दूसरी घातक बीमारियों से ग्रस्त मरीजों की हो रही अनदेखी
पिछले करीब दो महीने से देश भर की स्वास्थ्य सेवाएं कोरोना के खिलाफ जंग में इस कदर डूबी हुई हैं कि दूसरी बीमारियों की तरफ उनका ध्यान ही नहीं जा रहा है। सरकारी अस्पतालों में केवल पहले से भर्ती मरीजों का ही जैसे-तैसे इलाज हो रहा है। नये मरीजों को भर्ती नहीं किया जा रहा है। ओपीडी सेवाएं लगभग बंद हैं। निजी अस्पतालों से भी मरीजों को लौटा दिया जा रहा है। डॉक्टरों की क्लीनिक बंद है और दूसरी बीमारियों से ग्रस्त मरीज या तो घरेलू इलाज पर निर्भर हैं या फिर भगवान भरोसे अपना दिन बिता रहे हैं। आखिर इन सामान्य मरीजों का इलाज कब और कैसे होगा। कोरोना के कहर ने दूसरी बीमारियों से ग्रस्त मरीजों की कराह को कहीं दबा दिया है। उनका न इलाज हो रहा है और न दूसरी जांच ही हो रही है। किसी को इस बात का इल्म भी नहीं है कि कोरोना संकट खत्म होने के बाद भारत, और खास कर झारखंड जैसे छोटे और संसाधन विहीन प्रदेशों में लोक स्वास्थ्य की हालत क्या होनेवाली है। स्वास्थ्य सेवाओं का यह तात्कालिक और अस्थायी प्रबंधन देश के स्वास्थ्य को भयानक रूप से प्रभावित करनेवाला है, इस बात को अभी से ही समझ लेना चाहिए। डॉक्टरों के लिए यह एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आनेवाली है। लॉकडाउन की अवधि में वे जिस तरह सामान्य मरीजों का इलाज नहीं कर रहे हैं, तो बाद में उनके लिए यह बड़ा सिरदर्द साबित होनेवाला है। दूसरी बीमारियों से ग्रस्त मरीजों की अनदेखी के बारे में आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
पूरे देश के अस्पतालों में नहीं हो रहा सामान्य बीमारियों का इलाज
कोरोना से जंग लड़ रहे भारत में इन दिनों दूसरे किसी भी मोर्चे पर कोई काम शायद नहीं हो रहा है। झारखंड समेत पूरे देश की स्वास्थ्य मशीनरी भी लोगों को इस वैश्विक महामारी के संक्रमण से बचाने में लगी हुई है। यह हालत तब है, जब देश के कई राज्यों में इस खतरनाक बीमारी का संक्रमण पूरी तरह फैला नहीं है। पंजाब का पठानकोट ऐसा ही एक इलाका है, जहां कोरोना ने दस्तक नहीं दी है, हालांकि पंजाब के अधिकांश इलाके इस संक्रमण की चपेट में हैं। इसी पठानकोट जिले के सुजानपुर शहर में मजदूरी करनेवाले बिहार के एक व्यक्ति के बच्चे की तबीयत खराब होती है। वह व्यक्ति बच्चे को लेकर आधा दर्जन सरकारी और निजी अस्पतालों का चक्कर लगाता है, लेकिन कहीं उसके बच्चे का इलाज नहीं होता। अंतत: वह बच्चा काल के गाल में समा जाता है और कोरोना से जूझ रही इस व्यवस्था पर एक बड़ा सवाल छोड़ जाता है। यह सवाल है कि क्या कोरोना के संकट के दौर में दूसरी बीमारियों से ग्रस्त मरीजों को देखनेवाला कोई नहीं है या उन्हें भगवान भरोसे छोड़ दिया गया है।
ऐसा वाकया केवल पंजाब में हुआ है, ऐसी बात नहीं है। पांच दिन पहले गुजरात के सूरत में रांची के एक दिहाड़ी मजदूर की सरकारी अस्पताल में किडनी में गड़बड़ी से मौत हो गयी। इससे पहले हिंदपीढ़ी की एक महिला प्रसव के लिए समय पर अस्पताल नहीं पहुंच सकी और उसका नवजात शिशु घर में ही मर गया। चक्रधरपुर निवासी एक युवक अपनी मां के इलाज के लिए दर-दर भटकता रहा, लेकिन किसी निजी अस्पताल ने उसे भर्ती नहीं किया और अंतत: उस महिला की मौत हो गयी।
झारखंड जैसे राज्य, जहां स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति उतनी अच्छी नहीं है, में इन दिनों यदि कोई बीमार पड़ता है, तो या तो उसे घरेलू उपचार पर निर्भर करना पड़ रहा है या फिर भगवान भरोसे लॉकडाउन खत्म होने का इंतजार करना पड़ रहा है। मानो लॉकडाउन खत्म होते ही सब कुछ सामान्य हो जायेगा और तमाम डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मी कोरोना ड्यूटी से मुक्त हो जायेंगे। यह खतरनाक स्थिति है, लेकिन हकीकत है। झारखंड के तमाम सरकारी अस्पतालों में ओपीडी सेवाएं बंद हैं। डॉक्टर या तो कोरोना ड्यूटी में हैं या फिर क्वारेंटाइन में। जो कुछेक बचे हैं, वे भी वर्क फ्रॉम होम कर रहे हैं, यानी वे घर से ही इ-ओपीडी के जरिये मरीजों का इलाज कर रहे हैं। निजी अस्पतालों में किसी भी नये मरीज को नहीं लिया जा रहा है, क्योंकि हर मरीज को पहले कोरोना निगेटिव की रिपोर्ट लाने को कहा जा रहा है। यह व्यवस्था उन लोगों के लिए बेहद महंगी साबित हो रही है, जिनके घर में लोग बीमार पड़ रहे हैं या पहले से ही बीमार हैं।
इधर केंद्र सरकार ने एक आदेश जारी किया है कि निजी अस्पताल गंभीर मरीजों को भर्ती करने या उपचार से इनकार नहीं कर सकते। साथ में सरकार ने यह भी कहा है कि मरीजों को अस्पताल में भर्ती करने से पहले उनको कोरोना वायरस की जांच के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा है कि स्वास्थ्य सुविधाएं, खासतौर पर निजी क्षेत्र में यह जारी रहे। वैसे भी डॉक्टरों के लिए मरीज सर्वोपरि होता है और कोई भी डॉक्टर किसी भी मरीज का इलाज करने से कभी इनकार नहीं कर सकता, लेकिन संकट के इस दौर में ऐसा हो रहा है। झारखंड के सबसे बड़े अस्पताल रिम्स का आंकड़ा बेहद चौंकानेवाला है। सामान्य दिनों में यहां हर दिन डेढ़ हजार से अधिक मरीज ओपीडी में इलाज कराने आते हैं। अभी यहां ओपीडी सेवा बंद है, लेकिन प्रशासन द्वारा शुरू करायी गयी इ-ओपीडी सेवा से महज एक सौ के करीब मरीज ही लाभ उठा रहे हैं। निजी अस्पतालों या डॉक्टरों तक पहुंचनेवाले मरीजों की संख्या नगण्य हो गयी है, क्योंकि लॉकडाउन के शुरूआती दौर में ही मरीजों को बिना इलाज के लौटा दिया गया।
आखिर इस समस्या का हल ढंूढ़ना ही होगा। सामान्य मरीजों के इलाज की पुख्ता व्यवस्था करनी ही होगी। इसके लिए आइएमए जैसे संगठनों को आगे आना होगा, क्योंकि डॉक्टरों की जिम्मेदारी बढ़ गयी है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि डॉक्टर अपनी पूरी क्षमता से कोरोना के खिलाफ जंग में अपना योगदान दे रहे हैं और उनकी मेहनत से कई संक्रमित मरीज स्वस्थ भी हो रहे हैं, लेकिन दूसरी बीमारियों के मरीजों को भी स्वस्थ बनाना उनकी ही जिम्मेदारी है।
कोरोना के कुछ मरीजों को बचाने के क्रम में यदि बिना इलाज के कोई एक भी मरीज की मौत हो जाये, तो यह डॉक्टर कतई मंजूर नहीं करेंगे। इसलिए इस समस्या का हल डॉक्टर ही कर सकते हैं। यह पूरी चिकित्सा व्यवस्था के लिए परीक्षा का दौर है। इस दोहरी जिम्मेदारी का निर्वहन हमारे योग्य और मेहनती डॉक्टर कैसे कर पाते हैं, यह देखना बाकी है।