगों ने खुलकर बात की, कुछ कैमरे के सामने आने से कतराये, कुछ ने दबी जुबान में यहां तक कहा कि इस घटना से बचा जा सकता था। इसे टाला जा सकता था। स्टोर में ड्यूटी करने वाले चश्मदीद बताते हैं कि एक रात पहले खदान में ड्रिलिंग हुई। ड्रिलिंग के साथ पानी भी आ गया था। फिर उस रात ब्लास्टिंग को रोका गया। लेकिन जब मॉर्निंग शिफ्ट हुई तो गलत सर्वे रिपोर्ट सामने थी। फिर ब्लास्टिंग हुई और उसके बाद कोई नहीं बचा। पानी से भरा जलाशय फट गया और 375 मजदूरों की जल समाधि हो गयी। खदान में करीब 10 फीट तक पानी भरा था। कुछ का कहना था कि पानी से खनन करने वाले हिस्से की दूरी 40 फीट तक पहुंच गयी थी। वैसे 60 फीट तक की दूरी एक सुरक्षित पैमाना माना जाता है। लेकिन खनन करते-करते यह फासला कम होता चला गया। 40 फीट से भी कम। और पानी का दबाव बढ़ता चला गया।
दबी जुबान में कहते लोग
बातचीत के क्रम में कइयों ने दबी जुबान में जानकारी दी कि पानी से फासला महज 7 से 8 फीट ही बचा था। लेकिन यह बात सामने नहीं लाने दिया गया। हादसे की जांच के लिए जस्टिस एसएन सिन्हा की अध्यक्षता में आयोग बनाया गया था। आयोग की रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि हुई कि यह केवल एक प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि मानवीय चूक भी थी। जांच में पाया गया कि खदान का जो नक्शा इस्तेमाल किया जा रहा था, वह पुराना और गलत था। खदान प्रबंधन को यह अंदाजा ही नहीं था कि वे पुरानी खदान (जिसमें पानी भरा था) के इतने करीब पहुंच चुके हैं। नियमों के अनुसार, दो खदानों के बीच कम से कम 60 से 100 फीट की ठोस दीवार होनी चाहिए थी। लेकिन खुदाई करते-करते यह दीवार सिर्फ 15-20 फीट की रह गयी थी, जो पानी के भारी दबाव को झेल नहीं सकी। हादसे से कुछ दिन पहले मजदूरों ने दीवारों से पानी रिसने की शिकायत की थी। यह एक स्पष्ट संकेत था कि खतरा करीब है, लेकिन उत्पादन बढ़ाने के दबाव में इसे अनसुना कर दिया गया था। रिपोर्ट में कहा गया था कि प्रबंधन ने कोयला निकालने की होड़ में सुरक्षा मानकों को ताक पर रख दिया था। 26-27 दिनों के बाद खदान से पानी निकाला गया, लाशें तो मिलीं लेकिन सड़ी-गली इस त्रासदी को याद करते हुए एक परिजन ने बताया कि अधिकारियों ने तो तीसरे दिन ही खान के अंदर फंसे किसी भी मजदूर की बचने की संभावना को नकार दिया था। लगभग 26-27 दिनों के बाद खदान से पानी निकाला गया। इसके बाद इसमें से शवों को निकालने का काम शुरू हुआ। इस दौरान एक अनोखी बात भी सामने आयी। उन्होंने बताया कि एक कर्मी के शव मिलने से एक दिन पहले तक वह जीवित था। इसकी पुष्टि उसके हाथ में बंधी ऑटोमेटिक घड़ी से हुई, जिसे वह अपनी कलाई में बांधे हुए था। उस घड़ी की खासियत थी कि वह नब्ज से चलती थी। जब उसका शव मिला, तो एक दिन पहले की तारीख उसमे अंकित थी। फिर बंद हो गयी। यही नहीं, जब उसका पोस्टमार्टम हुआ, तो उसके पेट से लगभग पांच किलो कोयला निकला था। इससे अंदाजा यह लगाया गया कि इतने दिनों तक जिंदगी और मौत की जंग में जिंदा रहने के लिए वह कोयला खाकर रहा। अंत में शहीद हो गया। जब शव निकलने का सिलसिला लगातार चल रहा था, तो मृतकों की पहचान लैंप नंबर (बैटरी वाली बत्ती) से की गयी थी। जब लाशें बाहर निकलने लगीं, तो वे इतनी गल चुकी थीं कि उन्हें छूना भी मुश्किल था। कई पत्नियों ने अपने पतियों को उनके हाथ में बंधी घड़ी, फटे हुए कपड़ों के टुकड़ों या पैर के निशान से पहचाना। कई माह तक दामोदर नदी के किनारे शवों का अंतिम संस्कार चलता रहा। महीनों मजदूरों के परिजन शवों का इंतजार करते रहे। पानी निकालने में हो रही देरी के बाद कई मृतकों के परिजनों ने पार्थिव शरीर भी मिलने की उम्मीद छोड़ दी थी। परिजनों ने उनके नाम के पुतले का अंतिम संस्कार कर संतोष कर लिया। खदान के मुहाने पर हजारों महिलाएं और बच्चे हफ्तों कड़कड़ाती ठंड में बैठे रहे। वे हर बार पंप से पानी कम होने पर इस उम्मीद में देखते कि शायद कोई जीवित बाहर आ जाये। चासनाला में कई परिवार ऐसे थे, जिनके घर के सभी पुरुष सदस्य (पिता, भाई, बेटे) एक ही शिफ्ट में खदान के अंदर थे। उन घरों में चिराग जलाने वाला भी कोई नहीं बचा। बाद में खदान चालू भी हुई। खदान के लोग कहते हैं कि 1997 तक खदान से शवों की हड्डियां मिलती रहीं। हादसे में जो मजदूर मारे गये थे, उनके आश्रितों को नौकरी मिली।
चासनाला त्रासदी को समझने के लिए इसका इतिहास समझना होगा
डीजीएम माइनिंग एंड एजेंट चासनाला दीपक कुमार ने कहा कि चासनाला त्रासदी को समझने के लिए हमें इसका इतिहास समझना होगा। यहां डीप माइनिंग 1890 से निजी मालिक के पास से चलती हुई आयी है। 1938 में बीएन मुखर्जी के पास आयी, जो बंगाल आयरन एंड स्टील कंपनी के नाम से थी, इसके बाद इंडियन आयरन स्टील कंपनी में आयी। फिर उसके बाद सेल कंपनी में आयी। यह हस्तांतरण की स्थिति है। इस जो निजी मालिक थे, 1973 से पहले राष्ट्रीयकरण से पहले, जो भी चल रहा था, वह माइंस रूल्स एक्ट के तहत, बहुत कुछ चल रही थी, बहुत कुछ नहीं चल रहा था। अगर आप 1957 से पहले की बात करें तो कोई रेगुलेशंस नहीं थे। उसके पहले जो भी डेवलपमेंट माइंस में हुए वह सिस्टमैटिक ढंग से नहीं हुए। इस क्रम जब सिस्टमैटिक ढंग से अपडेट नहीं हुई, तो स्ट्रैटेजिक प्लान जो अपडेट होनी चाहिए, वह प्लान भी अपडेट नहीं हो पाई। 27 दिसंबर 1975 में जो त्रासदी हुई, इसका मुख्य कारण यह था कि एक पानी का एक कैचमेंट एरिया था जिसमे अंदाजन 15 करोड़ गैलन से ज्यादा पानी स्टोर था। ओल्ड गैलरी जो आयी थी, वह आगे कहां तक थी, यह अंदाजा किसी के पास नहीं था। ना ही पिछले कोई सर्वे प्लान में दिया हुआ था। ऐसे में जब हम लोंग वाल का डेवलपमेंट करते हैं, तो उसमें हम हैंग वाल और फुट वाल, दोनों में गैलरी चलाते है। और वेंटिलेशन परपस से हम लोग इंटर कनेक्शन 100 मीटर 150 मीटर पर करते चले जाते हैं। आप देखे होंगे कि टर्निंग ऑपरेशन जब होता है तो ऊपर से हम लोग सिंगल टर्मिनल चलाते है, तो ऊपर से एयरसॉफ्ट करते हैं। सिंपल कांसेप्ट यहां पर है। आप इंटरकनेक्शन करते हैं तब वेंटीलेशन होता है। जब हम लोगों ने पहला इंटरकनेक्शन किया था, फुट वाल साइड से, तब कोई दिक्कत नहीं हुई थी। लेकिन जब हैंग वाल साइड से गए तो जो गैलरी ऊपर से आ रही थी उसमे वह डायरेक्ट पंक्चर किया और जितना पानी स्टोर था एक साथ खदान में नीचे आ गया। और 377 आदमी एक साथ उसमें जलमग्न हो गए। घटना के दो-तीन दिन जब लोग जांच करने गए तो तीन और लोगों की मौत हो गयी। इंस्पेक्शन टीम की। इस तरह कुल संख्या 378 लोगों की हो गयी। माइंस डूबने में 10 मिनट भी नहीं लगे होंगे होरिजन एक और दो दोनों एक साथ डूब गये। इसमें जितने भी कार्यरत मजदूर थे और जो भी लोग थे, सभी जलमग्न हो गये। इसमें बहुत सी जांच हुई बहुत सारी प्रक्रिया हुई। वर्ल्ड बैंक प्रोजेक्ट के तहत भारत सरकार के द्वारा रूसी सरकार को कांटेक्ट किया गया। वहां से एक टेक्निकल टीम आयी, स्टडी की, प्रयास हुआ रेस्क्यू करने का, लेकिन कोई भी आदमी बचा नहीं था। 20-25 दिन तो बॉडी निकालने के शुरुआती प्रयास में ही लग गये। लेकिन बॉडी तो 1997 तक मिली। जो शव मिले उसमें कंकाल, घड़ी, हेलमेट, जूतों से पहचान हुई। डिग्री थ्री माइन होने के कारण बहुत सावधानी बरतनी पड़ती है। बहुत कुछ मैनुअली ही करना पड़ता है। राकेश सिंह ने जब सवाल पूछा कि क्या इंडिकेशन तनिक भी नहीं मिला होगा कि इस तरीके की घटना हो सकती है। तो दीपक कुमार का जवाब था कि इंडिकेशन माइन में हमेशा मिलता है। बिना इंडिकेशन का कोई भी माइन हादसा अचानक नहीं होता है। उस समय भी इंडिकेशन मिला होगा चूंकि वाटरी माइन है, तो लोगों को कन्फूजन हुआ होगा कि नार्मल सीपेज होगा। इस तरह की त्रासदी जो होती है, इस पर जो सिम्टम्स मिलते हैं, जो एक्सपीरियंस लोग होते हैं वह पकड़ लेते हैं। इसलिए माइंस में एक्सपीरियंस लोगों का बहुत महत्व होता है और एक्सपीरियंस लोगों को हमेशा प्राथमिकता दी जाती है। त्रासदी के बाद 92 से प्रोडक्शन शुरू हुआ और 90 से माइंस की एक्टिविटीज शुरू हुई, प्रोडक्शन 92 से शुरू हुआ।
काला पत्थर फिल्म बनी
1975 में भारत में आपातकाल लागू था। प्रेस पर सेंसरशिप थी, लेकिन चासनाला का हादसा इतना बड़ा था कि इसे दबाया नहीं जा सका। चासनाला की इस त्रासदी ने भारतीय जनमानस पर इतना गहरा प्रभाव डाला कि 1979 में मशहूर फिल्म निर्देशक यश चोपड़ा ने इस पर ‘काला पत्थर’ नाम की फिल्म बनायी। फिल्म सुपर हिट हुई थी। इस फिल्म में अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा और शशि कपूर ने मुख्य भूमिका निभायी थी। फिल्म में खदानों में मजदूरों की खतरनाक स्थिति और त्रासदी को पर्दे पर बेहतरीन तरीके से उतारा गया था।
कानूनी कार्रवाई और सजा
इस मामले में इस्को (इंडियन आयरन एंड स्टील कंपनी) के कई अधिकारियों पर मुकदमा चला। दशकों तक चले इस केस में 2012 में हादसे के 37 साल बाद धनबाद की एक अदालत ने दो तत्कालीन अधिकारियों को सजा सुनायी, हालांकि तब तक उनमें से कई आरोपियों की मृत्यु भी हो चुकी थी। दोषियों को एक साल की कैद और मात्र 5,000 रुपये जुर्माने की सजा सुनायी गयी।
चासनाला कोलियरी के बारे में
चासनाला कोलियरी झरिया कोलफील्ड के पूर्वी भाग, धनबाद जिले में स्थित है। यह 3.5 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। यह धनबाद से 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। धनबाद स्थित चासनाला खदान इंडियन आयरन एंड स्टील कंपनी (इस्को) की थी। इस्को ने 1950 में चासनाला माइंस को लिया था। यहां से उत्तम श्रेणी का कोयला निकाला जाता था। वैसे चासनाला कोलियरी में काम राष्ट्रीयकरण से पहले से चल रहा था। इसकी शुरुआत 1938 में भूमिगत खनन के लिए हुई थी। चासनाला कोलियरी तासरा कोलियरी से घिरा हुआ है, जो अब सेल (स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड) का हिस्सा है। 1995 में इसे सेल को हैंडओवर किया गया। चासनाला कोलियरी राष्ट्रीयकरण से पहले से ही संचालन में रही है और वर्तमान में भी इसका संचालन जारी है। चासनाला कोलियरी की स्थापना वर्ष 1938 में एक भूमिगत खदान के रूप में की गयी थी। चासनाला कोलियरी के अंतर्गत दो मौजा आते हैं, चासनाला मौजा (क्षेत्रफल: 266.80 हेक्टेयर) और हेट कांद्रा मौजा (क्षेत्रफल: 81.38 हेक्टेयर)। इन दोनों मौजों को 27/04/1938 से प्रभावी रूप से 750 वर्षों के लिए लीज़ प्रदान की गयी है। अतीत में यह कोलियरी विभिन्न इन्क्लाइन एवं खदानों के माध्यम से पूर्व खदान मालिकों द्वारा उथली गहराई तक संचालित की जाती रही। कठिन भूवैज्ञानिक परिस्थितियों, विशेषकर कोयला परत की तीव्र ढाल के कारण अधिक गहराई में संचालन संभव नहीं हो सका। वर्ष 1948 में खदान को परित्यक्त कर दिया गया और 13/14 सीम की विकसित कार्यस्थलें, जिन पर बाद में कार्य किया जा रहा था, संचालन के दौरान पानी से भर गयीं। 1950 के दशक के उत्तरार्ध में इस्को प्रबंधन ने चासनाला कोलियरी की संपत्ति का अधिग्रहण किया और जलभरित पुरानी खदानों से पर्याप्त सुरक्षा अवरोध छोड़ते हुए संपत्ति के कुंवारी (वर्जिन) भाग से कोयला निकासी का प्रस्ताव स्वीकृत किया गया। प्रारंभिक अन्वेषण वर्ष 1959-62 के दौरान लंदन की इंटरनेशनल कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड द्वारा किया गया। इस अन्वेषण के आधार पर 13/14 तथा अन्य अधोस्थित कोयला परतों के दोहन की योजना बनायी गयी, जिसके अंतर्गत तीन शाफ्ट खोदे जाने थे—दो पश्चिम में स्थित (अप-कास्ट एवं डाउन-कास्ट शाफ्ट) तथा एक पूर्व में स्थित, जिसे इस्ट माइन शाफ्ट नाम दिया गया। कोयला उत्खनन की योजना भूमिगत खनन की क्षैतिज प्रणाली के अंतर्गत बनायी गयी थी। इसके अनुसार (–) 30 एमआरएल तथा (–) 149 एमआरएल पर स्थित क्षितिज, जिन्हें प्रथम एवं द्वितीय क्षितिज कहा जाता है, विकसित किये गये। डीप माइन में शाफ्ट सिंकिंग का कार्य वर्ष 1965 में प्रारंभ हुआ तथा 1969 में पूर्ण हुआ। डीप माइन से उत्पादन 1970 के दशक के प्रारंभ में शुरू हुआ।
चासनाला शहीद स्मारक
चासनाला में एक शहीद स्मारक बना है, जहां हर साल 27 दिसंबर को उन मजदूरों को श्रद्धांजलि दी जाती है, जो उस त्रासदी में शहीद हुए थे। ठीक डेढ़ बजे सायरन बजता है। उसके बाद परिजन उस दिन स्मारक पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। अपनों को याद करते हैं। सभी धर्मों का पाठ होता है। 27 दिसंबर 2025 को चासनाला त्रासदी के 50 वर्ष होने वाले हैं। इस दिन भारी संख्या में परिजन शहीद स्मारक के पास इकठ्ठा होंगे और उस दिन शहीद हुए मजदूरों को श्रद्धांजलि देंगे। सेल (स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड) भी उस दिन खास कार्यक्रम आयोजित कर रहा है और शहीद हुए मजदूरों को श्रद्धांजलि देगा। यह दिन हमें याद दिलाता है कि औद्योगिक प्रगति की कीमत कभी भी इंसानी जान से बढ़कर नहीं होनी चाहिए। सेल के अधिकारियों का मानना है कि सुरक्षा ही सबसे बड़ा कवच है। इससे खिलवाड़ नहीं किया जा सकता। सच में एक कोयला मजदूर कैसे अपने जीवन को दांव पर लगा, देश को रोशन करने के लिए खुद को अंधेरे में झोंक देता है।
चश्मदीदों और परिजनों की जुबान से
रहमान जी कहते हैं मैं इसी खदान में काम करता था। चानक में। में उस दिन स्टोर में था। वहीं मेरी ड्यूटी थी। हम बच गए। घटना से एक दिन पहले रात में ड्रिलिंग हुई। ड्रिलिंग के साथ पानी भी आ गया। फिर ब्लास्टिंग नहीं किया गया। उसे रोक दिया गया। उन्होंने कहा कि सुबह में उपाध्याय की ड्यूटी थी। उपाध्याय भी ओवरमैन थे। सर्वे से रिपोर्ट मांगी गयी तो पाया गया कि अभी 40 फीट थिकनेस है। यहां सर्वे से मिस हुआ और रिपोर्ट गलत थी। काम करने के दौरान यह जानकारी हो गयी थी कि खतरा हो सकता है। पता था कि दूसरी ओर भरी मात्रा में पानी भरा हुआ है। विचार हुआ कि सात नंबर से इन्कलाइंड निकाल दिया जायेगा। अगर कोई घटना घटती है तो ऊपर भागकर सुरक्षित बचा जा सकता है। तय हुआ कि ब्लास्टिंग होगा। रहमान साहब बताते हैं कि वहां पर उपस्थित भट्टाचार्य जी को डर था कि कहीं कुछ अनहोनी न हो, तो वह ब्लास्टिंग से पहले निकल गये। बाद में वह डिसमिस भी हुआ। खैर ब्लास्टिंग हुई ओर उसके तुरंत बाद पानी पूरे खदान में भर गया। पानी ने करीब माइन से बाहर 10 फीट उछाल मारा। खदान में भी 10 ऊंचाई तक पानी भरा था। उसमे करंट आ गया। करंट से ही ज्यादातर मजदूरों की उसी समय मृत्यु हो गयी। उसके बाद उरी साहब आये। कहा कि सात नंबर का पानी देखो। देखा तो कहा नहीं है सब खाली है। उसके बाद उरी साहब का दिमाग काम करना बंद हो गया। चिल्लाने लगे ऑल आर फिनिश, ऑल आर फिनिश, ऑल आर फिनिश। सब मर गये। घटना बताने के क्रम में रहमान जी के आंसू बहने लगते हैं। मेरा एक दोस्त था, नहीं जाना चाह रहा था। मुझे अच्छा नहीं लग रहा है। वह भी उस घटना में चल बसा।
50 साल बाद भी सांसें ले रहा, शिवनाथ रजक की पिता की यादें
शिवनाथ रजक जो चासनाला त्रासदी के पीड़ित हैं। उन्होंने आजाद सिपाही से बातचीत में अपनी यादें साझा कीं। उस समय शिवनाथ मात्र 5 साल के थे, लेकिन वह दिन आज भी उनके जहन में ताजा है। उन्होंने बताया कि उस दिन वह घर पर थे, जब अचानक हल्ला मचा खदान में पानी भर गया, सब डूब गए! पड़ोसी और रिश्तेदार दौड़कर उनके घर आये और मां से पूछा कि उनके पिता गुप्तेश्वर रजक ड्यूटी पर गये हैं, माताजी ने बताया हां गये हैं। लोगों ने बताया कि खदान में पानी भर गया। घर में रोना-पीटना शुरू हो गया। शिवनाथ बताते हैं कि छोटी उम्र होने के कारण उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था। बस वह देख पाते हैं कि हजारों लोग अपने सगों की तलाश में खदान की ओर भाग रहे थे। अफरा-तफरी का माहौल था। शिवनाथ बताते हैं कि उनके पिता गुप्तेश्वर रजक लंबे समय से मलकट्टा सेक्शन में काम करते थे। शिवनाथ को पिता के चेहरे की धुंधली सी याद है। उनके पास पिता की एक ही पुरानी फोटो है, क्योंकि उस दौर में फोटो खिंचवाना दुर्लभ था। पुलिस ने परिवार के सदस्यों को बाहर ही रोक दिया था। परिवार वाले रात भर वहीं डटे रहे। अगले दिन भी घटनास्थल पर ही डटे रहे। हादसे के बाद सरकार से पीड़ित परिवार को मुआवजा मिला और एक सदस्य को नौकरी। शिवनाथ रजक की मां ने पहले 14 साल नौकरी की। उसके बाद शिवनाथ खुद चासनाला खदान में सीनियर इलेक्ट्रिशियन के पद पर कार्यरत हैं।
पापा चाय पीकर घर जाने वाले थे, सीनियर ने रोक लिया: विपिन चक्रवर्ती
चासनाला त्रासदी को याद करते विपिन चक्रवर्ती ने कहा कि उनके पिता मदन मोहन चक्रवर्ती (माइनिंग सरदार) भी इस हादसे में शहीद हो गये। विपिन उस समय मात्र ढाई साल के थे। हम लोग पुरुलिया में रहते थे, दादी और बड़ी बहन चासनाला साउथ कॉलोनी के क्वार्टर में रहती थीं। पापा हर शनिवार घर आते थे। उनके पिता माइनिंग सरदार थे, बहुत बड़ी जिम्मेदारी वाला पद, उस समय ऐसे सरदार बहुत कम होते थे। शनिवार का दिन था, फर्स्ट शिफ्ट जो सुबह 7 से दिन 3 बजे तक होता है, उसके बाद पिता घर जाने वाले थे। साइकिल पर राशन-पानी लादकर, जनार्दन सिंह की दुकान, जो आज भी है, वहां वह चाय पी रहे थे। ब्लास्टिंग की जिम्मेदारी पापा की थी। सब तैयार करके वह सोच रहे थे, ब्लास्टिंग हो जाये, उसके बाद जल्दी घर निकलेंगे। तभी सीनियर चटर्जी सर ने देख लिया। बोले, चक्रवर्ती बाबू, आप यहां चाय पी रहे हैं? ब्लास्टिंग पूरा करके ही जायें। पापा सीनियर की बात टाल नहीं सके। वह तुरंत खदान में गये। ठीक 1:35 से 1:37 बजे के बीच ब्लास्टिंग हुई और हादसा हो गया। डैम टूटा, खदान में पानी घुस आया। खदान 2400 फीट गहरी थी। कोई बच नहीं सका। फर्स्ट शिफ्ट में सबसे ज्यादा मजदूर थे। दूर-दूर से भी मजदूर साइकिल से आते थे। घटना के वक्त विपिन बताते है कि वह गांव में थे। कहा हमको उतना याद नहीं है। लेकिन घर में चाचा, दादी बताते थे कि घटना की खबर शाम को मिली। रोते-धोते परिवार वाले रात में ही पैदल 30-32 किमी चलकर चासनाला आये। मैं छोटा था, गोद में था। दिल्ली से डीसी को ऑर्डर था, हर घर मदद पहुंचाओ। सरकार ने बड़ा सहारा दिया। मेरे परिवार को दो नौकरियां मिलीं। पहले दादी ने चाचा को नौकरी दिलाने की कोशिश की, लेकिन चाचा नहीं चाहते थे। फिर डीसी साहब से गुहार लगाकर चाचा को अकाउंट सेक्शन में जॉब दिलाई। चाचा 2002 में गुजर गये, उनका बेटा अब नौकरी कर रहा है। विपिन खुद 1992 से सेल के एचआर डिपार्टमेंट में हैं। भाई-बहनों की पढ़ाई दिल्ली (इंदिरा गांधी छात्रावास) और कोलकाता (रामकृष्ण मिशन) में फ्री करायी गयी। विपिन की कहानी उन सैकड़ों परिवारों की आवाज है, जिन्होंने अपनों को खोया।
50 साल बाद भी सुरेश दास की आंखें नम, मृत पिता का सफेद चेहरा याद है
त्रासदी के पीड़ित सुरेश दास (प्रशासनिक विभाग, सेल) ने अपनी बचपन की यादें साझा कीं। उस समय सुरेश मात्र 7 साल के थे, लेकिन वह दर्दनाक हादसा आज भी उन्हें रुला देता है। जब हादसा हुआ तो सुरेश दास की उम्र महज 7 साल की थी। दोपहर का समय था, पूरा परिवार घर पर था। अचानक खबर आयी खान डूब गयी, पानी भर गया। मां की हालत देखकर दिल दहल गया। वह रोने-चिल्लाने लगीं। धीरे-धीरे पड़ोसियों में भी हाहाकार मच गया। साउथ कॉलोनी में हर तरफ मातम छा गया। लोग भगवान से प्रार्थना कर रहे थे कि कोई चमत्कार हो जाये और हमारे अपने बाहर निकल आयें। सुरेश बताते है कि उनके पिता कैलाश दास खुटा मिस्त्री थे। उस समय लकड़ी के बीम लगाकर खदान को सपोर्ट देने का काम करते थे (अब लोहे के आ गये हैं)। पिता मॉर्निंग शिफ्ट में थे। सुरेश भावुक होकर कहते हैं। हादसे के बाद का माहौल दिल दहला देने वाला था। पानी निकालने के लिए रूस से विशेष पंप मंगवाये गये। शव निकालने में काफी दिन लगे। कुछ मजदूर ऊंचे स्थान पर थे, कोयला खाकर कुछ दिन जिंदा रहे। ज्यादातर शव छिन्न-भिन्न हालत में मिले। मेरे पिता का शव ऊंचे स्थान पर था। बाल पूरी तरह उड़ चुके थे, चेहरा एकदम सफेद हो गया था। मैंने खुद पिता का शव देखा था। अंतिम संस्कार किया। सुरेश की आंखें भीग जाती है। 1989 से मैं सेल के सेंट्रल ऑफिस में प्रशासनिक विभाग में हूं। कंपनी की यह पहल सराहनीय थी। एक पीढ़ी को नया रोजगार मिला।
नाश्ता देकर घूम रहा था, तभी धमाका हुआ : सुबोध ओझा
आजाद सिपाही की टीम जब ओझा बस्ती में लोगों से बातचीत कर रही थी, उसी क्रम में 200 साल से भी अधिक पुरानी मां कल्याणी मंदिर के प्रांगण में हमें हमें सुबोध ओझा मिले। वह शिव मंदिर के पुजारी हैं। सुबोध ओझा इस हादसे के साक्षात गवाह रहे हैं। हादसे के वक्त उनकी उम्र 14 साल की थी। हादसे के दिन वह अपने पिता को नाश्ता देने खदान गये थे। उन्होंने पिता को नाश्ता दिया और खदान के आसपास घूमने लगे। ठीक 1:35 बजे अचानक हल्ला हुआ। सायरन बजना शुरू हुआ। पानी का प्रेशर इतना तेज था कि नीचे खदान से ऊपर की ओर पानी की बौछार बाहर आ गयी थी। लोहे का बड़ा स्किप मुड़ गया। पानी ऊपर तक छलांग मार रहा था। तुरंत समझ गया, अंदर कोई जिंदा नहीं बचेगा। वह आगे कहते हैं, उस स्किप को बाद में काटकर ऊपर लाया गया तो उसमें भी एक शव मिला। पानी का करंट इतना भयानक था कि सब कुछ बहा ले गया। दो घंटे में हजारों की भीड़ जमा हो गयी। रोना-चिल्लाना, हाहाकार मच गया। सुबोध बताते हैं कि पहले से पानी रिसाव की जानकारी थी। इसके बावजूद जोखिम लिया गया। मैनेजमेंट की गलती थी, लेकिन किस्मत में जो लिखा था वही हुआ। तत्कालीन उपायुक्त ने बड़ी मदद की। हर परिवार को नौकरी दी गयी। सहायता मिली। मैं खुद बाद में उसी खदान में प्राइवेट नौकरी पर 10 साल काम किया। अब मां कल्याणी की कृपा और शहीदों के आशीर्वाद से जी रहे हैं। नमक-रोटी चल रही है। लेकिन नुकसान की भरपाई कभी नहीं हो सकती।
टाइम कीपर आरपी सिंह
आरपी सिंह, जो उस समय कोलियरी में टाइम कीपर थे, बताते हैं कि उनकी ड्यूटी शाम 3 बजे से थी। हादसा दोपहर करीब 1:35 बजे हुआ। जब मैं ड्यूटी पर पहुंचा, तो हर तरफ अफरा-तफरी मची हुई थी। लोग भाग रहे थे, चीख-पुकार सुनाई दे रही थी। तभी पता चला कि फर्स्ट शिफ्ट के सभी मजदूर खदान के अंदर फंस गये हैं और कोई बाहर नहीं निकल सका। उन्होंने बताया कि पानी का दबाव इतना तेज था कि बचने का कोई रास्ता नहीं बचा। उस वक्त कोई पुख्ता बचाव व्यवस्था नहीं थी। बाद में डी-वाटरिंग का काम शुरू हुआ। पानी निकालने और मजदूरों के शव बाहर लाने में करीब दो महीने का समय लगा। उन्होंने बताया कि रजिस्टर में 375 मजदूरों की इंट्री थी। सभी मारे गये।
सुरक्षा ही ऐसी त्रासदियों से बचाव का रास्ता: विनीत रावल
विनीत रावल ( एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर कॉलेरेजिस सीएसओ) ने 1975 में चासनाला में हुई त्रासदी पर पर शोक व्यक्त करते हुए कहा कि मैं श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं उन 375 श्रम वीरों को, जिन्होंने 27 दिसंबर 1975 को अपनी जान कुर्बान कर दी। हमारे श्रम वीर हमेशा हमारी यादों में रहेंगे। इस साल 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं। हम लोग इस दिन कुछ विशेष आयोजन कर रहे हैं। शहीदों के परिजन और सेल के अधिकारी, कर्मचारी इस कार्यक्रम मैं हिस्सा लेंगे और श्रद्धानजलि अर्पित करेंगे। 27 दिसंबर को लगभग 1:00 बजकर 35 मिनट पर सायरन बजेगी। इसमें सर्वधर्म के सभी लोग वहां इकट्ठा होंगे और प्रार्थना करेंगे। यह एशिया की सबसे बड़ी दुर्घटना है। इस कार्यक्रम का उद्देश्य है सुरक्षा के प्रति जागरूकता लाना। इस कार्यक्रम में दिवंगत आत्माओं के परिजनों के साथ ट्रेड यूनियंस और कई गणमान्य लोग शामिल होकर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे।
मानव जीवन से अधिक मूल्यवान कुछ भी नहीं: संजय तिवारी
सेल कोलियरी डिवीजन के मुख्य महाप्रबंधक, मानव संसाधन, संजय तिवारी ने कहा कि चासनाला कोलियरी की डीप माइनिंग जो आज से 50 साल पहले सेल के साथ नहीं थी, वहां 27 दिसंबर 1975 को एक दुखद और मार्मिक खान दुर्घटना हुई। इसमें 375 लोगों ने अपनी आहुति द। उन दिवंगत आत्माओं के प्रति मेरी श्रद्धांजलि और पूरे सेल कोलियरी परिवार की ओर से श्रद्धांजलि है। इस दुखद घटना के 50 वर्ष पूरे होने पर एक बार पुनः खनन उद्योग और अन्य उद्योगों के लिए यही संदेश और अपील है कि हम सदैव सुरक्षा को सर्वोपरि रखे। मानव जीवन से अधिक मूल्यवान कुछ भी नहीं है। उद्योगों की अपनी अहमियत है, जिसे आगे बढ़ाना हमारी आत्मनिर्भरता के लिए, लोगों की रोजगार के लिए आवश्यक है। लेकिन हमारा उद्योग कभी भी मानव जीवन के कीमत पर नहीं होनी चाहिये। हम देशवासियों से, उद्योग जगत से, खनन जगत से ,यही अनुरोध करते हैं की 1975 की दुर्घटना के शहीदों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम सुरक्षा को हमेशा सबसे ऊपर रखें और ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति कभी ना हो।
भविष्य में सुरक्षित भावना से सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए ही कार्य करें: टीएस रंजन
पीएस रंजन सीजीएम चासनाला ने कहा कि 27 दिसंबर 1975 को ए शिफ्ट में हमारे जो कोलियरी के कामगार अंडरग्राउंड में गये थे, वहां अचानक से ब्लास्टिंग के दौरान कोयला का वाल ब्रेक हुआ और पानी का इतना तेज बहाव हुआ की मौका ही नहीं मिला कि कोई भी आदमी अलग गैलरी में जा सके। इसके कारण 27 दिसंबर 1975 को 375 मजदूर शहीद हो गये। उनकी जल समाधि हो गयी। इस शहीद दिवस पर हर साल 27 दिसंबर को चासनाला कोलियरी में उनकी याद में शहीद दिवस मानते हैं। उन दिवंगत आत्माओं को याद करते हैं और इस तरह के असुरक्षित वातावरण के कारण जो दुर्घटना घटी, वह भविष्य में फिर इसकी पुनरावृत्ति ना हो, इसके लिए प्रार्थना करते हैं। कामगारों को सभा स्थल से याद दिलाते हैं, भविष्य में सुरक्षित भावना से सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए ही कार्य करें।

