विशेष
बिहार-यूपी की इस सियासत का होगा दूरगामी असर
तात्कालिक लाभ के लिए इस मुद्दे पर जोर से होगा नुकसान

कर्नाटक में आसन्न विधानसभा चुनाव से पहले जिस तरह जातीय जनगणना का मुद्दा उछला है और बिहार में इस प्रक्रिया का दूसरा चरण शुरू होने के बाद कांग्रेस ने इसे बड़ा मुद्दा बना लिया है, उससे देश में एक बार फिर जाति आधारित राजनीति के जोर पकड़ने की संभावना बनने लगी है। यूपी-बिहार में जाति आधारित राजनीति का यह बड़ा स्वरूप उभर कर सामने आया है और अब सभी दल इस गंगा में डुबकी लगाना चाह रहे हैं। कांग्रेस नेताओं ने जहां जातीय आंकड़ों को लेकर भाजपा को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की है, तो वहीं भाजपा ने पलटवार किया है कि कांग्रेस देश को धर्म और जाति में बांटना चाहती है। सवाल है कि जाति की राजनीति का आरोप लगाकर भाजपा को कोसने वाली कांग्रेस क्या खुद जाति की राजनीति कर रही है। कर्नाटक में चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी ने ओबीसी के बहाने जातीय जनगणना के आंकड़े जारी करने की मांग कर दी। वैसे तो कांग्रेस यह दावा करती रहती है कि वह जाति की राजनीति नहीं करती, लेकिन राहुल गांधी का यह बयान सत्ता, समाज और देश को जाति के आधार पर बांटने का इशारा कर रहा है। इससे पहले कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे भी पीएम मोदी को जातिगत जनगणना के मुद्दे पर पत्र लिख चुके हैं। जाहिर है कि विधानसभा चुनाव वाले राज्यों की राजनीति भी जातिगत जनगणना के मुद्दे पर घूमती नजर आ रही है। इतना ही नहीं, बिहार में नीतीश कुमार ने जिस तरह जाति आधारित जनगणना की प्रक्रिया शुरू की है, उससे लगता है कि यह मुद्दा 2024 के आम चुनाव में भी केंद्र में होगा। लेकिन सच यही है कि जातीय जनगणना के लाभ हैं, तो नुकसान भी हैं। जातीय राजनीति से तात्कालिक लाभ की उम्मीद की जा सकती है, लेकिन लंबी अवधि में यह देश और समाज के लिए नुकसानदेह ही साबित होगी। इसलिए बोतल में बंद इस जिन्न को बाहर निकालने में हड़बड़ी नहीं दिखानी चाहिए। जातीय जनगणना की पृष्ठभूमि में जाति आधारित राजनीति के नफा-नुकसान समेत इसके विभिन्न पहलुओं के बारे में बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

18वें आम चुनाव के मुहाने पर खड़े देश में जाति आधारित राजनीति का केंद्र बिहार में जातीय जनगणना का काम शुरू हो गया है। वह इस तरह की जनगणना कराने वाला पहला राज्य है। इसलिए अब जातीय जनगणना की मांग जोर पकड़ने लगी है। इसके साथ ही देश में जाति आधारित राजनीति भी जोर पकड़ने लगी है। कांग्रेस और क्षेत्रीय दल इस तरह की राजनीति की शुरूआत कर चुके हैं। भाजपा को इससे हिचक इसलिए है, क्योंकि इससे जाति आधारित राजनीति को बल मिलने के साथ आरक्षण की नयी मांगें सामने आने का अंदेशा है। सच जो भी हो, यह अच्छा है कि बिहार सरकार जातीय गणना के साथ लोगों की आर्थिक स्थिति का भी आकलन करने जा रही है। लोगों की आर्थिक स्थिति जानना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि उसे जानकर ही क्षेत्र विशेष के लिए आर्थिक उत्थान की कारगर योजनाएं शुरू की जा सकती हैं। आर्थिक स्थिति का आकलन निर्धनता निवारण की योजनाओं के क्रियान्वयन में भी सहायक होता है, लेकिन यही बात जातीय जनगणना के बारे में नहीं कही जा सकती। सैद्धांतिक रूप से तो देश के सामने यह स्पष्ट होना ही चाहिए कि किस जाति के कितने लोग हैं, क्योंकि सामाजिक विकास की कई योजनाएं इसी आधार पर संचालित होती हैं कि कहां, किस जाति की कितनी संख्या है। जाति भारतीय समाज की एक सच्चाई है और उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। जाति का सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से भी महत्व है, लेकिन जातीय जनगणना के खतरे भी हैं। सबसे बड़ा खतरा यह है कि विभिन्न राज्यों में जातियों का आकलन करने के नाम पर जातिवाद की राजनीति को नए सिरे से धार दी जा सकती है। इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती कि अपने देश में जातियों को गोलबंद करके किस तरह वोट बैंक की राजनीति की जाती है। देश में कई दल ऐसे हैं, जो जाति विशेष की राजनीति करते हैं। इन दलों ने विभिन्न जातीय समूहों को गोलबंद करके तरह-तरह के समीकरण बना रखे हैं। क्षेत्रीय राजनीतिक दल ऐसे समीकरण बनाने में माहिर हैं। भले ही जातियों के आधार पर राजनीति करने वाले दल सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने का दावा करते हों, लेकिन सच यह है कि वे जातिगत आधार पर लोगों का ध्रुवीकरण करते हैं और चुनावों के समय उसका लाभ उठाते हैं। इस तरह की राजनीति न केवल समाज को बांटने का काम करती है, बल्कि कई बार विभिन्न जातियों के बीच वैमनस्य भी पैदा करती है।

जातीय जनगणना क्या है
जैसा कि सभी जानते हैं कि हमारे देश में हर 10 साल में जनगणना की जाती है। इसे हमें देश की आबादी के बारे में सटीक जानकारी मिलती है। कई नेताओं की मांग है कि जब देश में जनगणना की जाये, तो इस दौरान लोगों से उनकी जाति भी पूछी जाये। इससे हमें देश की आबादी के बारे में तो पता चलेगा ही, साथ ही इस बात के जानकारी भी मिलेगी कि देश में कौन सी जाति के कितने लोग रहते है। सीधे शब्दों में कहे तो जाति के आधार पर लोगों की गणना करना ही जातीय जनगणना कहलाता है।

आखिरी बार जातीय जनगणना कब हुई थी
भारत में आखिरी बार जातीय जनगणना साल 1931 में ब्रिटिश शासनकाल के दौरान हुई थी। आजाद भारत में कभी भी जातीय जनगणना नहीं हुई है। हालाँकि जातीय जनगणना एक ऐसी मांग है, जिसे समय-समय पर कई नेताओं द्वारा उठाया जा चुका है। वैसे देखा जाये, तो साल 1941 में भी जाति जनगणना हुई, लेकिन उसके आंकड़े जारी नहीं किये गये। इसके अलावा साल 2011 में यूपीए के शासनकाल में भी जातीय जनगणना हुई थी, लेकिन रिपोर्ट में कमियां बता कर उसे जारी ही नहीं किया गया था।

जातीय जनगणना के क्या फायदे हैं
अगर बात करें जातीय जनगणना के फायदों के बारे में, तो बता दे कि इसको लेकर नेताओं के अपने-अपने तर्क हैं। जातीय जनगणना की मांग करने वाले कुछ नेताओं का कहना है कि जातीय जनगणना से हमें यह पता चल सकेगा कि देश में कौन जाति अभी भी पिछड़ेपन की शिकार है। यह आंकड़ा पता चलने से पिछड़ी जातियों को आरक्षण का लाभ देकर उन्हें सशक्त बनाया जा सकता है। इसके अलावा यह भी तर्क दिया जाता है कि जातीय जनगणना से किसी भी जाति की आर्थिक, सामाजिक और शिक्षा की वास्तविक का पता चल पायेगा। इससे उन जातियों के लिए विकास की योजनाएं बनाने में आसानी होगी।

जातीय जनगणना के क्या नुकसान हैं
देश में ऐसे भी लोग हैं, जो चाहते हैं कि देश में जातीय जनगणना नहीं होना चाहिए। उनका मानना है कि जातीय जनगणना से देश को कोई तरह के नुकसान हो सकते है। जैसे यदि किसी समाज को पता चलेगा कि देश में उनकी संख्या घट रही है, तो उस समाज के लोग अपनी आबादी बढ़ाने के लिए परिवार नियोजन अपनाना छोड़ सकते हैं। इससे देश की आबादी में तेजी से इजाफा होगा। इसके अलावा जातीय जनगणना से देश का सामाजिक ताना-बाना बिगड़ने का खतरा भी रहता है। साल 1951 में भी तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने यही बात कहकर जातीय जनगणना के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था।

जातीय जनगणना का राजनीतिक खेल
अब बात जातीय जनगणना के पीछे चल रहे राजनीतिक खेल की। साल 2010 में जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी, तब भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे ने संसद में जातिगत जनगणना की मांग की थी। लेकिन अब सरकार में आने के बाद भाजपा सरकार जातीय जनगणना से पीछे हटती दिखाई दे रही है। इसके अलावा कांग्रेस सरकार ने भी साल 2011 में शरद पवार, लालू यादव और मुलायम सिंह यादव के दबाव में जातीय जनगणना करवायी जरूर थी, लेकिन उसके आंकड़े ही जारी नहीं किये। भाजपा और कांग्रेस दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियों का जातीय जनगणना को लेकर एक सा रुख नजर आता है, हालांकि इसके पीछे कुछ राजनीतिक वजह भी है। दरअसल भाजपा की राजनीति हिंदुत्व के मुद्दे पर टिकी है। भाजपा के हिंदुत्व का मतलब है पूरा हिंदू समाज। दूसरी तरफ कई प्रदेशों में क्षेत्रीय दल जाति की राजनीति करते है। ऐसे में जातीय जनगणना से हिंदू समाज जाति में विभाजित हो जाता है, तो इसका फायदा क्षेत्रीय दलों को होगा और भाजपा को बड़ा नुकसान होगा।
भाजपा और कांग्रेस, दोनों ही देश की बड़ी पार्टियां हैं और उनका लगभग पूरे देश में वर्चस्व है। इनके वोटर किसी खास जाति के नहीं हैं। इसके उलट देश में कई ऐसी पार्टियां हैं, जो किसी खास जाति की राजनीति ही करती हैं। ऐसे में जातीय जनगणना से देश में जाति की राजनीति जोर पकड़ सकती है। इससे क्षेत्रीय दलों को तो फायदा होगा, लेकिन भाजपा और कांग्रेस दोनों को ही नुकसान उठाना पड़ सकता है।
जाति आधारित राजनीति का दूसरा बड़ा नुकसान यह है कि वैश्विक मंच पर अग्रिम पंक्ति में स्थान हासिल करने के लिए जाति और वर्ग विहीन समाज की स्थापना एक अहम शर्त है, लेकिन यदि देश में इस दिशा में काम नहीं होगा, तो विश्वगुरु बनने की हमारी आकांक्षा धरी की धरी रह जायेगी। इसलिए इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार किये जाने की जरूरत है।

Share.

Comments are closed.

Exit mobile version