चतरा में दिखेगा शह और मात का खेल
चतरा सीट आज सिर्फ झारखंड ही नहीं, बल्कि बिहार में भी चर्चा के केंद्र में है। यहां से भाजपा के निवर्तमान सांसद सुनील सिंह, कांग्रेस के मनोज यादव और राजद के सुभाष यादव मैदान में हैं। नामांकन के अंतिम दिन भाजपा के राजेंद्र साहू ने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में पर्चा दाखिल कर भाजपा की चुनौती बढ़ा दी है। चतरा एक ऐसी सीट है, जहां से आज तक कोई भी स्थानीय प्रत्याशी संसद में नहीं जा सका है। भाजपा, राजद या कोई और दल, जिसके भी प्रत्याशी यहां से जीते, सभी बाहरी ही रहे। पिछले 2014 के चुनाव में धीरज साहू यहां से कांग्रेस के प्रत्याशी थे, तो इस बार कांग्रेस ने बरही विधायक मनोज यादव को यहां से चुनाव मैदान में उतारा है। पटना से आकर राजद के सुभाष यादव ने यहां का पूरा राजनीतिक समीकरण ही बदल दिया है। इन सबके बीच यहां के लोगों की मुख्य मांग स्थानीय प्रत्याशी की है।
ऐसे में राजेंद्र साहू भाजपा समेत सभी दलों की परेशानी बढ़ा सकते हैं। लंबे समय से भाजपा से जुड़े रहे हैं। लोगों के बीच उनका उठना-बैठना रहा है। लोग उन्हें दबंग स्थानीय नेता के रूप में देखते रहे हैं। सबसे बड़ी बात है कि यहां वैश्य मतदाताओं की संख्या भी अच्छी खासी है। यदि भाजपा समर्थक यह सोच कर खुश हैं कि सुभाष यादव और मनोज यादव के बीच की जंग में भाजपा क्लीन स्वीप कर सकती है, तो वे खुशफहमी में हैं। यहां राजेंद्र साहू उनकी मुश्किलें बढ़ाने जा रहे हैं। प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से बड़ी संख्या में भाजपा कार्यकर्ता उनके साथ हैं और उनके लिए जोर लगा देने के मूड में हैं। शायद यही कारण है कि सांसद सुनील सिंह को कार्यकर्ताओं की कमी महसूस हो रही है।
यह अलग बात है कि मुख्यमंत्री रघुवर दास उनके नामांकन में तामझाम के साथ पहुंचे। इससे कई कार्यकर्ता सुनील सिंह के साथ जरूर आ गये, पर उनके लिए कितना दम लगा पायेंगे, यह कहना मुश्किल होगा। वहीं, सुभाष यादव अपने पूरे तामझाम के साथ चुनाव मैदान में उतर गये हैं। सबको पता है कि वह धन-बल के मामले में सब पर भारी पड़ेंगे और इसे वोट के रूप में कैसे और कितना तब्दील करेंगे यह देखना होगा। इस सीट पर राजद की पकड़ पहले से काफी अच्छी रही है। पर कांग्रेस ने मनोज यादव को टिकट देकर सुभाष यादव की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। यहां यादव वोट की बहुलता है। पर इन वोटों को एकमुश्त अपने पक्ष में करना दोनों के लिए चुनौती होगी। चतरा झारखंड के घोर उग्रवाद प्रभावी इलाकों में शुमार है। यहां नीलम देवी भी हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि ग्रामीण क्षेत्र में उनकी पकड़ है। वह पहले झाविमो में थीं। पर यह सीट कांग्रेस के खाते में जाता देख वह भाजपा में शामिल हो गयीं। उम्मीद थी कि वह स्थानीय होने के दम पर टिकट हासिल कर लेंगी, पर बात नहीं बनी। फिलहाल उन्होंने भाजपा से पाला बदल लिया और राजद में शामिल हो गयी हैं। उनकी नाराजगी भाजपा या कांग्रेस को कितना प्रभावित करेगी, यह तो बाद में पता चलेगा। वैसे यहां नागेश्वर गंझू भी चुनाव मैदान में हैं। लोगों का कहना है कि वह भी अच्छा खासा वोट मैनेज कर सकते हैं।
चतरा उद्वेलित, लोहरदगा में अजीब खामोशी, सस्पेंस बढ़ा
बात करें लोहरदगा की, तो यहां फिलहाल हवा एकदम शांत है। यहां दो भगतों की लड़ाई है। केंद्रीय मंत्री सुदर्शन भगत भाजपा का झंडा लेकर चुनावी रण में उतर चुके हैं। वह पिछले दो बार से यहां सांसद हैं। वहीं, कांग्रेस के सुखदेव भगत अपनी विधायकी को सांसद के रूप में तब्दील करने के लिए बेचैन हैं।
सुदर्शन भगत भाजपा से नामांकन करनेवाले पहले प्रत्याशी बने। उनके नामांकन में भारी भीड़ हुई। मुख्यमंत्री रघुवर दास समेत मंगल पांडेय, धर्मपाल सिंह, गणेश मिश्रा और भाजपा के तमाम दिग्गज मौजूद रहे। बावजूद इसके लोहरदगा में उत्साह नहीं दिख रहा। यहां लोहरदगा, मांडर और विशुनपुर में आजसू पार्टी का खासा वर्चस्व है। परंतु आजसू कार्यकर्ता भी उत्साहित नहीं दिख रहे। उनके अंदर अब भी कहीं न कहीं यह बात गहरी पैठी है कि लोहरदगा उप चुनाव में तत्कालीन आजसू विधायक कमलकिशोर भगत की पत्नी के पक्ष में भाजपा कार्यकर्ताओं और खासकर सुदर्शन भगत ने दमखम नहीं लगाया। इसे लेकर वे फिलहाल प्रचार-प्रसार से दूर ही दिख रहे हैं।
हालांकि सुदर्शन भगत के नामांकन के दौरान आजसू के गुमला और लोहरदगा जिलाध्यक्ष मौजूद रहे थे। वैसे लोहरदगा की अपेक्षा गुमला जिला में भाजपा के कैडर वोट की तादाद अच्छी खासी है। कहा जाता है कि लोहरदगा जिला में आजसू और गुमला में भाजपा के कैडर वोट नहीं बिखरे, तो भाजपा उम्मीदवार सीट निकाल सकते हैं। परंतु दोनों कैडरों को वोट के रूप में तब्दील करना बड़ी चुनौती है। इसके लिए दोनों दलों को पूरा दमखम लगाना होगा। वहीं, सुखदेव भगत को झामुमो और और झाविमो का साथ है। गुमला जिला में झामुमो मजबूत स्थिति में है। वहीं मांडर विधानसभा क्षेत्र में बंधु तिर्की झाविमो कार्यकर्ताओं के साथ उनके लिए मजबूत सहारा बनेंगे, यह तय है।
इतना ही नहीं, लोहरदगा विधानसभा क्षेत्र में स्वयं सुखदेव भगत की अच्छी खासी पकड़ है। वह यहां से विधायक भी हैं। युवाओं के बीच लोकप्रिय हैं, उन्हें समय देते हैं। लंबे समय तक प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहने का उन्हें लाभ भी मिलेगा।
इस सीट पर कांग्रेस के परंपरागत वोट हैं। लंबे समय तक कांग्रेस के कब्जे में यह सीट रही है। पिछला चुनाव भी सुदर्शन भगत मात्र 6000 वोट से ही निकाल सके थे। सुखदेव भगत को गुमला के दिग्गज कांग्रेसी नेताओं का साथ मिलना जरूरी है। कांग्रेस के प्रतिभाशाली नेता डॉ अरुण उरांव और पुराने कांग्रेसी रामेश्वर उरांव भी यहां से टिकट के दावेदारों में शामिल थे। अब वे कितनी रुचि सुखदेव को जिताने में दिखाते हैं, बहुत कुछ इस पर भी निर्भर करेगा। सुखदेव भगत के नामांकन में इन दोनों नेताओं का शामिल नहीं होना बहुत कुछ कह जाता है। वैसे सुखदेव भगत को राजनीति का धुरंधर माना जाता है। वह लोगों को संगठित करने में भी माहिर हैं। ऐसे में उनके समर्थकों का कहना है कि बाजी सुखदेव के हाथ में होगी, जैसे उन्होंने पहले विस के उपचुनाव में कमल किशोर की पत्नी को हरा कर किया था।
पलामू में वीडी राम के सामने भी है बड़ी चुनौती
लोहरदगा, पलामू और चतरा में नामांकन प्रक्रिया पूरी होते ही ये सीटें पूरी तरह चुनावी मोड में आ गयी हैं। साथ ही शुरू हो गया है शह और मात का खेल। देखा जाये, तो पलामू सीट को लेकर भाजपा थोड़ा इत्मीनान महसूस कर रही है। यहां उनके खिलाफ मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में राजद के घूरन राम हैं। वीडी राम ने पिछले चुनाव में यह सीट आसानी से जीती थी। लेकिन इस बार उनका सीधा मुकाबला है। इस मुकाबले में अगर कांग्रेस, झारखंड मुक्ति मोरचा और झारखंड विकास मोरचा ने पूरी तरह घूरन राम का साथ दिया, तो वीडी राम के लिए राह मुश्किल हो सकती है। हां राजद के लिए परेशानी की बात यह है कि राजद के मजबूत स्तंभ माने जानेवाले गिरिनाथ सिंह के भाजपा में शामिल हो जाने से भाजपा को भले ही फायदा हुआ हो या न हो, लेकिन राजद को नुकसान जरूर हुआ है।
गिरिनाथ सिंह का लक्ष्य कभी भी लोकसभा चुनाव नहीं था, लेकिन वह विधानसभा में हाथ जरूर आजमाना चाहेंगे और यह चुनाव उनके लिए बेहतर मौका साबित हो सकता है। वह चाहेंगे इसमें भाजपा के लिए बेहतर प्रदर्शन कर अपनी योग्यता साबित करें। वहीं गिरिनाथ सिंह के घुर विरोधी रहे भाजपा विधायक सत्येंद्र तिवारी बिदके हुए जरूर हैं, लेकिन उनकी नाराजगी वीडी राम के चुनावी नतीजों पर कितना प्रभाव डालेगी, यह भविष्य के गर्भ में है।
हालांकि तेजस्वी यादव ने स्वयं पलामू आकर घूरन राम के पक्ष में जनसभाएं कर हवा बनाने की कोशिश की है। पलामू में तेजस्वी कितना असर डाल पायेंगे, यह कहना मुश्किल है, क्योंकि पलामू में झामुमो संथाल परगना या कोल्हान वाली स्थिति में नहीं है। वहीं कांग्रेस भी यहां पिछले एक से डेढ़ दशक में काफी कमजोर पड़ चुकी है। इसी कारण से वीडी राम थोड़ी राहत महसूस कर रहे हैं, लेकिन विपक्ष के वोटों के ध्रुवीकरण को लेकर उनकी परेशानी बढ़ी है।
वैसे भी चतरा, लोहरदगा और पलामू सीट पर अग्निपरीक्षा तो भाजपा की ही होनी है। भाजपा को ही साबित करना है कि इन तीनों सीटों के मतदाताओं पर उसकी कितनी पैठ बढ़ी है। विपक्ष को यहां खोने के लिए कुछ नहीं है। उसके लिए जो होगा, वह प्लस ही होगा।