विशेष
-बाहरी पार्ट-पुर्जों को फिट करने की कोशिश में हो रहा नुकसान
-संगठन में तपे-तपाये नेताओं-कार्यकर्ताओं से ही हो सकता है बेड़ा पार
दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी की झारखंड प्रदेश इकाई वर्ष 2013 से ही एक अजीब से उथल-पुथल के दौर से गुजर रही है। भाजपा की इस प्रदेश इकाई को शायद आगे का रास्ता दिख नहीं रहा है या फिर वह उस पर चलने की इच्छुक नहीं है। पार्टी के दूसरे सबसे बड़े नेता अमित शाह इन वर्षों में कई बार राज्य का दौरा कर चुके हैं और आज भी लगातार प्रदेश स्तरीय नेताओं के संपर्क में हैं, लेकिन शायद एक तरफ इन नेताओं की नजर नहीं जा रही है। वर्ष 2014 से ही जहां पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व राज्य की सभी 14 संसदीय सीटों को जीतने की रणनीति पर काम करता रहा है, लेकिन आज तक यह संभव नहीं हो पाया है। इसके पीछे का कारण बेहद दिलचस्प है। 2014 में झारखंड में पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आयी भाजपा ने अगले पांच साल में कुछ अजीब प्रयोग किये। उस बार पहली बार एक गैर-आदिवासी नेता को मुख्यमंत्री बनाया गया, तो बाद में दूसरे राजनीतिक दलों के नेताओं को अपने खेमे में लाने और प्रमोट करने का सिलसिला भी शुरू कर दिया गया, लेकिन पार्टी की यह रणनीति बुरी तरह विफल हो गयी, क्योंकि 2019 में विधानसभा चुनाव में पार्टी सत्ता से बाहर हो गयी और बाहर से आये नेता भी चुनावी रेस में चारों खाने चित्त हो गये। इसलिए कहा जा सकता है कि झारखंड भाजपा की गाड़ी में बाहरी पार्ट-पुर्जों को लगाना पार्टी के लिए भारी पड़ गया और पार्टी की वर्तमान स्थिति के लिए यही रणनीति एक हद तक जिम्मेवार है। झारखंड भाजपा की इस स्थिति का विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
पिछले नौ साल से देश की सत्ता पर बरकरार और देश के आधे से अधिक राज्यों की सत्ता संभाल रही भारतीय जनता पार्टी को भारतीय सियासत की ‘चुनावी मशीनरी’ कहा जाता है, क्योंकि दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी हमेशा चुनावी मोड में रहती है और इसका चुनाव जीतने का ट्रैक रिकॉर्ड लगभग अपराजेय रहा है। ऐसे में जब 2024 का आम चुनाव महज एक साल दूर है, तो पार्टी के भीतर की स्थिति पर नजर डालना बेहद जरूरी है। इसका कोई ठोस कारण तो नहीं है, लेकिन कुछ बात तो है, जिसके कारण 2014 के विधानसभा चुनाव के बाद से झारखंड भाजपा अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकी है। 2014 के विधानसभा चुनाव में मिली सफलता के बाद पार्टी पूरी तरह से फील गुड में आ गयी। उसे लगने लगा कि वह जिस किसी भी नेता पर हाथ रख देगी, वह कद्दावर बन जायेगा, जिसे भी कहीं से लाकर टिकट दे देगी, वह जीत जायेगा। यही कारण था कि 2014 में सत्ता में रहने के दौरान पार्टी ने खूब प्रयोग किये। अपनी घोषणा के अनुसार 56 का आंकड़ा पार करने के लिए उसने जहां-तहां से नेताओं को उठा कर अपनी पार्टी में भर्ती करना शुरू किया और 2019 के चुनाव में पार्टी के तपे-तपाये नेताओं को दरकिनार कर बाहर से लाये गये नेताओं को विधानसभा का टिकट दे दिया। ऐसे एक नहीं, पांच-पांच प्रयोग किये गये।
झारखंड भाजपा के भीतर की इस स्थिति से पार्टी के समर्पित और पुराने नेताओं-कार्यकर्ताओं में बेचैनी छा गयी। ऐसा नहीं है 2014 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव के बाद से पार्टी राजनीतिक मोर्चे पर सक्रिय नहीं रही, लेकिन 2019 के विधानसभा चुनाव में जब परिणाम आया, तो चुनाव में 56 का आंकड़ा पार करने का दंभ भरनेवाली भाजपा उसके आधे से भी कम पर सिमट गयी। खाते में आयी मात्र 25 सीट। उसके सबसे मजबूत माने जानेवाले नेता और मुख्यमंत्री रघुवर दास तक चुनाव हार गये। बता दें कि भाजपा ने कद्दावर नेता सरयू राय तक का टिकट काट दिया। इसका खामियाजा यह हुआ कि जिस भाजपा ने सरयू राय को चुनाव जीतने लायक नहीं माना था, उन्होंने भाजपा के सबसे कद्दावर नेता रघुवर दास को चुनाव में पटकनी दे दी। भाजपा ने 2014 में पहली बार आजसू की मदद से झारखंड में पूर्ण बहुमत हासिल किया था। उस समय पार्टी ने गैर-आदिवासी चेहरे पर दांव लगाया था और यह उदघोषणा भी की थी कि इस बार 56 पार होगा। इसके लिए पार्टी ने अजीब से प्रयोग किये। अति उत्साह में भाजपा ने आजसू से समझौता नहीं किया। भाजपा को यह लगने लगा था कि आजसू अपनी ताकत से कहीं ज्यादा सीटें मांग रही है। उसने उससे दूरी बना ली। यही नहीं, उसने दल के नेताओं को नजरअंदाज कर दूसरे दलों खासकर कांग्रेस और झामुमो से उम्मीदवार उतार कर यह दंभ भरने लगी कि यहां से वह विपक्ष का पूरी तरह से सफाया कर देगी। उसने आजसू को सबक सिखाने के उद्देश्य से ही एक-एक कर आजसू की प्रभावी सीटों पर उम्मीदवार उतार दिया। आजसू को धूल चटाने के लिए उसने लोहरदगा से कांग्रेस के कद्दावर नेता सुखदेव भगत को पार्टी में शामिल करा लिया और उन्हें टिकट दे दिया। बरही में उमाशंकर अकेला को टिकट न देने के अपने फैसले पर मुहर लगाने के उद्देश्य से उसने कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे मनोज यादव को बरही से चुनाव मैदान में उतार दिया। संथाल में झामुमो को चुनौती देने और सोरेन परिवार का विकल्प खड़ा करने के ध्येय से झामुमो के कद्दावर नेता रहे हेमलाल मुर्मू को अपनी ओर मिला लिया। भवनाथपुर से भानुप्रताप शाही और छतरपुर से कांग्रेस नेता राधाकृष्ण किशोर को टिकट दे दिया। घाटशिला में भी उसने झामुमो विधायक कुणाल षाड़ंगी पर दांव खेला और चुनाव में रामनामी चादर ओढ़ा दी। जब चुनाव परिणाम सामने आया, तो भाजपा चारों खाने चित्त नजर आयी। इसमें भानुप्रताप शाही को छोड़ कर उसके सारे सुरमा मैदान हार गये। 2019 के चुनाव परिणाम से यह स्पष्ट हो गया कि पार्टी का वह दांव ठीक नहीं था। 2019 के चुनाव में पार्टी की पराजय के पीछे तीन प्रमुख कारण रहे। बाद में समीक्षा के दौरान हार के कारणों में पहला कारण तो गैर आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाना रहा, जबकि दूसरा कारण पार्टी द्वारा दूसरे दलों के नेताओं को तरजीह देना और तीसरा कारण पुरानी सहयोगी आजसू पार्टी के साथ गठबंधन तोड़ना रहा।
2019 के विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा ने बड़े पैमाने पर दूसरे दलों के नेताओं को अपने खेमे में इसलिए शामिल कराया था कि वह फिर से न सिर्फ झारखंड की सत्ता पा सके, बल्कि यहां से विपक्ष और खासकर झामुमो और कांग्रेस का सफाया कर दे। लेकिन इनमें से चार नेताओं से भाजपा को सबसे बड़ी निराशा हाथ लगी। इनमें से चार प्रमुख नेताओं का उल्लेख यहां जरूरी लगता है। ऐसे पहले नेता थे सुखदेव भगत, जिन्हें कांग्रेस से लाया गया था। वह लोहरदगा के विधायक और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी रह चुके थे। उनकी गिनती लोहरदगा में कद्दावर नेता के रूप में होती थी। वह अच्छा वक्ता भी थे। शिक्षित और शालीन होने के कारण उनकी अलग पहचान थी। भाजपा को यकीन था कि वह इस सीट को पार्टी की झोली में तो डालेंगे ही, उनके प्रभाव से पार्टी लोहरदगा-गुमला की आदिवासी सीटों खासकर लोहरदगा, गुमला, विशुनपुर, सिसई और नजदीकी सिमडेगा की सीट को भी अपनी झोली में डाल लेगी। लेकिन सुखदेव भगत चुनाव हार गये और पार्टी के भीतर भी अकेले रह गये। चुनाव हारने के बाद से ही वह भाजपा से दूरी बनाने लगे। बाद में वह अपने पुराने घर में लौट गये। इसी तरह बरही के मनोज यादव जब कांग्रेस में थे, तब उनका कद बहुत बड़ा था। उन्हें हजारीबाग और चतरा से लोकसभा का प्रमुख दावेदार भी माना जाने लगा था। भाजपा को यह भरोसा था कि मनोज यादव के आ जाने से वह झारखंड के यादव मतदाताओं को अपने पाले में कर लेगी और झारखंड से राजद का सफाया कर देगी। भाजपा ने उन्हें पार्टी में शामिल कराया और उमाशंकर अकेला का टिकट काट कर उन्हें रामनामी चोला ओढ़ा दिया। उमाशंकर अकेला हताश मन से कांग्रेस में चले गये और उसके टिकट पर उतर कर उन्होंने ताकतवर नेता मनोज यादव को पटखनी दे दी। आज मनोज यादव हैं तो भाजपा में ही, लेकिन राजनीतिक फलक से लगभग गायब ही हो चुके हैं। कुछ इसी तरह की कहानी हेमलाल मुर्मू की रही है। भाजपा ने उन्हें रामनामी चादर ओढ़ा कर खूब प्रयोग किये। उन्हें उपचुनाव से लेकर जनरल चुनाव तक में टिकट दिया। पार्टी ने उन्हें दल में बड़े पद से भी नवाजा, उन्हें स्थापित करने के लिए हर मौका और हर दांव खेला, लेकिन वह झामुमो का कुछ भी नुकसान नहीं कर पाये। यहां तक कि भाजपा में वह गुमनाम से हो गये। लोकसभा सीट तो छोड़ ही दीजिए, विधानसभा का चुनाव भी नहीं जीत सके। अब मुर्मू भी समझ चुके हैं कि संथाल के मतदाता उन्हें रामनामी चादर में पसंद नहीं करते और वह घर वापसी के रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं। चौथे नेता कुणाल षाड़ंगी हैं, जो पांच साल तक झामुमो का चर्चित विधायक और हेमंत सोरेन का विश्वासपात्र रहने के बाद एन चुनाव से पहले भाजपा में शामिल हो गये। पार्टी ने इन्हें टिकट भी दिया, लेकिन वह पुराने भाजपाई और झामुमो प्रत्याशी समीर मोहंती के हाथों पराजित हो गये। यानी जिस समीर मोहंती को भाजपा चुनाव लड़ने के योग्य नहीं मान रही थी, उन्होंने कुणाल षाड़ंगी को धूल चटा दी। वह भी तब, जब उन्हें ताकत देने के लिए अमित शाह तक ने चुनावी सभा की थी। भाजपा से चूक यहीं हुई कि इसने अपने समर्पित कार्यकर्ताओं की जगह बाहर से आये इन नेताओं को ज्यादा तरजीह दी। पार्टी नेताओं को लगा कि बाहर से आये ये नेता सत्ता में उसकी वापसी में मदद करेंगे, लेकिन परिणाम इसके विपरीत हुआ। ये नेता न चुनाव जीत पाये और न संगठन में ही फिट हो पाये। उलटे पार्टी के तपे-तपाये नेता निराश हो गये।
इसलिए अब भी समय है कि झारखंड भाजपा अपनी गाड़ी को तेजी से दौड़ाने के लिए बाहर के पार्ट-पुर्जों की जगह अपनी फैक्टरी में तैयार पार्ट-पुर्जों का इस्तेमाल करे। यदि उसे 2024 का लोकसभा चुनाव और छह महीने बाद होनेवाला विधानसभा चुनाव में सफलता पानी है, तो पार्टी को उधार के प्लेयर की जगह अपने तपे-तपाये कार्यकर्ताओं पर ही दांव खेलने की रणनीति पर नये सिरे से विचार करना होगा। पार्टी के भीतर पार्टी के नेताओं-कार्यकर्ताओं के संशय को दूर करते हुए उन्हें तरजीह देनी होगी। भाजपा को यह याद रहना चाहिए कि अगर कभी केंद्र में दो सीट से सत्ता तक पहुंची है, तो इसके पीछे उसके तपे-तपाये नेता-कार्यकर्ताओं की ही भूमिका रही है, दूसरे दल को तोड़ने की उसकी चाल फिट नहीं बैठ रही है। दूसरे दल के नेताओं में अधिकांश उसकी मशीन में फिट नहीं हो पायेंगे।