वैश्विक महामारी कोरोना की दूसरी लहर ने झारखंड जैसे छोटे और आर्थिक रूप से कमजोर राज्यों के सामने चुनौतियों का पहाड़ खड़ा कर दिया है। एक तरफ कोरोना ने राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था को पूरी तरह बेपटरी कर दिया है, तो दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था की गाड़ी का पहिया भी धीरे-धीरे थमता जा रहा है। यह घोर आपदा का समय है और इसका असर न केवल पटरी पर लौट रही झारखंड की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा, बल्कि राज्य का सामाजिक ताना-बाना भी गंभीर रूप से प्रभावित होगा। आपदा का यह दौर इसलिए भी गंभीर हो गया है, क्योंकि प्रधानमंत्री के देश के नाम संबोधन में अब साफ हो गया है कि इस बार राज्यों को केंद्र से कोई विशेष मदद नहीं मिलनेवाली है। इसका मतलब यही निकलता है कि झारखंड को अब अपने ही भरोसे इस चुनौती का सामना करना है। सीमित संसाधन और कमजोर इंफ्रास्ट्रक्चर के बल पर केंद्र की मदद के बिना झारखंड इस आपदा में कितनी दूर तक चल सकेगा, यह बड़ी चुनौती है। इस साल के बजट में हेमंत सोरेन सरकार ने झारखंड के सामने उम्मीदों का जो दीपक जलाया था, उसकी लौ स्वाभाविक रूप से मद्धिम पड़ने लगी है। झारखंड को इस विकट परिस्थिति से निकालना बड़ी चुनौती है। इसके लिए एक ठोस रणनीति बनाने की जरूरत है। झारखंड के सामने मौजूद इस बड़ी चुनौती का विश्लेषण करती आजाद सिपाही के टीकाकार राहुल सिंह की खास रिपोर्ट।

वैश्विक महामारी कोरोना की दूसरी लहर ने झारखंड को तबाही के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया है। स्वास्थ्य के साथ-साथ इसने जीवन के दूसरे क्षेत्रों को भी बुरी तरह प्रभावित किया है। अस्पतालों में बेड की कमी, इलाज का अभाव और आॅक्सीजन-वेंटीलेटर के संकट ने लोगों के आत्मविश्वास को बुरी तरह हिला दिया है। हर तरफ अफरा-तफरी और परेशानी का आलम है। इस स्थिति को देश के दूसरे हिस्सों से लौट रहे प्रवासी कामगारों के बोझ ने बढ़ा दिया है। इसका सीधा असर अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। इससे सामाजिक समस्याएं भी पैदा हो रही हैं, जिसका सीधा असर विधि-व्यवस्था पर भी पड़ना तय है। महामारी का यह सबसे भयानक चेहरा है, क्योंकि धीरे-धीरे जीवन के हर क्षेत्र में चुनौतियों का अंबार खड़ा होगा।
कोरोना की इस दूसरी लहर का सबसे घातक असर व्यवसाय जगत पर पड़नेवाला है। छोटी दुकानों का कारोबार लगभग ठप हो जायेगा। रेस्टारेंट, बार, होटल, बैंक्वेट हॉल, कैटररों पर तो भविष्य अंधकार में घिर गया है। बड़ी कंपनियां तो पिछले साल ही बोरिया-बिस्तर समेटने लगी थीं। लॉकडाउन के बाद स्थिति सामान्य होने तक इन कंपनियों में कुछ आस बंधी थी, लेकिन दूसरी लहर ने इसे खत्म कर दिया है। इनके बंद होने से इनमें काम करनेवाले करीब 20 से 25 हजार लोग बेरोजगार होकर सड़क पर आ जायेंगे। इसके बाद होटल और रेस्टोरेंट का नंबर आता है, जिनका कारोबार महज 10 से 20 प्रतिशत रह गया है। पूरे झारखंड में लाखों लोग इस कारोबार से जुड़े हैं और उनका धंधा ठप होजाने से भुखमरी की स्थिति उत्पन्न होगी। कोरोना काल में इन्हें चलाना बेहद मुश्किल हो रहा है। इसका असर राज्य की अर्थव्यवस्था पर सीधे पड़ा है। राज्य सरकार को इन मॉल, होटल और रेस्टोरेंट से हर महीने 12 से 15 करोड़ तक जीएसटी के रूप में मिलते थे। इसके अलावा बिजली और दूसरे मदों में भी अच्छी-खासी रकम खर्च होती थी। इन कारोबारों के बंद होने से यह आय भी बंद हो गयी है। बेरोजगारों की फौज खड़ी हो रही है, सो अलग।
वैसे झारखंड अकेला राज्य नहीं है, जहां कोरोना की दूसरी लहर के कारण लॉकडाउन चल रहा है। कई दूसरे राज्यों में भी हालात इससे भी खराब हैं। पूरे भारत की बात करें, तो तस्वीर और भी भयावह नजर आती है। जहां तक आंकड़ों की बात है, तो इनवेस्टमेंट इनफॉरमेशन एंड क्रेडिट रेटिंग एजेंसी आॅफ इंडिया ने झारखंड के सकल घरेलू उत्पाद में 10 प्रतिशत तक की गिरावट की आशंका जतायी है, जो आर्थिक बदहाली का स्पष्ट संकेत है। इस दूसरी लहर की मार इतनी भयानक होगी कि इससे झारखंड की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की कमर टूटने की आशंका है। हालांकि अच्छे मानसून की भविष्यवाणी ने उम्मीद की किरण दिखायी है, लेकिन झारखंड की अर्थव्यवस्था में खेती का योगदान बहुत अधिक नहीं है। यहां कुटीर उद्योगों की भूमिका भी लगभग शून्य है।
इस अंधकारमय तस्वीर का सबसे भयानक पहलू यह है कि पिछली बार के विपरीत इस बार केंद्र सरकार से राज्यों को कोई मदद नहीं मिलनेवाली है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में यह बात साफ कर दी है कि राज्यों को केंद्र से बहुत अधिक उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। स्वास्थ्य से लेकर दूसरे संसाधनों का इंतजाम उन्हें खुद करना चाहिए। यह ऐसा फंदा है, जिसमें झारखंड जैसे छोटे राज्य फंस कर तबाह होनेवाले हैं। आपदा के इस दौर में जहां राज्य सरकारों को और ज्यादा सहायता देने की जरूरत है, वहां इस तरह हाथ खींचना साबित करता है कि केंद्र के पास इस बार करने को बहुत कुछ नहीं है। देश की अर्थव्यवस्था तमाम दावों के बावजूद अच्छी नहीं है और इसे सामान्य होने में करीब चार साल का वक्त लगेगा, ऐसा विशेषज्ञों का अनुमान है। इसका असर यह हो रहा है कि देश और राज्य के वित्तीय संसाधन का अधिकांश हिस्सा ब्याज के रूप में खर्च हो जा रहा है और इसका कोई इलाज फिलहाल तो निकलता नहीं दिख रहा। हाल ही में जारी एक रिपोर्ट में ग्रामीण अर्थव्यवस्था की भयावह तस्वीर पेश की गयी है। गांव, गरीब और श्रमिकों के बीच तेजी से पसर रही बेरोजगारी और भूख का सवाल इसमें प्रमुख रूप से उठाया गया है। रिपोर्ट में कमजोर तबके के लोगों के दुख-दर्द को विस्तार से सामने लाया गया है। इससे बहुत से दावों की पोल तो खुलती ही है, संकट भरे भविष्य की ओर भी इसमें इशारा किया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि किसी भी आपदा में कानून का इस्तेमाल बचाव, राहत, पुनर्वास और पुनर्निर्माण योजना के लिए किया जाता है, ताकि आपदा के जोखिम, प्रभाव या प्रभावों को कम किया गया जा सके। लेकिन भारत में स्थिति इससे अलग है। यहां इस आपदा को भी राजनीतिक पोशाक पहना दी गयी है और इसने अपने पंख फैलाने शुरू कर दिये हैं।
झारखंड में कोरोना की दूसरी लहर ने हालात को और गंभीर बना दिया है। स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव और आजीविका के संकट ने लोगों की चिंता बढ़ा दी है। यह समस्या गंभीर होनेवाली है। इस बार सामाजिक सुरक्षा के कार्यक्रम भी कारगर नहीं दिख रहे हैं। अब समय आ गया है कि स्थिति की गंभीरता को समझते हुए रणनीति में बदलाव किया जाना चाहिए। एक-एक व्यक्ति को यह चिंता करनी होगी कि कैसे जिंदगी की गाड़ी को खींचा जाये। कैसे राज्य की चुनौती से निबटने में खुद का योगदान किया जाये। यह सही है कि चुनौती बहुत बड़ी है और हर पग पर संघर्ष दिख रहा है, लेकिन चुनौतियों और कठिनाइयों के बीच ही राह निकलती है। उम्मीद की जानी चाहिए कि झारखंड के साढ़े तीन करोड़ लोग इस राह को ढूंढ़ निकालेंगे।

Share.

Comments are closed.

Exit mobile version