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झारखंड की राजनीति के ‘डार्क हॉर्स’ हैं सुदेश महतो
राजनीति को पार्ट टाइम जॉब नहीं मानते, इनके खून में रची-बसी है

लोकसभा चुनाव की गहमा-गहमी और राजनीतिक दलों-नेताओं की व्यस्तताओं के बीच से कई ऐसे उदाहरण सामने आते हैं, जो नजीर बन जाते हैं। झारखंड में भी कुछ ऐसा ही माहौल आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो बना रहे हैं। वह न केवल अलग किस्म की राजनीति कर रहे हैं, बल्कि गठबंधन धर्म के पालन के लिए अपना सब कुछ झोंक रहे हैं। आजसू झारखंड की केवल एक सीट पर चुनाव लड़ रही है, लेकिन सुदेश महतो गठबंधन धर्म के तहत भाजपा के लिए जम कर पसीना बहा रहे हैं। चाहे जमशेदपुर हो या चाइबासा, लोहरदगा हो या धनबाद या फिर हजारीबाग, आजसू नेता और कार्यकर्ता हर संसदीय क्षेत्र में ऐसे प्रचार कर रहे हैं, मानो वहां आजसू का ही प्रत्याशी चुनाव लड़ रहा है। वहां बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं की बैठक से लेकर जनसंपर्क अभियान की रूपरेखा तक तय कर ली गयी है। वास्तव में अपनी स्थापना काल से ही आजसू ने हमेशा अलग किस्म की राजनीति की है और इसलिए सुदेश महतो को आज की तारीख में झारखंड की राजनीति का ‘डार्क हॉर्स’ कहा जाने लगा है। यही कारण है कि सुदेश महतो से सीधे भाजपा का शीर्ष नेतृत्व बातचीत करता है, वह चाहे अमित शाह हों या भूपेंद्र यादव यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक उनका हाथ खींच कर अपने बगल में बैठाते हैं। यह सब तब हो रहा है, जब गठबंधन की अधिक जरूरत भाजपा को है। दरअसल, भाजपा दिसंबर, 2019 के झारखंड विधानसभा चुनाव में आजसू के साथ दोस्ती टूटने का खामियाजा भुगत चुकी है। इसलिए वह आजसू की अहमियत को समझती है। झारखंड की राजनीति में आजसू और सुदेश महतो की अलग और विशिष्ट कार्यशैली वाकई एक ऐसी राजनीतिक धारा का निर्माण कर रही है, जिससे हर राजनीतिक दल को सीखना चाहिए। सुदेश महतो अपनी इस कार्यशैली के कारण ही झारखंड की राजनीति में अलग धारा बना चुके हैं। वह सिर्फ चुनाव में जीत-हार का नफा नुकसान नहीं देखते, बल्कि कई अवसरों पर वह इंसानियत का भी परिचय देते हैं। स्पष्टवादिता में भी उनकी कोई शानी नहीं है। यही कारण है कि आज झारखंड में आजसू की पहचान एक सशक्त राजनीतिक दल की हो गयी है। झारखंड का कोई भी ऐसा विधानसभा क्षेत्र नहीं है, जहां आजसू ने अपनी छाप नहीं छोड़ी हो। हर दल के नेता भी सुदेश महतो की कद्र करते हैं। क्या है सुदेश महतो और आजसू की राजनीतिक धारा और इसका झारखंड के भविष्य पर क्या असर पड़ सकता है, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

पूरे देश के साथ झारखंड भी इस समय चुनावी तपिश में तप रहा है। हर राजनीतिक दल और नेता चुनावी कार्यों में इतना व्यस्त हैं कि उन्हें कुछ नया सोचने या करने का होश नहीं है। ऐसे में झारखंड की एक पार्टी और उसका नेता ऐसा है, जो अपने सहयोगी के लिए पसीना बहा रहा है। गठबंधन धर्म का पालन करने के लिए वह नेता अपनी पहल पर पूरी पार्टी को सक्रिय कर चुका है। वह इस इंतजार में नहीं बैठा रहा कि जब भाजपा के उम्मीदवार उसको बुलायेंगे या भाजपा नेतृत्व उनसे आग्रह करेगा तक चुनावी कार्य शुरू करेंगे। हम बात कर रहे हैं आजसू पार्टी और उसके अध्यक्ष सुदेश महतो की। आजसू पार्टी वैसे तो राज्य में केवल एक सीट गिरिडीह से चुनाव लड़ रही है, लेकिन बाकी 13 सीटों पर सुदेश महतो भाजपा के लिए जम कर मेहनत कर रहे हैं। जमशेदपुर, चाइबासा, हजारीबाग, लोहरदगा और धनबाद में आजसू पार्टी पूरी तरह भाजपा के पक्ष में काम करने में जुटी हुई है। खुद सुदेश महतो भी पूरे राज्य का दौरा कर भाजपा के लिए वोट मांग रहे हैं। वह इस इंतजार में नहीं रहते कि भाजपा वाले उन्हें हेलीकॉप्टर भेजेंगे और वह चुनाव प्रचार करेंगे। वह अपने संसाधन से कूच कर रहे हैं और हर सीट पर एनडीए उम्मीदवार के पक्ष में माहौल बना रहे हैं।

ऐसे में सवाल उठता है कि सुदेश महतो ऐसा क्यों कर रहे हैं। भाजपा की जीत से उन्हें क्या लाभ होगा। यही सवाल सुदेश महतो को सुदेश महतो और आजसू पार्टी को आजसू पार्टी बनाता है। आजसू पार्टी और सुदेश महतो राजनीति की उस धारा का निर्माण कर रहे हैं, जिसमें गठबंधन धर्म के पालन के लिए कहीं कोई दुराव-छिपाव नहीं होता है। इस सवाल का जवाब जानने के लिए बस पांच साल पहले झारखंड के विधानसभा चुनाव में लौटना होगा, जब भाजपा और आजसू की दोस्ती टूट गयी थी। एक नेता के अहंकार के कारण दोनों दलों में दूरियां इतनी बढ़ गयीं कि विधानसभा चुनाव में दोनों की मिट्टी पलीद हो गयी। भाजपा जहां महज 25 सीटों पर सिमट गयी, वहीं आजसू भी केवल दो सीट ही जीत सकी थी। विधानसभा चुनाव के परिणाम ने साबित कर दिया कि भाजपा और आजसू की दोस्ती टूटने के कारण दोनों को कम से 15 सीटों का नुकसान हुआ। विधानसभा चुनाव के तीन महीने बाद भाजपा को आजसू से दोस्ती के महत्व का आभास हुआ और

अब आजसू एक बार फिर भाजपा की मदद के लिए मैदान में उतर चुका है।
2019 में हुए लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने आजसू के साथ अपनी दोस्ती को नया आयाम दिया था और गिरिडीह सीट उसके लिए छोड़ दी थी। आजसू ने भी निराश नहीं किया और गिरिडीह सीट जीत कर उसने भरोसा कायम रखा। इसके बाद विधानसभा चुनाव के दौरान दोनों की दोस्ती टूट गयी, तो दोनों को नुकसान उठाना पड़ा। लेकिन अब आजसू अपने दोस्त की मदद के लिए मैदान में है, तो राजनीति की नयी इबारत जरूर लिखी जायेगी।

क्यों राजनीति के ‘डार्क हॉर्स’ हैं सुदेश महतो
सुदेश महतो ने झारखंड बनने के बाद से एक कुशल राजनीतिज्ञ के रूप में अपनी अलग पहचान स्थापित की है। अपने गृह क्षेत्र सिल्ली से लगातार दो बार विधानसभा का चुनाव हारने के बावजूद उन्होंने पार्टी के साथ-साथ अपना हौसला भी बनाये रखा। उन्होंने हमेशा मुद्दों की राजनीति की है और गंभीरता से अपनी पार्टी की रणनीति निर्धारित की है। विधानसभा में भी उनकी बात सभी पक्ष के सदस्य गंभीरता से सुनते हैं। अपने एक-एक कार्यकर्ता के साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ा रहना सुदेश के विशिष्ट गुणों में शामिल है। उनकी यही कार्यशैली उन्हें दूसरे राजनेताओं से अलग करती है। मई 2019 में हुए संसदीय चुनाव में उन्होंने भाजपा की जितनी मदद की थी, उसकी तारीफ चारों तरफ हुई थी। उस चुनाव में पहली बार भाजपा ने आजसू के लिए गिरिडीह सीट छोड़ दी थी, जो उसकी सीटिंग सीट थी। इसके बदले आजसू ने राज्य की दूसरी 13 सीटों पर भाजपा के लिए जम कर पसीना बहाया था। फिर बंगाल चुनाव में पहली बार भाजपा ने आजसू के लिए एक सीट छोड़ कर साबित किया कि वह अपने सहयोगी की कद्र करती है।

सुदेश महतो ने पिछले पांच-छह साल में अपनी पार्टी का जिस रफ्तार से विस्तार किया है, वह किसी अचंभे से कम नहीं है। आज की तारीख में आजसू का संगठन झारखंड के हरेक गांव में है और यह केवल नाम के लिए नहीं है, बल्कि पूरी तरह सक्रिय है।
दरअसल आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो हमेशा से ऐसे मुद्दों की तलाश में रहते हैं, जिन पर काम कर पार्टी को लगातार विस्तार दिया जा सके। 2019 के विधानसभा चुनाव से पहले भी सुदेश महतो लगातार पदयात्रा कर आम लोगों से जीवंत संपर्क में रहे थे। यही कारण है कि आजसू का संगठन आज झारखंड के हर गांव में है। चुनाव में भले ही आजसू को दो सीटें ही मिलीं, लेकिन भाजपा को इसके अलगाव की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी। इसके बाद से ही झारखंड की राजनीति में आजसू के महत्व को भाजपा ने समझा। सुदेश की दूर की राजनीति की रणनीति ने कई बार साबित किया है कि आजसू लीक से हट कर चलती है। आरक्षण और नियोजन जैसे मुद्दे उठा कर सुदेश ने एक बार फिर यही बात साबित की थी और उनके फैसले ने बाकी दलों को पीछे छोड़ दिया था। सुदेश महतो की एक खासियत यह भी है कि वह राजनीति के तराजू पर संबंधों को तिलांजलि नहीं देते। अपने या पार्टी के लाभ के लिए वे अपने किसी सक्रिय कार्यकर्ता या नेता की बलि नहीं चढ़ाते। इसका सबसे बड़ा उदाहरण लोहरदगा में नीरू शांति भगत हैं। कमल किशोर भगत के नहीं रहने के बावजूद सुदेश महतो ने नीरू शांति भगत को राजनीति में स्थापित किया। यहां तक कि 2019 के चुनाव में भाजपा के साथ समझौता नहीं होने के पीछे लोहरदगा सीट भी एक बड़ा कारण बनी। भाजपा के तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुवर दास ने कांग्रेस नेता सुखदेव भगत को भाजपा में शामिल करवाया था। भाजपा चाहती थी कि आजसू वह सीट भाजपा के लिए छोड़ दे, लेकिन सुदेश महतो ने अपने कर्तव्य का पालन करते हुए कमल किशोर भगत की पत्नी नीरू शांति भगत को लोहरदगा से आजसू का उम्मीदवार बनाया। जीत तो नहीं मिली, लेकिन उसका खामियाजा भाजपा को भी भुगतना पड़ा। सुखदेव भगत वहां से चुनाव हार गये। उस हार ने सुखदेव भगत को हिला कर रख दिया और

अंतत: उन्होंने भाजपा की छोड़ने का फैसला कर लिया।
भारतीय राजनीति में आरक्षण और नियोजन जैसे मुद्दे कितने संवेदनशील हैं, यह बात दोहराने की जरूरत नहीं है। आरक्षण पर कोई भी बात तत्काल असर करती है और किसी भी दल का स्टैंड तत्काल परिणाम देता है। इसी तरह नियोजन या बेरोजगारी भी युवाओं से जुड़ा मुद्दा है, जिसके उठाने से इस वर्ग पर अलग असर पड़ता है। तभी तो हर दल चुनाव में नौकरी की बात करता है, लेकिन यह केवल आजसू ही है, जिसने चुनाव के बाद भी इस मुद्दे को जीवित रखा है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि पिछले 21 साल में केवल आजसू ने ही राजनीति की अलग लकीर खींची है और कदम-दर-कदम चल कर इसने अपना स्थान हासिल किया है। आगे का समय भी आजसू का हो सकता है, लेकिन उसके लिए उसे लंबा सफर तय करने को तैयार रहना होगा।

आजसू से दोस्ती का लाभ भाजपा को तो मिलेगा ही, खुद सुदेश महतो और आजसू भी भाजपा के लिए झारखंड में महत्वपूर्ण साबित होगी, क्योंकि यहां की जमीनी राजनीति में और खासकर कुर्मी मतदाताओं में सुदेश से मजबूत पकड़ कम से कम भाजपा के किसी नेता की तो नहीं है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा और आजसू के मजबूत रिश्ते का झारखंड की सियासत पर क्या असर पड़ेगा और दोनों दलों को इसका कितना लाभ मिलेगा, लेकिन इतना जरूर है कि झारखंड में सुदेश महतो जैसे राजनीतिज्ञ की हमेशा जरूरत रहेगी।

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