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    Home»विशेष»झारखंड की सियासत को गरमायेगा परिसीमन का मुद्दा
    विशेष

    झारखंड की सियासत को गरमायेगा परिसीमन का मुद्दा

    shivam kumarBy shivam kumarMarch 10, 2025No Comments8 Mins Read
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    विशेष
    झामुमो ने परिसीमन का विरोध करने की घोषणा कर खोल दिया है मोर्चा
    आदिवासियों की सीट कम होने की आशंका से उठा है विरोध का स्वर
    नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
    झारखंड की सियासी फिजाओं में परिसीमन का मुद्दा एक बार फिर तैरने लगा है। झामुमो ने इसके विरोध की घोषणा कर इस मुद्दे को गरमा दिया है। अब तक तय कार्यक्रम के अनुसार 2026 में देश भर में परिसीमन की प्रक्रिया शुरू हो जायेगी। इस परिसीमन से झारखंड के भी राजनीतिक स्थिति में बदलाव होने वाला है। अगर 2026 में परिसीमन प्रक्रिया की शुरूआत हो जाती है, तो 2029 के चुनावों में संसद और विधानसभाओं में सीटों की संख्या बढ़ जायेगी। माना जा रहा है कि 2029 के लोकसभा चुनाव में लगभग 78 सीटों का इजाफा होने की संभावना है। अब तक जो संकेत मिले हैं, उनके अनुसार झारखंड में लोकसभा सीटों की संख्या बढ़ कर 17 हो सकती है। झामुमो के विरोध का आधार यह है कि वर्तमान में 14 सीटों में से पांच आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं, लेकिन 17 सीटें होने पर भी आरक्षित सीटों की संख्या नहीं बढ़ेगी, यानी आदिवासियों का प्रतिनिधित्व कम हो जायेगा। विधानसभा सीटों के बारे में कहा जा रहा है कि झारखंड में विधानसभा की सीटें नहीं बढ़ेंगी, लेकिन आदिवासी सीटों की संख्या 28 से घट कर 22 हो जायेंगी, जबकि अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों की संख्या आठ से बढ़ कर 10 हो जायेंगी। पिछली बार 2007 में देश भर में विधानसभा और लोकसभा की सीटों का परिसीमन हुआ। यह परिसीमन 2009 के लोकसभा चुनाव से देश भर में लागू हो गया। तब झारखंड में भी लागू होना था, लेकिन विरोध के कारण उसे झारखंड में लागू नहीं किया गया था। अब यह मुद्दा एक बार फिर गरम हो गया है। क्या है परिसीमन का मुद्दा और क्या हो सकता है इसका असर, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    झारखंड में परिसीमन का मुद्दा एक बार फिर गरम हो गया है। सत्तारूढ़ झामुमो ने 2026 में होनेवाले इस प्रस्तावित परिसीमन का विरोध करने की घोषणा कर दी है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इस मुद्दे को लेकर तमिलनाडु, कर्नाटक, तेलंगाना और केरल जैसे राज्यों के मुख्यमंत्रियों से बात भी की है। देश में अंतिम बार परिसीमन 2009 के चुनावों में लागू हुआ था, लेकिन उस समय झारखंड में इसे लागू नहीं किया गया था। यह मुद्दा पिछली लोकसभा में भी उठा था, जब रांची के भाजपा सांसद संजय सेठ ने झारखंड में विधानसभा सीटों की संख्या 120 किये जाने की मांग उठायी थी। अब एक बार फिर यह मुद्दा गरमा गया है।

    क्या है परिसीमन
    परिसीमन का मतलब होता है लोकसभा या विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों की सीमा तय करने की प्रक्रिया। परिसीमन के लिए आयोग गठित होता है। पहले भी 1952, 1963, 1973 और 2002 में आयोग गठित हो चुके हैं। नये संसद भवन की लोकसभा में 888 सांसदों के बैठने की जगह बनायी गयी है। इस बात ने झारखंड के साथ दक्षिण के राज्यों को चिंता में डाल रखा है। इन राज्यों को डर है कि 46 साल से रुका हुआ परिसीमन जनसंख्या को आधार मानकर हुआ, तो लोकसभा में हिंदीभाषी राज्यों के मुकाबले उनकी सीटें करीब आधी हो जायेंगी। लेकिन अभी 2021 की जनगणना नहीं हुई है। सरकार परिसीमन से पहले जनगणना कराना चाहेगी। अगर जनगणना नहीं होती है, तो केंद्र सरकार 2011 की जनगणना को आधार मानकर परिसीमन करा सकती है। देश में 2021 में ही जनगणना होनी थी, लेकिन कोरोना महामारी के कारण नहीं हो सकी। उसके बाद लोकसभा चुनाव के कारण टल गया।

    झारखंड पर क्या असर
    जनगणना के बाद देश में लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों का परिसीमन होगा। उसका असर झारखंड पर भी पड़ेगा। इसकी हलचल अभी से दिखने लगी है। झामुमो ने आरोप लगाया है कि परिसीमन के जरिये केंद्र की भाजपा सरकार आरक्षित सीटों की संख्या घटा सकती है। नियमों के अनुसार प्रत्येक 15 साल पर परिसीमन करना है। पूरे देश में 2008 में परिसीमन हुआ था। उसी आधार पर 2009 का लोकसभा चुनाव हुआ, पर झारखंड में परिसीमन नहीं हुआ।

    एसटी सीटें घटने की आशंका
    2008 में झारखंड के राजनीतिक दलों ने परिसीमन का इसलिए विरोध किया था, क्योंकि उन्हें डर था कि लोकसभा और विधानसभा में एसटी सीटें घट जायेंगी। परिसीमन के बाद लोकसभा की एक और विधानसभा की छह एसटी सीटें घटने की आशंका थी। जबकि विधानसभा में एससी की एक सीट बढ़कर 10 हो रही थीं। फिर वही परिदृश्य बनने की संभावना है। इसलिए झामुमो अभी से मुद्दा बनाने में जुट गया है।

    झारखंड में हो चुका है विरोध
    झारखंड में परिसीमन के मुद्दे ने 15 साल पहले काफी सियासी बवाल मचाया था और राज्य में अभी सत्तारूढ़ दल झामुमो ने इसका विरोध किया था। इस विरोध के कारण ही 2005 में परिसीमन आयोग की सिफारिशों को तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने झारखंड में लागू करने पर रोक लगा दी थी। यह रोक राष्ट्रपति के आदेश से लगायी गयी थी और यह 2026 तक प्रभावी है। इस रोक के खिलाफ 2009 में झारखंड हाइकोर्ट में जनहित याचिका भी दायर की गयी। सकी सुनवाई के दौरान अदालत ने केंद्र सरकार ने केंद्र सरकार से पूछा था कि जब पूरे देश में परिसीमन आयोग की सिफारिशें लागू की गयी हैं, तो महज आपत्तियों के कारण झारखंड में इसे रोकने का औचित्य क्या है।

    झारखंड में बड़ा सियासी मुद्दा
    दरअसल झारखंड में परिसीमन का मुद्दा पूरी तरह सियासी रंग पकड़ चुका है। स्थापित प्रावधानों के अनुसार हर जनगणना के बाद परिसीमन आयोग का गठन किया जाता है और इसकी सिफारिशें लागू की जाती हैं। देश में अंतिम परिसीमन आयोग 2002 में बना और इसने 2005 में अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को दी। उस समय झारखंड में लोकसभा की दो सीटें बढ़ाने और विधानसभा की कुछ सीटों को विलोपित कर उनके स्थान पर नया क्षेत्र बनाने की सिफारिश की गयी थी। इस सिफारिश का सबसे महत्वपूर्ण अंश यह था कि इसमें अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या कम कर दी गयी थी। तब झामुमो और कई अन्य आदिवासी संगठनों ने इन सिफारिशों का विरोध किया था। 2005-2006 में विधानसभा सीटों को नये सिरे से चिह्नित करने को लेकर राज्य सरकार ने भी परिसीमन कमिटी का गठन किया था। इसमें सामाजिक और आर्थिक ढांचे के साथ-साथ क्षेत्र के पिछड़ेपन आदि को मानक बनाते हुए परिसीमन किया जाना था, लेकिन झामुमो और कई अन्य आदिवासी संगठनों के विरोध के कारण केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकार ने इस पर रोक लगा दी थी।

    संसद में पहले भी उठा है यह मुद्दा
    वर्ष 2019 में परिसीमन का मुद्दा एक बार फिर गरमाया, जब राज्यसभा सांसद महेश पोद्दार ने एक ट्वीट के माध्यम से इसे उठाया। उनका तर्क था कि परिसीमन पर फैसला लिया जाना चाहिए। झारखंड में लंबे अरसे से विधानसभा की सीटें बढ़ाने की मांग हो रही है। परिसीमन न होने की वजह से मामला रुका हुआ है। इससे पहले 2017 में कोडरमा के तत्कालीन भाजपा सांसद डॉ रविंद्र राय ने 16वीं लोकसभा में यह मामला उठाया था। उन्होंने तर्क दिया था कि भारत के संविधान में जन प्रतिनिधित्व के अधिकार के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है। विशेषकर अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लोगों को राज्यों में उनकी जनसंख्या के अनुरूप जन प्रतिनिधित्व का अधिकार प्राप्त है। झारखंड में अनुसूचित जाति की जनसंख्या 11 से 12 फीसदी है, लेकिन उनके लिए निर्धारित सीटों की संख्या झारखंड बनने के पूर्व में किये गये निर्धारण के अनुसार 10 फीसदी से भी कम है। इससे अनुसूचित जाति का हक और अधिकार छीना गया है। उन्होंने यह भी कहा था कि कांग्रेस ने पूर्व में झारखंड में लोकसभा और विधानसभा के परिसीमन कार्य को संसद में प्रस्ताव लाकर रोक दिया था। इसलिए केंद्र सरकार संवैधानिक प्रावधान के अनुरूप अनुसूचित जाति को लोकसभा और विधानसभा में उनका प्रतिनिधित्व बढ़ाये। इसके लिए झारखंड में भी परिसीमन लागू करे। उन्होंने दलील दी कि झारखंड में लोकसभा का क्षेत्र सामान्य रूप से तीन से चार जिलों में बिखरा है। विधानसभा क्षेत्र भी दो से तीन जिलों में पड़ते हैं। इस प्रकार के बेतरतीब एवं अव्यावहारिक क्षेत्र में सांसदों और विधायकों को सही तरीके से विकास का काम करने में परेशानी होती है। जनता तक ठीक ढंग से बात नहीं पहुंच पाती है, जिससे वे सरकारी योजनाओं के लाभ लेने से वंचित हो जाते हैं।
    अब झामुमो ने परिसीमन के विरोध की घोषणा की है, तो सियासी हलचल स्वाभाविक है। यह हकीकत है कि झारखंड में आबादी के हिसाब से लोकसभा और विधानसभा सीटों की संख्या कम है। यहां की सवा तीन करोड़ की आबादी के लिए 14 सांसद और 81 विधायक हैं। इसका मतलब यह है कि एक सांसद पर 20 लाख से अधिक और एक विधायक पर चार लाख से अधिक लोगों का ध्यान रखने की जिम्मेवारी है। इसके अलावा विधानसभा सीटों की कम संख्या के कारण झारखंड में एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिलना लगभग असंभव है, जिसका सीधा असर राजनीतिक स्थिरता पर पड़ा है। लेकिन अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या में कटौती से इसका समाधान नहीं हो सकता है। इसके लिए बीच का रास्ता निकालना ही होगा।
    अब यह देखना दिलचस्प होगा कि झारखंड में परिसीमन के मुद्दे पर सियासत क्या करवट लेती है और केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार इस पर क्या रुख अख्तियार करती है। विधानसभा सीटों की संख्या बढ़ाये जाने से किसी को शायद ही इनकार हो, लेकिन इसके पीछे की सियासत को पहचान कर सभी पेंच सुलझाना आसान नहीं है।

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    shivam kumar

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