कभी गुरुजी के स्तंभ थे विनोद विहारी महतो, निर्मल महतो, शैलेंद्र महतो, सूरज मंडल और टेकलाल महतो
रांची। महतो, मुस्लिम और मांझी को साथ लेकर राजनीति के शिखर तक पहुंचे झामुमो से अब इन्हीं जाति के नेता बिदक रहे हैं। बिहार में लालू यादव के माय समीकरण की तरह झारखंड में गुरुजी ने महतो, मुस्लिम और मांझी का समीकरण तैयार किया था। इन जाति से कई कद्दावर नेता भी हुए। झारखंड की राजनीति में उन्हें आज भी सम्मान मिलता है। बात विनोद बिहारी महतो की करें, सूरज मंडल की करें, शैलेंद्र महतो की करें, निर्मल महतो की करें या फिर टेकलाल महतो की सभी झामुमो के स्तंभ हुआ करते थे। गुरुजी के साथ इनकी खूब चलती थी और अपने-अपने क्षेत्र के सभी प्रभावशाली नेता थे। यह समीकरण इतना मजबूत हुआ करता था कि झारखंड में इनके द्वारा नेता तैयार किया जाता था। कह सकते हैं कि एक हद तक गुरुजी ने अपनी इस विरासत को संभाले रखा। समय के साथ गुरुजी की झामुमो अब हेमंत सोरेन की झामुमो हो गयी है और यहीं से पार्टी में महतो और मुस्लिम का दरकना शुरू हो गया है। देखा जाये तो झामुमो की राजनीति संथाल, कोल्हान और कोयलांचल और उत्तरी छोटानागपुर के कुछ इलाके तक ही सीमित थी। जहां भी झामुमो मजबूत था, वहां इन समुदाय की संख्या ज्यादा थी। संथाल में झामुमो को कभी मुस्लिम और मांझी का पूरा सहयोग मिलता था तो कोल्हान में महतो, मांझी और मुस्लिम का समीकरण इनके लिए वरदान हुआ करता था। आज ऐसी स्थिति नहीं रह गयी है। संथाल में मुस्लिम झामुमो से पूरी तरह से दरक गया है और कांग्रेस के साथ हो लिया है। यही वजह है कि झामुमो के कद्दावर नेता हाजी हुसैन अंसारी और अकील अख्तर ऐसी जगह से चुनाव हार गये, जहां मुस्लिम वोट निर्णायक होते हंै। जबकि इसी संथाल से कांग्रेस के आलमगीर आलम और इरफान अंसारी बड़े अंतर से चुनाव जीत जाते हैं। संथाल में पिछले लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के बाद भी झामुमो ने मुस्लिम को साथ मिलाकर दो सीटों पर कब्जा किया था।
वहीं जब विधानसभा का चुनाव होता है तो जहां से लोकसभा जीते थे, उस विधानसभा सीट को भी नहीं बचा सके। राजमहल और दुमका विधानसभा सीट पर इनकी हार हुई। खुद हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री रहते दुमका सीट गंवानी पड़ी थी। बरहेट में इसलिए जीते कि उनका किला बचा हुआ था। हाजी हुसैन अंसारी और अकील अख्तर झामुमो में संथाल से मुसलमानों का चेहरा हुआ करते थे। गुरुजी के काफी करीबी थे दोनों नेता। पिछले कुछ समय से अकील अख्तर भी पार्टी से नाराज चल रहे हैं।
संथाल में देखा जाये तो कभी झामुमो का बोलबाला हुआ करता था। पिछले विधानसभा चुनाव में जीत का आंकड़ा संतोषजनक नहीं कहा जा सकता है। संथाल में विधानसभा की 18 सीटें हैं। झामुमो को यहां मात्र छह सीटों पर जीत मिली थी, जबकि भाजपा, जिसका सबसे कमजोर क्षेत्र संथाल ही था, उसे यहां आठ सीटें मिली थीं। झामुमो का संथाल के बाद सबसे मजबूत किला कोल्हान था। एक समय कोल्हान का पूरा गढ़ झामुमो का कहा जाता था। लोकसभा में खाता नहीं खुला। सारे पुराने साथी हटते गये। दुलाल भुइयां, विद्युतवरण महतो, शैलेंद्र महतो ने साथ छोड़ दिया। रामदास सोरेन कहां हैं किसी को पता नहीं। कभी पोटका विधानसभा सीट इनकी हुआ करती थी, यह भी हाथ से जाती रही। ले देकर झामुमो के पास क्षेत्र विशेष की सीटें बच गयी हंै। कुणाल षाडंÞगी विधायक हैं लेकिन बहरागोड़ा में उन्हें उनके पिता की राजनीतिक पृष्ठभूमि काम आयी थी। कुणाल खुद एक चेहरा बन गये हैं। दीपक बिरुआ अपने बूते राजनीति कर रहे हंै और लगातार दो बार से विधायक हैं। जोबा मांझी का वजूद उनके पति स्व. देवेंद्र मांझी की विरासत से है। कोल्हान में देवेंद्र मांझी की मजबूत राजनीतिक विरासत है, जो आज तक चल रही है। सबसे बड़ी बात यह है कि झामुमो चाईबासा सीट से चुनाव नहीं लड़ रही है, जबकि चाईबासा लोकसभा में झामुमो के पांच विधायक हैं।
यह इस बात को दर्शाता है कि झामुमो के अंदरखाने की जमीन खिसक रही है। पांच विधायक होते हुए झामुमो ने चाईबासा सीट अपने कोटे में नहीं ली, इसका कारण तो वाही जाने। लेकिन राजनीतिक विश्लेषक यही मानते हैं कि झामुमो कमजोर हो रहा है। इसके पीछे की मुख्य वजह शिबू सोरेन की उम्र और स्वास्थ्य कारण हो सकता है और हेमंत का फोकस यहां नहीं है। कोलेबिरा में खुद एनोस एक्का की पत्नी की स्थिति अच्छी थी। झामुमो और राजद का साथ मिला तो लगा कि वह जीत गयीं।
मगर परिणाम कांग्रेस के पक्ष में गया। मुस्लिम मतदाता झामुमो के साथ गये नहीं। इसाई मतदाताओं ने भी झामुमो का साथ नहीं दिया और कांग्रेस को अपना लिया। कोल्हान में भी इसाई मतदाता, जो झामुमो के साथ थे, कांग्रेस के साथ हो गये हैं। जहां तक सिल्ली और गोमिया का सवाल है तो यह दोनों सीटें कभी झामुमो का गढ़ नहीं रहीं। अमित महतो और योगेंद्र प्रसाद झामुमो की उपज नहीं हैं। अमित की राजनीतिक पृष्ठभूमि झाविमो की रही है तो योगेंद्र ने आजसू से राजनीति शुरू की थी। इनका अपना वर्चस्व इन क्षेत्र में है। यूं कहें कि गुरुजी जब राजनीति में पूरे रंग में थे, उस समय यहां से एक से बढ़ कर एक नेता तैयार होता था। हेमंत के झामुमो में नया प्रोडक्ट तैयार नहीं हो रहा है। उधार के खिलाड़ी से किसी तरह कहीं-कहीं जंग जीत रहे हैं। जाहिर है, जब तक इनका चेहरा सर्वसुलभ नहीं होगा, तब तक झामुमो 16 से 20 सीट पर डूबता उतराता रहेगा। जब झामुमो एकजुट था, तब भी यही स्थिति थी। आज इलाका का इलाका साफ है। समाज का बौद्धिक वर्ग यहां से गायब हो गया है। बहुत सारे जाति विशेष के लोग यहां जाने में सहज महसूस नहीं करते। पूर्व स्पीकर शशांक शेखर भोक्ता जैसे बड़े चेहरे की हार होती है तो इसका कारण झामुमो को ही खोजना होगा। व्यक्तित्व की बात की जाये तो भोक्ता एक बड़ा चेहरा हैं। विष्णु भैया भी अरमान लेकर भाजपा को छोड़ झामुमो में आये थे। आज राजनीति के किस कोने में पड़े हैं किसी को पता नहीं है। इस तरह कह सकते हैं कि झामुमो जैसे-जैसे नये वर्ग की चाह में आगे बढ़ रहा है, वैसे-वैसे उसका पुराना समर्थक वर्ग उससे खिसकता जा रहा है। यही वजह है कि कभी महतो और मुस्लिम के बूते झारखंड की सबसे मजबूत पार्टी में झामुमो शुमार होता था, आज वही वर्ग झामुमो से छिटकता जा रहा है। भले ही महागठबंधन कर झामुमो लोकसभा चुनाव में ताल ठोक रहा है, लेकिन सच्चाई यह है कि मुस्लिम मतदाता कांग्रेस और झाविमो के साथ हैं। महतो मतदाता का झुकाव भाजपा और आजसू गठबंधन की तरफ है। जो झामुमो के लिए शुभ संकेत नहीं है। आजसू के सुदेश महतो ने कुर्मी मतदाताओं में सेंधमारी कर झामुमो के लिए नयी चुनौती पेश कर दी है। झामुमो सिल्ली सीट जीत कर उतरा रहा था, लेकिन सुदेश महतो ने टेकलाल के पुत्र जेपी पटेल को झामुमो से झिटक कर नहले पर दहला मार दिया।
उनका निशाना कुछ और लोगों पर है और इसका परिणाम अगले विधानसभा चुनाव में सामने आनेवाला है। वहीं पिछड़ी जाति में महतो के अलावा झामुमो की कभी भी पकड़ अन्य जातियों पर नहीं थी। कह सकते हैं कि पिछड़ी जाति और सामान्य जाति लगभग झामुमो से दूरी बनाये हुए है। ऐसे में झामुमो को यदि अपने आपको झारखंड में स्थापित रखना है तो गुरुजी के ट्रिपल एम समीकरण पर मजबूती से काम करना होगा।