केजी सुब्रह्मण्यन: शांतिनिकेतन के सर्वाधिक प्रतिष्ठित और प्रतिनिधि हस्ताक्षर थे। केरल के उत्तरी मालाबार के एक अंचल कुतुमरंबा में 1924 में जन्मे केजी सुब्रह्मण्यन को अपने क्षेत्र के लोगों, मंदिरों में स्थापित चित्रित काष्ठमूर्तियों और स्वतंत्रता आंदोलन की आहटों के साथ अपनी भूमिका को याद करना बेहद दिलचस्प था। सुब्रह्मण्यन की कला में सक्रियता 1946 से शुरू हुई जब वे दिल्ली आये। सुब्रह्मण्यन ने शांतिनिकेतन में इटैलियन शैली की भित्ति या दीवार चित्रांकन पद्धति फ्रेस्को बुओनो में दक्षता प्राप्त की थी। विनोद बिहारी मुखर्जी द्वारा अंकित हिंदी भवन का विराट पैनल (भारतीय संत मनीषा से संबंधित) इस पद्धति का अप्रतिम निदर्शन है। केजी ने इसमें विनोद बिहारी मुखर्जी की सहायता की थी। पचास और साठ के दशक में उन्होंने तर प्लास्टर सतह पर रंगों के सीधे इस्तेमाल से कई कृतियां बनायीं, जिनकी बहुवर्णी छटा आज भी ताजा दिखायी पड़ती है। शांतिनिकेतन की परंपरागत बंगाल शैली में रचे-बसे सुब्रह्मण्यन ने कला मूल्यों और विभिन्न माध्यमों का अपनी अभिव्यक्ति के लिए रचनात्मक उपयोग किया। लंबे समय तक धैर्य और अध्यवसायपूर्वक वे अपनी शैली को मांजते रहे। इसमें उन्होंने विषयानुरूप प्रयोग और माध्यमगत परिवर्तन भी किए। किसी होड़ या दौड़ में वे अकारण और अन्यथा कभी सचेष्ट नहीं हुए। रवींद्र प्रणति के रूप में और शांतिनिकेतन में बिताये अपने दिनों के प्रति कृतज्ञता जताते हुए सुब्रह्मण्यन ने रवींद्र जन्मशती वर्ष 1961 में, आल इंडिया हैंडलूम बोर्ड की एक प्रदर्शनी में रवींद्रनाथ की नाट्य कृति राजा की प्रस्तुति के लिए वस्त्र और मंच-सज्जा की थी। इसके तुरंत बाद लखनऊ के रवींद्रालय के लिए वर्ष 1963 में पॉलिश्ड टेराकोटा विधि से कोई बयासी फीट का विशल पैनल निर्मित किया, जो राजा पर ही आधारित था। इसमें सुब्रह्मण्यन ने आयताकार, गोलाकार, तिकोने और सीधे-ज्यामितिक खंडों का खुल कर प्रयोग किया था। सुब्रह्मण्यन की समय-समय पर पुनर्नवा या नवोन्मेषी शैली का साक्षात्कार उनकी निर्मित कृतियों में देखा जा सकता है।
1969-72 के दौरान कला भवन में कला समालोचना के साथ-साथ टेराकोटा विधा में उनके अभिनव प्रयोगों को दर्शकों ने बहुत सराहा था। यही नहीं, एक कला चिंतक के नाते आर्ट ऐंड चेंज और मॉडर्न आर्ट इन इंडिया ऐंड द वेस्ट जैसे विषयों पर उनके सुचिंतित और विद्वतापूर्ण व्याख्यानों ने लोगों में कला की नई समझ पैदा की। मिट्टी से बनी और देसी भट्टी में पकी उनकी टेरा-कृतियों ने न केवल कला भवन, शांतिनिकेतन में, बल्कि संपूर्ण कला जगत में सनसनी-सी फैला दी थी। टेराकोटा की इस प्रचलित विधा में मूर्तिकला के द्विआयामी प्रभाव को सुरक्षित रखते हुए केजी ने चौकोर और चौरस शतरंजी खानों जैसे अलग-अलग ब्लॉकों को जोड़ कर अनोखी दृश्यावली निर्मित की थी। यों रिलीफ विधा में रूपाकृतियां गढ़ना और परंपरागत ढंग से मूर्तियां बनाना शांतिनिकेतन कला विभाग के लिए पाठ्यक्रम का अनिवार्य अंग था, पर यह विधा अपने दुहराव और अनुकृति के कारण बासी पड़ती जा रही थी। इसको नये रूपाकार और खास पैटर्न में गढ़ते हुए सुब्रह्मण्यन ने अपने जादुई रचना-संसार में एक ऐसा भावोद्दीपक आयाम जोड़ा था, जिसका प्रभाव आज तक लोगों की स्मृति में सुरक्षित है।
उन्होंने बंग भंग के बर्बर समय और अमानवीय कृत्य का भरपूर नोटिस लेते हुए टेरा-कृतियों के माध्यम से उन त्रासद क्षणों को व्यंजनात्मक ढंग से प्रस्तुत किया था। इनमें बांग्लादेश की तत्कालीन ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में मानवीय त्रासदी के सटीक और सांकेतिक बिंब बेहद प्रभावी ढंग से उकेरे गये थे। एक गुणा एक फुट के आयताकार पटल और मिट्टी की मोटी-पतली पट्टियों से जोड़ या थाप कर बनायी गयी यह पूरी शृंखला बेहद रोमांचक है। भूरी-काली-बादामी मिट्टी के सपाट पटल पर लिखी एक ऐसी त्रासद गाथा है, जो क्षत-विक्षत मृतकों के अंगों से पटी रणभूमि में परिणत हो गई है। इसमें एक ओर तथाकथित सेनानायकों के आत्ममुग्ध चेहरे, सैनिकों के कटे-फटे अंग, मांस के लोंदे में तब्दील मुक्तिसंग्रामी, सैनिकों की लिथड़ी लाशें पड़ी हैं, तो दूसरी ओर बनैले सुअर जैसे दांत निपोरते और अट्टहास करते विद्रूप चेहरे अजीब जुगुप्सा जगाते हैं। तमंचे में फंसी चीखें, आंखें और चश्मे, तनी पिस्तौलें, पतलूनें, दस्ताने और चमड़े की चौड़ी पेटियों से पटी दृश्यावली वह सब कुछ बता देती है, जिनका शिकार निहत्थे लोग होते हैं। इस बादामी शृंखला के आगे एक दूसरे पटल में बर्बर सैनिकों द्वारा उस पाशविक और जघन्य कृत्य का अंकन है, जिसमें स्त्रियों पर किये गये बलात्कार द्वारा असंख्य लावारिस या नाजायज शिशुओं का जन्म हुआ।
आसपास के पैनलों में टंगे सैन्यवर्दी के ऊपर तमगों और मैडलों की फूहड़ नुमाइश के साथ तीन सेनानायकों की वहशियाना हंसी छद्म मूल्यबोध, मानवीय गरिमा और जनतांत्रिक आकांक्षाओं को नृशंसतापूर्वक छील और लील रही हैं। ऐसे अभिशप्त और अवांछित प्रसंग को जिस प्रतीकात्मकता, प्रश्नाकुलता और साहस के साथ, सुब्रह्मण्यन ने प्रस्तुत किया, वह पाब्लो पिकासो की कृति ह्यगुएर्निकाह्ण की याद दिलाता है। जब स्पेनी गृहयुद्ध के दौरान बर्बर फासिस्ट सैनिक शहर को रौंदते हुए उनके स्टूडिओ में दाखिल हुए, ह्यगुएर्निकाह्ण के सामने जाकर पूछा था- ह्ययह तुम्हारी कृति हैह्ण, तो बिंदास और बेफिक्र कलाकार ने उत्तर दिया था- ह्यनहीं, तुम्हारी।ह्ण टेराकोटा पद्धति से बनी इन निर्मितियों के अगले क्रम में, इसी शृंखला का दूसरा चरण सर्वथा एक अलग रचनात्मक मनोदशा के साथ 1978 में देखा जा सकता है। यहां मानवीय संस्पर्श से विन्यस्त सुब्रह्मण्यन की टेरा-कृतियां अत्यंत आत्मीय प्रतिकृतियां और छवियां लिए हमारे सामने आती हैं। इनमें हम एक अत्यंत संवेदनशील, कौतुकपूर्ण और संवाद-मुखर कलाकार के एक नए अवतार से साक्षात्कार करते हैं। इनमें कटु-तिक्त और मधु-सिक्त ऐंद्रिक अनुभव और भावाकुल रचाव का एक अभिनव संसार है। सुब्रह्मण्यन ने अपनी कला-भाषा गढ़ने के लिए प्रकृति में व्याप्त और सहज उपलब्ध लगभग सभी भौतिक साधनों का चयन और अधिकतम उपयोग किया। इसमें परंपरागत भित्ति चित्रांकन या ह्यम्यूरलह्ण का विस्तार भी सम्मिलित है।
बालू, चूना, प्लास्टर, सीमेंट और मिट्टी को आकार देते हुए उन्होंने अचानक काष्ठांकन भी किया। उनकी कला दुनिया में धीरे-धीरे काठ और मिट्टी के खिलौने, रस्सियों से बुनी अजीबोगरीब, लेकिन परिचित आकृतियां और कठपुतलियां वगैरह शामिल हैं, जो हमारे समय की विडंबनाओं और सच्चाइयों की गवाही देती रही हैं। सुब्रह्मण्यन ने अपनी परवर्ती निर्मितियों में भी इस ह्यकौतुकपूर्ण शृंखला को जारी रखा। इसमें सुब्रह्मण्यन ने विशिष्ट मानवीय आकृतियों को उनकी विस्मयपूर्ण मुद्रा को बड़े रोचक ढंग से प्रस्तुत किया। इस शृंखला को पूरा करने में उन्हें छह-सात वर्ष लग गए। इसमें मिट्टी से खेलने वाली उनकी माहिर उंगलियां अपने खिलंदड़ेपन के कारण ऐसी कृतियां सामने लेकर आर्इं, जिन्होंने मूर्तिकला सृजन को एक नया आयाम दिया। साथ ही, यह तथ्य भी दोहराया कि ह्यकलाह्ण अपनी जमीन और लोक चेतना से जुड़ कर ही सही पहचान पाती है।
केजी सुब्रह्मण्यन ने पाश्चात्य कला के विरोध में नहीं, बल्कि उसके समांतर भारतीय कला अवधारणाओं की व्याख्या की। वे सृजन में कलात्मक प्रविधियों के प्रयोग के सशक्त पक्षधर थे। अपनी दो पुस्तकों ह्यमूविंग फोकसह्ण और ह्यद लिविंग ट्रेडिशनह्ण में वे कलाकारों को उन प्रतिश्रुतियों के प्रति आगाह करते रहे, जो सामयिक और समीचीन हैं। साथ ही, उन्हें सतर्क भी किया कि वे अपने सृजन कर्म में एकदम परंपरा-विरुद्ध, विषम और विरूप न हो जाएं। ह्यआधुनिक कलाह्ण या ह्यभारतीय कला में आधुनिकताह्ण जैसी बहस को वे एक सीमा तक ही सार्थक और स्वीकार्य मानते थे। दो वर्ष पहले उनकी रीढ़ की हड्डी की सर्जरी हुई थी, लेकिन इस कष्टकर परिस्थिति में भी उन्होंने ह्यवार आॅफ दि रेलिक्सह्ण (अवशेषों का युद्ध) शीर्षक से युद्ध के विरुद्ध अपनी प्रतिक्रिया को अभिव्यक्ति दी थी। अपनी मृत्यु के एक माह पहले तक वे चित्र बनाते रहे थे।
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